ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट -2)…!गतांक से आगे….! 

ढाकर – दुगड्डा मंडी से तिब्बत तक का तिलिस्म! खडीनों से ढोया जाता था माल (पार्ट -2)…!गतांक से आगे….! 

(मनोज इष्टवाल)
मैं भी अजब गजब का कथाकार हूँ यार! अब आप ही देखो बांघाट ढाकरी पड़ाव से आगे बढ़ ही नहीं पाया अभी तक! बस बहकता हुआ उसी रौ में उदाहरण के लिए अपने गाँव पहुँच जाता हूँ! अब वहां न जाऊं तो कहाँ जाऊं वहीँ से तो मेरे ज्ञान के भंडार में दंतकथाएं मिश्रित हुई हैं!

फिलहाल कथा वाचक जुंग्याळ ब्वाड़ा को हृदय पटल पर बसाकर वाटसन के हिमालयन गजेटियर पर लौटते हैं जिसको सुप्रसिद्ध पत्रकार प्रकाश थपलियाल ने हम जैसे कम अंग्रेजों के लिए हिंदी में लिखकर हमारी मुसीबतें कम की हैं! वाटसन हिमालयन गजेटियर में लिखते हैं कि बांघाट दुगड्डा के बाद दूसरा बड़ा व्यापरिक केंद्र उभरने लगा था जहाँ मार्केट बिलकुल नयार तट लगती थी! यहाँ से एक छकडा मार्ग बिल्खेत होकर ब्यास चट्टी निकलता था जो फिर गंगा के विपरीत दिशा में मुड़ता हुआ देवप्रयाग श्रीनगर निकलता था! इस छकडा मार्ग से मालवाहक खडींन (भेड़/बकरियां) व खच्चर घोड़े ढाकर से माल लादकर नीति-माणा दर्रे से तिब्बत में प्रवेश करते थे!
फिलहाल वापस बांघाट लौटते हैं जिसके पास बडखोलू गाँव की सरहद में पश्चिमी व पूर्वी नयार का संगम है! कभी यह संगम राठ क्षेत्र के पैठाणी नामक स्थान में माना जाता रहा है! यहाँ टिके यात्री मल मूत्र त्यागने अक्सर एक नियम के तहत दूर नयार किनारे जाते थे ताकि उसकी बदबू उनके ठिकानों तक न पहुंचे लेकिन भेड़ बकरियों व खच्चर घोड़ों के मल-मूत्र की बासी बास और हवा में तैरकर नथुनों तक पहुँचती मानव मल की दुर्गन्ध जब मिक्स होकर पहुँचती तो यकीनन जिन्दगी दुरूह कर देने वाली होती! बाद बाद में लोगों ने अंग्रेजों से मल त्यागने की कला सीखी और हगने से पहले गड्डा बनाकर उसमें मल त्यागते व बंद कर देते! यह जनचेतना धीरे धीरे नायर घाटी के गाँवों तक तो पहुंची लेकिन पहाड़ी गाँव इस चेतना से नहीं जुड़ पाए इसलिए गाँव के पास के रास्ते मानव मल से भरे रहते थे! शायद यह शिक्षा व चेतना की कमी थी! वैसे तो तब लोग इतने जातिवादी व आदर्शों वाले हुआ करते थे कि एक दूसरे के घर खाना या चावल खाने में यह समझते थे कि वह जाति में हमसे छोटा है तो यह मेरे सम्मान के विरुद्ध है लेकिन जो चेतना सबसे पहले अपने आप को साफ सुथरा रखने की होनी चाहिए थी वह अक्सर रही नहीं तब एक कहावत प्रचलित थी कि- “बामण थैंकी खैकी जडू लगद त जजमान थैंकी नयेकी!” और यह आज भी अकाट्य सत्य है कि ऐसा सदियों से होता आया है! लेकिन वक्त काल परिस्थितियों व शिक्षा ने ऐसे सब मूल्य बदलकर रख दिए हैं! अब हर वर्ग बेहद साफ़ सफाई पसंद है!
चलिए अब ढाकरियों की उस टोली का पीछा करते हुए आगे बढ़ते हैं जो हमारे गाँव तक पहुँचती थी! रामदे ब्वाडा यानि बलवंत सिंह नेगी ताऊ के साथ जब जंगल में या डांडा गाय बैल चुगाने जाया करता था तब वे अक्सर वही गीत गुनगुनाया करते थे जो बाजू बंद शैली के हुआ करते थे व ढाकरी अक्सर उन्हें राह चलते मसूर/कलौs ठूँगतेअपना दिल बहलाते दूर खेतों जंगलों में काम करती महिलाओं व नवयौवनाओं को सुनाते मजे मजे में आगे बढ़ते थे! जौनसार बावर में इस गीत कला को जंगू/भाभी कहते हैं और अक्सर यह छेड़छाड़ शादी विवाह या फिर सरहद में इस पार उस पार नवयुवक/नवयुवतियों की मीठी तकरार, प्यार और जाने क्या क्या रूप लिए मन प्रफुल्लित करता हुआ आज भी जौनसार बावर के समाज में जीवित है! और हम सब आधुनिकता के लिवास में ऐसे गीतों से महफूज हो गए हैं! जंगू और बाजूबंद का अजीबो-गरीब मिश्रण यमुना घाटी के आर-पार जब गूंजता है तब शायद न गढ़वाली समाज के युवक युवतियों के पल्ले जौनसारी भाषा पड़ती होगी और न जौनसारी युवक युवतियों के पल्ले गढ़वाली! लेकिन शब्द बिन्हास और मन से उपजे सुर उस भाषा से कई गुना आगे निकलकर अन्तस् के भाव जान लेते थे जैसे- जौनसारी जंगू- “गिरले के काछु हो, मैं लाई जंगू छोरा, तू सुनांदी बाजू हो” फिर गढ़वाली में बाजूबंद – हो हो भैs सुलपा की साज, तू सुनांदी जंगू मैणा, ज्यू भोरिकी आज”!
इन गीतों में जो प्रेम रस छलकता था वह अकूत होता था! दिल की धडकनों को छु लेने वाला! चाहे दोनों छोरों की दूरी मीलों हो और मिलन का कहीं कोई संजोग न हो! रामदे ब्वाड़ा कहते थे-ब्यटा हर काल में अमूलभूत परिवर्तन आया है पहले जो गीत ढाकरी लगाते थे यानि हमारे बाप दादा अब वो हम भी गा रहे हैं लेकिन उसका स्वरूप बदल गया! वे पैदल यात्रा की थकान दूर करने को गाते थे और हम गाय चुगाते हुए टाइम पास करने के लिए! तुम लोग तो रेडिओ पर गीत सुन लेते हो लेकिन इन गीतों का मजा कहाँ से लोगों!” उनके गीतों के कुछ मुखड़े आज भी मुझे याद हैं जैसे-
सुप्पा लाई दैण, बल सुप्पा लाई दैण!
भगतु की गीता छई तू, छुन्यूं की रामैंण!
बल तारु छुम्मा बौs……..!
बल नथुली को मूँगों, बल नथुली को मूँगों
तू कख भट्टी ऐई छवारा, खल्याणी सी ढून्गो!
बल द मिजाजी दौs…!
फिलहाल इन गीतों की रसिकता से इतना तो पता चलता ही है कि समाज में रसिकता. प्रेम प्यार की सम्भावनाओं की तलाश हर युग में रही है लेकिन तब शब्द भी अनुशासित हुआ करते थे और आपसी मान मर्यादा भी! वर्तमान मोबाइल युग ने ये सारी परिभाषाएं बदल कर रख दी हैं ! यहाँ ऐसे कई प्रकरण हैं कि अभी प्यार हुआ और कुछ घडी में ही तकरार जबकि पूर्व में प्रेम प्यार किसी साधना से कम नहीं हुआ करता था! हमारे गाँव व इलाके के लोग लंगूर गढ़ी के गढ़पति असवालों को घोड़ों के लिए या सेना के लिए बने छकडा मार्ग जिसे राजबाट कहा जाता था से लौटा करते थे जो बांघाट से बूंगा, हैडाखोली, काण्ड, डून्क-सुरालगाँव, की सरहद के नीचे -नीचे सरासु -बडियार की सरहदों को लांघता अस्वालों की सरहद नगर पार करता कुमाई-नवासी गाँव, बलद- धमेली से नैल -थरपधार की सरहद होता हुआ लैच्वड-कुंवळई से पहले केबर्ष गाँव की सरहद फिर पाली गाँव की सरहद छूता हुआ अपनी सरहद मर्वीगाड़ पहुँचता था! वहां थोड़ी देर विश्राम के बाद अक्सर ढाकरी गाँव के नजदीक गाँव से नीचे ढाकरीधार में 6 बजे के आस -पास पहुँचते थे और पहुचते ही ख़ुशी में बाजूबंद या झुमैलो गाते थे! गाँव तक आवाज क्या पहुँचती पूरा गाँव ख़ुशी से झूम पड़ता मानों आज बग्वाळ हो! जिनके घर नमक, गुड, कपडा इत्यादि नहीं होता वे समझ जाते कि अलूणा नहीं खाना पड़ेगा!
फिर क्या था ढाकरी धार में बोझा नीचे उतारने के बाद चिलम सुलगने लगती! घर में बहुएं अपने अपने पतिदेव के पाँव सेंकने के लिए गर्म पानी, सरसों का तेल रखती! जिन कपड़ों को वो राख से धोया करती थी उन्हें एक बार ध्यान से देखती कि ये अब साबुन से धोने के बाद कैसे चमकेंगे! जिन लम्बे केशों को वो भेमल की छाल से धोती उन्हें लगता अब वो साबुन का झाग देखेंगे! यह तो निहित होता था कि ढाकरी किस दिन वापस लौटेंगे इसलिए एक दिन पूर्व से उड़द की दाल भिगो दी जाती ताकि उसकी पकोडियाँ बनाई जा सकें! सब घरों में तैका चढ़ता जिसके ढाकरी गए हों या जिसके नहीं भी गए हों! यह ग्रामीण परम्परा में शामिल था! ताम्बे के लोटे में तिल-दूध जौ पानी व शहद मिलाकर हर ढाकरी के घर के बाहर रखा होता! गाँव के बच्चे युवा बुजर्ग और बाजगी लोग गाजा-बाजा के साथ ढाकरी लोगों को लेने जाते, मानों वे सब कोई लड़ाई जीतकर लौटे हों! मेरे ताऊ आदित्यराम बताते थे कि सन 1942-43 में उन्होंने अपने गाँव की अंतिम ढाकर देखी थी। चूंकि तब उनके पिता जी यानि हमारे दादा जी बलदेव प्रसाद मेरठ में पुलिस महकमे के हेड मुहर्रिर (स्टेशन हवलदार) व मेरे पिता जी के पिताजी यानि मेरे सगे दादा जी शंकरमणि राजपुर देहरादुन थाने में दरोगा हुआ करते थे इसलिए हमें ढाकर नहीं जाना पड़ता था सारी राशन खडीनों में देहरादुन से आया करती थी।
गांव के शिल्पकार सुबागी ब्वाड़ा बताया करते थे- पण्डि जी, तुम्हारे बूढ़े दादा यानी शंकर मणि व बलदेव प्रसाद के पिता पंडित बद्रीदत्त की जब बरसी (बार्षिक श्राद्ध) हुआ था तब पहली बार हमने खडीनों में सामान आते देखा था। जिसमें देहरादुन की बासमती, जौनपुरी घी, हर्षिल की राजमा और जाने क्या क्या आया था। ढाकरियों ने तो खडीनों को देखा रहा होगा लेकिन इस पट्टी का रूट खडीनों वाला नहीं था इसलिए यह बरसी बहुत चर्चा में रही क्योंकि इतनी लंबी लैन हमने उम्र भर भेड़ों की नहीं देखी थी। गांव से जाखाल तक डेढ़ मील लम्बी कतार देखते ही बनती थी। यह हो सकता है अतिशयोक्ति भी रही हो क्योंकि तब उस दौर में कंडारी पदान व इष्टवाल पंडितों यानी मेरे दादाओं के सम्बंध कोली जाति की बसागत के लिए ही खराब हुए थे जिन्हें हमारे पुर्खों ने भूमिदान दिया था और कंडारी पदान को यह बात पसन्द नहीं आई थी। तब दावा मुकदमा चलता था लेकिन दोनों पक्ष एक साथ सुनवाई के लिए बरेली जाया करते थे जहां फौजदारी व दीवानी केश सुने जाते थे। तब सभी एक ही होटल में रहते और साथ ही दोनों पक्ष वापस लौटते। सुबागी ब्वाड़ा आगे बताते कि पण्डि जी, कैसा समय रहा होगा वो, कैसे दीन ईमान के लोग रहे होंगे। तुम्हारे दादा लोगों ने वैरिस्टर मुकुन्दी लाल को वकील बनाया जिनकी फीस इतनी थी कि तुम्हे अपने थपलखेतु के खेत बेचने पड़े लेकिन जीत सत्य की हुई।
इसीलिए मुझे लगता है कि ये खडीनों वाली कहानी में कहीं झोल तो नहीं लेकिन जब कुछ साल बाद यही कहानी गोबिंद सिंह नेगी चाचा ने दोहराई तो तब लगा सच ही रहा होगा।
खडीनों की कथा ढाकर से लिंक है इसलिए गांव समाज से जोड़कर उसकी बातें और पुख्ता हो जाती हैं। सुबागी ब्वाड़ा कहते हैं कि उस जमाने में हमारे उखड़ गांव में ख्वीड व बांकुली नामक दो चावल हुआ करते थे। मोटा ला णु मोटा खाणु यही दिनचर्या होती थी। अन्न होता ही कितना था। कई परिवार गरीबी में कई कई महीनों तक भात तक खाने को तरसते थे। सच कहूं तो मुझे याद नहीं कि उस से पहले कभी बासमती की महक किसी ने सूँघि भी होगी कि नहीं। हमने तो उस दिन नाडा खोलकर खाया और पोटली बांधकर भात घर भी ले गए। इसमें लगभग पूरी अपनी पट्टी के अलावा असवालस्यु, पैंडुलस्यु व खातस्यु के ब्राह्मण लोग जीमण में आये थे। अहा इसकी चर्चा पण्डि जी उन दिनों कई दिन तक जगह जगह होती थी।
ओहो विषयगत लौटते हुए फिर मुख्य बिंदु पर आते हैं इसे बोलते हैं बेबात में बहकना। खैर गाजा-बाजा के साथ ढाकरियों का स्वागत करने सारा गांव उमड़ पड़ता था यहां से उनके बोझे परिजन उठाकर घर तक ले जाते थे और फिर उनके ऊपर घर की सबसे सयाणी महिला दाल चावल फैंककर नजर उतारती थी। वहीं तांबे के लौटे का पंचामृत छिड़ककर उन्हें पवित्र करती तब सब घर में प्रवेश करते। दूसरे दिन फिर गांव में साझा भोजन पकता और रात को खुशियों का मंडाण लगता। रात भर अदला बदली में जहां महिलाएं थडिया चौंफला नृत्य गीत सामूहिक गाती करती मर्द उनका साथ देते लेकिन पण्डो (पांडव नृत्य) सिर्फ मर्द ही करते औरतें तब तक वहीं बैठकर उन नृत्यों का आनन्द लेते व रिंगौण खेलते पुरुषों की कलाएं देखती।सचमुच कितना सुखद समाज रहा होगा वो…जहां अनेकता में एकता थी। धर्म एक था जति वर्ण अलग लेकिन सबसे रिश्ते वहीं चाचा ताऊ दादा दादी भाई बहन वाले।
तभी तो महिलाएं ढाकर से लौटे अपने पति को शंकित भाव से पूछती थी कि-
ब्याली सइयां रे कै बासा रैs तू।
और वह जवाब देता- ब्याली रऊँ मी निम्बूआ बगवाना।
इतनी भोली रही होगी वो नवयौवनाएँ जो पति पर बेहद विश्वास के साथ कह देती- तभी आंदि रे निम्बूआ का बासा।।
(नोट:- बस दो एपिसोड और झेलिये। उम्मीद है ये उन लोगों को अवश्य पसन्द आएगा जो अपनों के अतीत के सुनहरे पन्ने खंगालने को आतुर होंगे। इसी लिए मैं ढाकर के साथ अपने लोक समाज लोक संस्कृति के ताने बाने बुनकर आपके समक्ष रखने की कोशिश कर रहा हूँ अगले एडिशन में भोटन्त वे उससे अगले में हूणियों जिक्र पढियेगा)

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