ब्रिटिश काल ने झेली उत्तराखंड में हैजा/प्लेग/पलेवेंटाइन जैसी कई महामारी! गंदगी रहेगी सबसे बड़ी वजह!
(मनोज इष्टवाल)
आंकड़े हमेशा सच बोलते हैं व उन्ही आंकड़ों का अगर आप सन्दर्भ लेंगे तो आँखें आश्चर्य से फटी रह जायेगी क्योंकि तब गोरखा काल के बाद गाँव तो थे लेकिन उनकी आबादी वर्तमान के पलायन से भी ज्यादा बदत्तर थी! तब गोरखा काल के आतंक से यहाँ के लोगों ने अपने गाँव छोड़े! जो ज्यादा बचे रहे उन्हें या तो चंडीघाट हरिद्वार मंडी में दास-दासियों के रूप में बेच दिया जाता था या फिर कोटद्वार-दुगड्डा रामनगर के घाट व चुंगी चौकियों पर !सबसे ज्यादा प्रभावित अगर कोई क्षेत्र रहा तो वह ब्रिटिश गढ़वाल रहा!आज यहाँ अगर बड़े इमारती मकान तिबारियाँ इत्यादि कम दिखाई देती हैं तो उसके पीछे गोरखा शासन ही था!

आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि ब्रिटिश काल में गढ़वाल मंडल की आबादी लाखों में नहीं बल्कि शुरूआती दौर में हजारों में थी! इस से अनुमान लगाया जा सकता है कि गोरखा राज से पहले अर्थात 1997 के भूकम्प व 1802 के बिनाशक भूकम्प ने यहाँ की दो तिहाई आबादी समाप्त कर दी थी! बाकी बचे लोग गोरखा अत्याचार में कभी चंडी घाट तो कभी रानिहाटों में औने पौने दामों पर बिकते रहे! ब्रिटिश लेखक पाउल व उनके मित्र डॉ. रेनरी का कहना है कि अगर दस साल भी और गोरखा शासन रहता तो ब्रिटिश गढ़वाल के ज्यादात्तर गाँवों की आबादी शमशान जैसी रहती!
हिमालयन गजेटियर गढ़वाल में वाल्टन ब्रिटिश काल में गढवाल की महामारियों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि सबसे बड़ी त्रासदी 1892 में गढ़वाल मंडल के चोपड़ा चौथान क्षेत्र में आई जहाँ मलेरिया/हैजा/कोलरा/ प्लेग/ प्लेवेनटाइन जैसी बीमारियों से 5,943 लोग मारे गये! स्टीफन की जानकारी के अनुसार 1823 में व 1854 में कुमाऊं के मैदानी क्षेत्र काशीपुर व मुरादाबाद रामपुर उत्तर प्रदेश में प्लेग नामक महामारी से सैकड़ों जाने गयी! केदारनाथ क्षेत्र में 1834-35 में ऐसी ही महामारी तब फैली जब वहां बाढ़ का कहर बरपा!
डॉ. रेनरी व स्टीफन द्वारा 1823 व 1855 में चोपड़ा चौथान व 1902 में बुरांसी चोपड़ाकोट की महामारियों का जिक्र करते हुए कहा गया है कि यहाँ यह बिमारी तेजी से इसलिए फैली क्योंकि यहाँ जनचेतना का आभाव रहा व लोग गंदगी से ज्यादा बीमार होते रहे! उन्होंने 1903 में 4019, बर्ष 1906 में 3429 व बर्ष 1908 में 1775 लोगों के उपरोक्त महामारी से मरने के आंकड़े प्रस्तुत किये हैं!
यकीनन ये आंकड़े आज के शासन सत्ता का सुख भोग रहे नेताओं व अधिकारियों को बेहद ध्यान से देखने चाहिए कि कैसे ब्रिटिश शासकों ने मात्र पांच बर्ष में ही इन बीमारियों को जड़ से खत्म कर दिया! आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि किस युद्ध स्तर पर इन बीमारियों से लड़ने में उस समय के डॉक्टर्स ने सफलता हासिल की क्योंकि यह आंकडा जहाँ 1892 में लगभग 6 हजार के आस पास था! बीसवीं सदी के प्रथम दशक में मात्र 1775 तक ही पहुंचा!
ये बीमारियाँ त्वचा का एकाएक तापमान बढ़ाती थी या फिर एकदम घटा देती थी! नाडी एकदम तेज होकर शिथिल पद जाती, क्म्पक्म्पी, मिचमिची, प्यास जीभ का सफेद व कोमल पड़ना, सभी में तेज सरदर्द, आँखें लाल मानों खून की बूंदे टपक रही हों! इत्यादि इन सभी बीमारियों के लक्षण हुआ करते थे! आजाद भारत में प्लेग या हैजा गढवाल मंडल में शायद एक बार व अकाल दो बार पड़े हैं लेकिन पूरे भारत बर्ष में यह हिमालयी क्षेत्र ही एकमात्र ऐसा था जहाँ अकाल पड़ने में भूख से मरने वालों की संख्या नगण्य हुई!