80 बर्ष की आयु में ढाकरी माडू थैरवाल के नमक के भारे के साथ आये थे खैरालिंग।
(मनोज इष्टवाल)
पौड़ी जिला मुख्यालय से लगभग 37 किमी. दूरी पर विकास खंड कल्जीखाल के मुंडनेश्वर में लगने वाला पौराणिक खैरालिंग का मेला हर बरस जुटता है। असवाल जाति के थोकदारों की थाती व पबसोला गाँव की माटी पर जुटने वाले इस मेले में पूर्व में हजारों हजार स्थानीय जनमानस जुटता था लेकिन विगत कुछ सालों से इसमें लगातार गिरावट आ रही है।यहाँ हजारों की संख्या में लोग शिब लिंग में अपनी भेंट देकर माँ काली से आशीर्वाद मांगते थे। पूर्व में यहाँ बलि प्रथा थी जिसमें भैंसे व बकरे काटे जाते थे लेकिन अब यह लगभग समाप्त हो गई है।
जनश्रुतियों लोकगीतों व वेदपुराणों में खैरालिंग का वृहद् बर्णन मिल जाता है. किंवदंतियों के आधार पर जो इसके महातम से जुडी कथा है वह यह है कि आज से लगभग 300 बर्ष पूर्व जब गढवाल में कहीं सडकें नहीं पहुंची थी तब साल भर के लिए नमक तेल लेने लोग सिद्धवली कोटद्वार के पास ढाकर लेने जाया करते थे ताकि साल छ माह के लिए गुड नमक और तेल लाया जा सके. असवालस्यूं थैर गॉव का 80 बर्षीय बुजुर्ग माडू थैरवाल भी जिद करके ढाकर लेने पहुंचा. वहां से नमक तेल गुड का बोझा लेकर ढाकरियों की टोली दुगडडा, गुमखाल होती हुई बांघाट से जब सकनौली गॉव की धार के पास रुकी तब माडू थैरवाल को शौच जाने की शिकायत सी हुई. नमक का बोझा वहीँ छोडकर माडू थैरवाल शौच गए लेकिन कहीं उन्हें पानी नहीं मिला मजबूरी में बोझ वैसे ही उठाकर घर चलने को तैयार हो गए, उन्होंने बोझा उठाने की बहुत कोशिश की लेकिन बोझा हिला तक न सके. साथियों ने भी काफी मेहनत की लेकिन बोझे ने हिलने का नाम नहीं लिया. आखिर बोझा खोला गया और उसमें लिंग रुपी एक पत्थर निकला उसे बाहर निकालते ही बोझा हल्का हुआ और माडू थैरवाल घर को चल दिए. कहा तो यह जाता है कि रात को थैरवालों की देवी काली ने आकाशवाणी की कि वो पत्थर नहीं साक्षात शिब हैं अत: उस स्थान पर ही उन्हें स्थापित करो.
कुछ ये भी कहते हैं कि रात काली माँ माडू थैरवाल के सपने में आई और उन्होंने दूसरी सुबह पंचायत बुलाकर सारी जानकारी दी तब सभी बंधू-बांधव दूसरी सुबह उस स्थान में पहुंचे जहाँ वह लिंग (लोडी) फैंकी गई थी. सकनौली गॉव के पंडितों से उस जगह मंदिर स्थापित करने की इजाजत लेने के बाद उन्हें ही वहां का पुजारी बनाया गया. कहा जाता है कि नगर मिर्चोडा गॉव के असवाल थोकदार को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने नाराजगी जताई कि थोकदार होने के बाद भी उन्हें इस बात की जानकारी नहीं दी गई. तत्कालीन समय में अपने कुल पुरोहित नैनवाल व चमोली वंशजों से सलाह मशविरा करने के पश्चात यह तय हुआ कि देवता के लिए शास्त्र सम्मत कोई ऐसा स्थान ढूंढा जाय जहाँ वे स्वेच्छा से रह सकें. उसी रात्रि असवाल थोकदार भंधौ असवाल के सपने में काली आई और उन्होंने उन्हें सचेत किया कि शिबलिंग अपनी थाती-माटी में ऐसी जगह लाकर स्थापित करो जहाँ से सम्पूर्ण क्षेत्र जहाँ जहाँ भी मेरी नजर जायेगी तुम्हारी विजय पताका वहां तक पहुंचेगी. हुआ यही आखिर शास्त्र सम्मत बातों को देखते हुए जहाँ वर्तमान में मंदिर है वहां देवस्थापना की गई जोकि पुराने मंदिर से लगभग डेढ किमी. दूरी पर है. जनश्रुतियों व लोकगीतों में जो कहानी सामने आती है उससे पता चलता है कि असवाल जाति ने तत्पश्चात अपना साम्राज्य विस्तार नगर से लेकर कोटद्वार नजीबाबाद के स्यालबूंगा किले तक किया और राज्य विस्तार के बाद भान्धौ असवाल ने महाबगढ व लंगूर गढ का भी अधिपत्य ले लिया जिसे कालांतर में गोरखा जाति ने सन 1804 में हस्तगत किया. तब से काली माँ असवाल जाति की कुल देवी बनी और हर बर्ष मुंडनेश्वर स्थान में खैरालिंग का मेला लगता है.
विगत 25-26 बर्ष पूर्व आपसी अहम के टकराव में नैल गॉव पंडितों व मिर्चोडा गॉव के असवाल ठाकुरों में बेवजह के विवाद से कई साल केश चला तब से लेकर निरंतर कुछ न कुछ ऐसा होता ही रहा कि मेले का स्वरुप बदलने लगा और धीरे धीरे चौन्दकोट, तल्ला मनियारस्यूं, खातस्यूं,नादलस्यूं, सितोंनस्यूं, गगवाडस्यूं इत्यादि से आने वाली हजारों की संख्या में श्रधालुओं की भीड में निरंतर कटौती होती गई, बिजाल संस्था के प्रयास से यहाँ बलि प्रथा बंद करने के तत्कालीन पशुपालन बोर्ड की उपाध्यक्ष सरिता नेगी द्वारा प्रयास किये भी गए तब भी आपसी टकराव से इस मेले में सिर्फ खलल ही नहीं पडा बल्कि दर्जनों लोगों पर मुकदमें दर्ज हुआ जिसका हश्र यह हुआ कि मेले में जाने की प्रबल इच्छा होने के बाद भी लोग यह सोचकर साहस नहीं जुटा पाते कि हो न हो कहीं फिर कोई अनर्थ हो. फलस्वरूप इसका स्वरुप दिनोदिन घटता जा रहा है जो चिंता का बिषय है।