बेहद पुरातन काल से प्रचलन में हैं गढ़-कुमाऊं की फेटशिखाई व टोपला टोपी!

बेहद पुरातन काल से प्रचलन में है गढ़-कुमाऊं की फेटशिखाई व टोपला टोपी! सम्पूर्ण उत्तराखंड में कई नामों के प्रचलन के साथ अलग-अलग बनावट भी है पहाड़ी टोपी की पहचान!


        (मनोज इष्टवाल)
जब शीश वस्त्र की बात हो तो सिर्फ और सिर्फ राजा महाराजों की पगड़ियां ध्यान में आती हैं लेकिन महाराष्ट्र व मारवाड़ी समाज की एक टोपी हर हमेशा प्रचलन में रही जिसकी आकृति हू-ब-हू पहाड़ी टोपी की तरह की है! शीश वस्त्र की गुंजाइश कब और क्यों हुई इसके प्रचलन का काल क्या था! क्यों इसकी आवश्यकता समझी गयी इत्यादि  कई ऐसे प्रश्न हैं जिन पर आज भी व्यापक शोध की आवश्यकता है! लेकिन जब पहाड़ की बात आती है तो हिमाचल की कन्नौरी, नार्थ-ईस्ट की हैट, नेपाल की ढाका, कश्मीर की मिर्जई/जवाहर टोपी इत्यादि मूल रूप से पहाड़ी राज्यों की टोपियाँ गिनीं जाती हैं लेकिन जिस राज्य ने सबसे ज्यादा टोपियाँ अपने हर काल में अपने लोक समाज को दी उस समाज को यही पता नहीं हैं कि उनकी पहनी जाने वाली टोपी का नाम क्या है जबकि आज गढ़वाल राइफल व कुमाऊं रेजिमेंट तक उसी टोपी में खूब सजती फबती है!

यहाँ समीर शुक्ला जो हिमालयन समीर के नाम से प्रसिद्ध हैं द्वारा डिजाईन की गयी एक टोपी जिसे सब पहाड़ी टोपी के नाम से जानते हैं जब हाल ही में फेशन के रूप में प्रचलन में आई तब सब गोपेश्वर निवासी कैलाश भट्ट की उस पहाड़ी टोपी को भूल गए जो पुरातन काल से उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे गढ़-कुमाऊं वासियों का शीश वस्त्र रहा है! अब चर्चा उठी कि समीर शुक्ला कैसे पहाड़ी टोपी पर प्रयोग कर उसे नए स्वरूप में पेश कर रहे हैं! यह चर्चा जब आम बुद्धिजीवियों के बीच बहस का मुद्दा बनती नजर आई तो मेरा मन हुआ कि क्यों न हर बुद्धिजीवी की सलाह ली जाय कि आखिर पहाड़ी टोपी का भी तो कोई नाम होगा जैसे हिमाचल में कुन्नौरी टोपी प्रचलन में है या हिमालयी अन्य भू-भागों में अन्य नामों से! मुद्दा बहुत छोटा था लेकिन पहाड़ी टोपी का नाम क्या है यहाँ आकर सबकी जुबान खामोश! बहस समीर शुक्ला द्वारा प्रमोट की गयी टोपी पर लगाए गए ब्रह्म कमल, व उस पर बुने गए धागों पर आ अटकी!

आखिर समीर शुक्ला से बात हुई उनका जो तर्क था वह स्वागत योग्य है! उन्होंने तर्क दिया कि उन्हें अपनी लोक संस्कृति के लुप्त होते इस बेहद कीमती स्वरूप को पुन: वापस लाने की छटपटाहट थी! प्रयोग के तौर पर उन्होंने इसे पहले यथावत स्वरुप में उतारा लेकिन इसे युवावर्ग द्वारा ज्यादा तबज्जो न मिलने पर उन्होंने सोचा क्यों न इसे वह गढ़वाल की जगह पूरे गढ़-कुमाऊं अर्थात अस्कोट से आराकोट तक उत्तराखंड की एक नई पहचान के रूप में बाजार में उतारें! उन्हें लगा युवा बर्ग या तो नेपाल की ढाका टोपी पर खुखरी लगाकर उसे पहन रहा है या फिर हमारी इस टोपी पर कुदाल, गैंती इत्यादि का लोगो!  समीर बताते हैं कि उन्होंने सोचा क्यों न सर माथे चढ़ाए जाने वाले एक ऐसे लोक महत्व को तबज्जो दी जाय जो हर धर्म स्वीकार्य भी हो और प्रदेश का प्रतिनिधित्व भी करता हो! उन्होंने राज्य पुष्प ब्रह्म कमल को लोगों के रूप में पहाड़ी टोपी पर लगाया व चार धागों की बनावट में सर्व-धर्म की परिकल्पना कर इस टोपी का नाम उत्तराखंडी टोपी दे दिया! जिसे उन्होंने बग्वाल पर प्रमोट किया और यह न सिर्फ युवा बर्ग की बल्कि मसूरी में आने वाले देश विदेश के पर्यटकों के लिए भी फेशन का बिषय बन गया!
बस फिर क्या था यहीं से इस लेख का जन्म हुआ और मैंने अपने लोक समाज के लोक पहनावे की परतें खोदनी शुरू कर दी! रवाई घाटी से साहित्यिक विधा के पहले डॉक्टरेट डॉ.प्रहलाद, प्रेम पंचोली, लोक संस्कृति के पुरोधा डॉ. डी आर पुरोहित,रमेश पाठक, हिमालयन समीर, दिनेश कंडवाल,  गिरीश चन्द्र इष्टवाल,चन्द्र करगेती,  श्रीमती नीलम नवीन नील, श्रीमती दीपिका नेगी, नूतन पन्त तनु, श्रीमती अंजली नौटियाल, श्रीमती रेखा पंचभैय्या, श्रीमती कुसुम लता थपलियाल, श्रीमती सावित्री सकलानी उनियाल,  भगत राम गगोरिया, वेणीराम उनियाल, राहुल इष्टवाल, मधुसुदन सुन्द्रियाल, आशीष जुयाल, देवेन्द्र झिन्क्वान, इंद्र जखंडियाल, देव सिंह, सुरेन्द्र सिंह बिष्ट, मयंक घिल्डियाल, ललित इष्टवाल, राम नरेश, संदीप भट्ट, जसपाल सिंह थपलियाल, विपुल पटवाल, यश सागोई इत्यादि सहित सोशल साईट व व्यक्तिगत स्तर पर सबने अपने अपने स्तर से जानकारियाँ दी जिसमें ज्यादात्तर जानकारियाँ न के बराबर रही लेकिन कुछ व्यक्तियों द्वारा पहाड़ के लोक पहनावे महत्वपूर्ण शीश परिधान पर जो जानकारियाँ दी गयी वह यकीनन समाज के लिए ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक दस्तावेज के रूप में संग्रहणीय है!
सबसे पुरातन पहाड़ी टोपी पर हम आते हैं तो उसका नाम आज भी रवाई,जौनसार, जौनपुर यानि तमसा यमुना वैली में फेटशिखोई है! इसे गढ़वाल के अन्य क्षेत्र में टोपला/टुपल्ला नाम से जाना जाता है! इसका काल राजा भानुप्रताप के समय यानि चांदपुर गढ़ी से आंका जाता है और कुन्नौरी/कन्नौरी टोपी के प्रचलन काल से पूर्ववत इसका काल माना गया है! यानि इसे सातवीं आठवीं सदी का माना जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा! यह उस काल में हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे सैनिकों के लिए प्रचलन में लाई गयी बताई जाती है जिसके ऐतिहासिक प्रमाण भले ही न मिलते हों लेकिन यह पूर्व में मृग चरम से फिर भेड़ बकरियों के ऊन से बनाई गयी टोपी मानी गयी है!

वक्त काल के साथ साथ टोपियों के स्वरुप बदलते गए और इनमें सिर्फ उत्तराखंड में इनके नाम फेटशिखोई, शिखोई/शिखोली, कनटोपला/कनटोपी/कनुडिया/कनछुपा, फरफताई, टोपला/टुपल्ला, टोपली/टुपली, मुनौव बादणी,चुंदडी, बंदरमुख्या, चुफावाली टोपली, दुफडक्या टोपली इत्यादि  नामों से जानी गयी हैं! जिन्हें कालान्तर में अब गांधी टोपी, जवाहर टोपी, या फिर मिर्जई टोपी के नाम से भी पुकारा जाने लगा है!
आपको बता दें कि भले ही महात्मा गांधी ने गांधी टोपी कभी न पहनी हो लेकिन सफ़ेद सूत से बनी गांधी टोपी सर्वप्रथम पोरबंदर में 1892 में प्रचलन में आई! आज यह टोपी गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण महाराष्ट्र के ज्यादात्तर क्षेत्रों में व भारतीय नेताओं के सिर्फ सुशोभित होती है! यही नहीं उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलनों के दौरान भी सफेद टोपी जाट समुदाय के सिर पर दिखाई देती है! भूलवश हम इसे ही पहाड़ी टोपी भी समझ लेते हैं! आजादी के बाद इसे जवाहर टोपी तब पुकारा जाने लगा जब पंडित जवाहर लाल नेहरु देश के पहले प्रधानमंत्री बने! वहीँ मिर्जई टोपी मुख्यतः कश्मीर की पहचान रही है यह गांधी टोपी की तरह लम्बी जरुर होती है लेकिन यह मुख्यतः एक बिशेष गर्म कपडे की होती हैं जिस पर बुग्गी लगी होती है! ये तीनों टोपियाँ आजादी के बाद पहाड़ में आई और पहाड़ी कहलाने लगी भले ही पुराने लोग इन्हें गांधी टोपी, जवाहर टोपी, मिर्जई टोपी के नाम से जानते थे!

  • फेटशिखोई – इसकी श्रेणी में शिखोई/शिखोली या कैलाश भट्ट द्वारा निर्मित टोपी मिर्जई भी आ सकती है! फेटशिखोई मुख्यतः नाम से यमुना व तमसा नदी के छोर पर बसे रवाई, जौनपुर, पर्वत क्षेत्र व जौनसार बावर के लोग पहना करते हैं! इसी का स्वरूप चमोली व रुद्रप्रयाग गढ़वाल में ज्यादात्तर देखने को मिलता है! जिसे जाने कैसे मिर्जई नाम दिया गया है जबकि मुख्यतः मिरजई शीशवत्र नहीं बल्कि अंग वस्त्र के रूप में पहचान बनाए हुए है! इस टोपी को कनुडिया नाम से भी जाना जाता है व कनुडिया लम्बे काल से सम्पूर्ण उत्तराखंड में प्रचलित टोपी रही है जो सर्दियों में मुख्यतः पहनी जाती है. फेटशिखोई भी सदियों में पहनी जाने वाली भेड़ बकरियों के ऊँन से निर्मित टोपी कही जाती है. इसका अन्य रूप शिखोली कहलाता है. शिखोली कानों को नहीं ढकती!
  • कनटोपला– कनटोपला/कनटोपी/कनुडिया/कनछुपा लगभग चार या पांच नामों से जानी जाने वाली यह टोपी मुख्यतः ऊनि होती है लेकिन यह वस्त्र ऊनि कही जाती है नकि धागा ऊनि! यानि जिन ऊनि वस्त्रों से कमीजें पैंट, पैजामा कुर्ता निर्मित होता है उन्हीं से इनका भी निर्माण होता है ! यह मुख्यतः गोलाई लिए होती हैं लेकिन उनकी चुन्नट अगर खोल दी जाय तो यह कान तक ढक लेती हैं! यह मूलतः उत्तराखंड के हिमालयी भागों में निवास करने वाले लोग पह्नते हैं जिन्हें हम जनजातीय नाम से भी पुकारते है!
  • फरफताई– यह टोपला/टुपल्ला नाम से भी बिख्यात है इसका आकार भी गोलाई लिए होता है! इस टोपी का निर्माण दो दो महत्व के लिए हुआ था और इसे पहनने वाले ज्यादात्तर लोग गरीब तबके के लोग थे जो साहूकार वर्ग से अन्न उधारी के लिए इसी टोपी को भर भर कर लिया करते थे. यह पौराणिक मानी जाणी है क्योंकि इसी के सांचे डुंगुलू से बाद में पाथा व सेर की उत्पत्ति मानी गयी है! पहले यही टोपी मुख्यतः अन्न उधारी या अन्न व्यापारी के मापक हुआ करती थी!
  • टोपली/टुपली– जिसे हम गांधी टोपी के नाम से जानते है वही टोपला का दूसरा स्वरुप है! इसका उत्पत्ति काल गोरखा युद्ध के बाद का माना जाता है क्योंकि गोरखा युद्ध के दौरान ढाका टोपी गोरखा सैनिकों के सिर पर सुशोभित थी! टोपला उस से कई पौराणिक रहा लेकिन उसकी कसावट सिर पर ज्यादा सख्त होने के कारण मध्य पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने टुपली पहनना शुरू कर दिया. यह श्रीनगर क्षेत्र से सम्पूर्ण भावर क्षेत्र या चम्पावत क्षेत्र से लेकर सम्पूर्ण तराई तक गोरखा काल के बाद पहनी जाने लगी! व आम प्रचलन में सबको बेहद पसंद आई!
  • मुनौव बादणी– यह कुमांऊ क्षेत्र में चुंदडी नाम से भी प्रचलित रही! यह भी टुपली की तरह हुई लेकिन इसका वृत्त टुपली के वृत्त से एक इंच बड़ा मना गया!
  • बंदरमुख्या/चुफावाली टोपली– यह टोपी मुख्यतः ब्रिटिश काल के प्रारम्भ में आई यानि 1820-25 के दौरान अंग्रेज इसे सर्दियों में उच्च हिमालयी भू-भाग में पहनते थे. इस दौरान वे अपना हैट नहीं लगाते थे. आजादी के बाद ऊनि स्वेटरों के प्रचलन के साथ यह बुने जाने लगे व समय के साथ साथ फेशन में आते गए जाते गए!
  • दुफडक्या टुपली- इसकी चन्दोया दो फाड़ होती थी यानि गांधी टोपी के शीश वाला वह हिस्सा जो अंडाकार होता था उसे जानबूझकर दो हिस्सों में काटकर सिला जाता था ताकि यह सफ़ेद रंग की टोपी अन्य टोपियों से हटकर लगे. इसे ब्राह्मण धारण करते थे! लेकिन इसके बाड़ा पर यानि टोपी के किनारे पर अस्तर लगाया जाता था.
  • मलेशिया टुपली- यह टोपी आम गांधी टोपियों की तरह होती थी लेकिन इसके कपडे को मलेशिया कहा जाता था जो मजबूत ज्यादा हुआ करता था और इसे मजबूत काम करने वाले राजपूत वर्ग के सभी लोग धारण करते थे!
  • काली टुपली- इसे अन्य सभी वर्ग के लोग पहना करते थे लेकिन इसका प्रचलन तब आम हो गया जब आजादी के बाद शिक्षा का विकास होना शुरू हुआ और ब्रिटिश काल में राजपूत, पंडित गढ़वाल राइफल्स या कुमाऊं रेजिमेंट में भर्ती होने शुरू हुए. वहां यह टोपी बहादुर सिपाहियों व बहादुर गढ़-कुमाउनी की आन-बान शान का रूप ले पाई कि नहीं लेकिन यह इनके मुख्य आयोजनों की शान अवश्य रही! आज यही टोपी पहाड़ में सबसे ज्यादा प्रचलन में मानी जाति है!
  • जवाहर टुपली- यह पंडित जवाहर लाल नेहरु के प्रधानमन्त्री बनने के बाद प्रचलन में आई. मुख्यतः यह फर्र से निर्मित रही और मुस्लिम समुदाय इसे ज्यादा पहना करते थे. यह अचकन व लम्बे जवाहर कोट के साथ ही धारण की जाती रही है.
  • उत्तराखंडी टोपी- जनपद चमोली के गोपेश्वर हल्दापानी निवासी कैलाश भट्ट व हिमालयन समीर अर्थात मसूरी के समीर शुक्ला द्वारा डिजाईन की गयी टोपियों को ये दोनों उत्तराखंडी नाम देते हैं! जहाँ तक मेरा मानना है वह यह है कि कैलाश भट्ट द्वारा निर्मित टोपी विशुद्ध रूप से पहाड़ की प्राचीनतम टोपी है जिसे टोपला, फेटशिखोई कहा जाता रहा है वहीँ समीर शुक्ला द्वारा डिजाईन टोपी मुख्यतः टोपली है जो गोरखा काल से लेकर अब तक लगातार प्रचलन में रही है! जहाँ टोपला पर कन्नौरी (हिमाचली) टोपी की तरह सफ़ेद धागे की खूबसूरती से कैलाश भट्ट ने उसका महत्व बढाने की कोशिश की वहीँ समीर शुक्ला ने टोपली पर ब्रह्मकमल का लोगो व चार धागों की बनावट देकर उसका अलग गेटअप तैयार कर उसे मार्केट में उतारा और दोनों की ही डिमांड अच्छी है! लेकिन मिरजई नाम से इस टोपी को कैलाश भट्ट अगर पुकारते हैं तो इस पर अवश्य उनका वृहद् शोध होगा! मेरी सोच में मिरजई अंग वत्र है शीश वस्त्र नहीं! अल्पज्ञान के लिए क्षमा!

मैं कृतज्ञ हूँ कि इस बिषय पर डॉ. प्रहलाद, प्रेम पंचोली व गिरीश चन्द्र इष्टवाल सहित कई अन्य लोगों ने मेरे इस शोध में अपनी राय देकर इस अति लोक महत्व के लोक समाज में प्रचलित टोपी को सिर्फ पहाड़ी टोपी न रखकर उसके नामों की विवेचना में अपना जितना सम्भव हुआ सहयोग दिया!
मेरा यह भी मानना है कि इसे भूल वश हम अपनी लोक अमानत न मानकर इसे गांधी टोपी नाम दे देते हैं जबकि गांधी टोपी का जन्म सन 1892 के बाद माना जाता है जो कांग्रेस के जन्म से 7 साल बाद प्रचलन में आई! (कांग्रेस की स्थापना 28 दिसम्बर 1885). इस से पहले पूरे मैदानी भू-भाग में पगड़ियों का रिवाज था जो हमारे समाज में भी रहा लेकिन हमारे समाज में पगड़ियां युद्ध लड़ने के लिए या फिर कहीं विवाह कार्य सम्पन्न करने में राजशाही की परम्परा में शामिल रही!
वर्तमान में देश के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से लेकर अन्ना हजारे, अखिलेश यादव तक टोपला, टुपली पहुँच चुकी है हमें इस पर गौरव होना चाहिए क्योंकि यह पहाड़ से निकलकर देश की सीमाओं की हिफाजत कर रहे सैनिकों के सिरों का ताज है! ऐसे में हम क्यों न अपनी इस अस्मिता को पुन: अपनाकर इसका मान बढाते रहे!

6 thoughts on “बेहद पुरातन काल से प्रचलन में हैं गढ़-कुमाऊं की फेटशिखाई व टोपला टोपी!

  • December 23, 2017 at 7:00 pm
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    बहुत विस्तार से टोपियों पर सारगर्भित आलेख। इष्टवाल जी लोकसंस्कृति के संरक्षण का आपका अभियान अद्वितीय है।

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    • December 30, 2017 at 2:23 am
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      बहुत बहुत धन्यवाद सतीश लखेड़ा जी! आपके आशीष वचन यूँहीं मिलते रहें!

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  • January 16, 2020 at 6:31 am
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    टोप्ला पर बहुत विस्तृत जानकारी, कुछ अलग हटकर लेख।
    सर, यदि संभव हो तो गढवाल राजवंश के राजचिह्न और ध्वजों पर भी कोई जानकारी दे पाएं…

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  • January 16, 2020 at 6:12 pm
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    आपने बहुत मेहनत और अनुसंधान पर आधारित तथ्य लोगों के संयुक्त प्रस्तुत किए हैं। भारतीय संस्कृति के संरक्षण और प्रसार के प्रति आपके सरोकार निसंदेह सराहनीय है ंंंंंंंंंंंंंंंंं।

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    • January 17, 2020 at 1:29 am
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      बहुत बहुत धन्यवाद! आप जैसे शुद्धी पाठक हों तो मजा ही कुछ और है!

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