अरसे का पीठू कुटते वक्त क्यों रखी जाती है परात के ऊपर कंडाली (बिच्छू घास) ।।
अरसे का पीठू कुटते वक्त क्यों रखी जाती है परात के ऊपर कंडाली (बिच्छू घास) ।।
*लगभग 1000 बर्ष पुरातन है अरसों का प्रचलन काल।
(मनोज इष्टवाल)
अरसे तो आप सब ने जमकर खाये होंगे गर्मागरम लाजवाब या फिर क़ुर्बुरे बेमिशाल। या फिर बासी थोड़ा सख्त भरपूर मिठास वाले। लेकिन इन्हें बनाने से लेकर खाने तक कई ऐसे शब्द संरचना गढवाळी में उभर कर आते हैं जैसे उर्खयली, गंजयाली, छळणी, हर्पणा, पीठू, तैकू, लाम्प, पाग, दबळआ, करास, समौण इत्यादि कई ऐसे शब्द हैं।
सच पूछिए तो आधे से ज्यादा वर्तमान के युवा इन शब्दों का अर्थ भी नहीं जानते होंगे लेकिन सभी इस गढवाळी मिष्ठान का स्वाद बखूबी जानते हैं। और अगर प्रदेश में यह समौण मिल जाय तो उसके मायने ही बदल जाते हैं। अब तो देहरादून की कई मिष्ठान शॉप में ये मिठाइयों की तरह सजे मिलते हैं ठीक उसी तरह इनका भी क्रेज है जिस तरह अब अल्मोड़ा की सिंगौरी मिठाई का है। कभी टिहरी श्रीनगर में सिंगौरी पहाड़ी मिठाई के रूप में बेहद प्रचलित थी लेकिन भौतिकवाद के पनपने व टिहरी की जल समाधि लेने के बाद सिंगौरी ने अपना बर्चस्व खो दिया। ऐसे में यह लगता है कि उसके बनाने वाले मर खप्प गए हैं या फिर उसकी लोक सभ्यता उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मिट गई है जबकि सच्चे मायने में इसे राज्य मिठाई के दर्जे में अरसे या सिंगौरी की आपसी प्रतिस्पर्दा माना जाना चाहिए था। उधर कुमाऊ में सिंगौरी का प्रचलन आपको कई छोटे बड़े शहरों में मिल जाएगा जबकि गढ़वाल में इसका बर्चस्व ही समाप्त हो गया है।
अरसा या अरसे या फिर अरसालु का चलन उत्तराखण्ड में दक्षिण भारत से आया मानते हैं। कहते हैं शंकराचार्य द्वारा बद्री केदारनाथ मंदिर निर्माण के बाद दक्षिण भारत के हिन्दू धर्म अनुयायियों की आमद बढ़नी शुरू हो गयी। और 7-8 वीं सदी के शुरुआती दौर तक यहां आकर कई दक्षिण भारतीय आ बसे। उस काल में ये लोग लम्बी पैदल यात्राओं में अपने साथ खान पान में ऐसे मिष्ठान शामिल करते थे जो महीनों तक खराब न हों इसलिये अरसा इनके लिए बेहद सुगम खाद्य पदार्थ था। गुड़ से निर्मित अरसों में ये लोग सौंप व ड्राई फ्रूट्स का इस्तेमाल करते थे। अतः यह परंपता उत्तराखण्ड में लगभग 1000 बर्ष पुरानी मानी जा सकती है। यानी राजा भानु प्रताप के काल से यहां अरसों का चलन रहा है। वर्तमान में दक्षिण भारत के तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल इत्यादि में ये बनाये जाते हैं। कर्नाटक में अरसालु या अरसे का निर्माण गुड़ व खजूर निर्मित होता है।
(लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी अपनी अर्धांगिनी श्रीमती ऊषा नेगी के साथ)
सिर्फ अरसे एकाएक कंपीटिशन में आये और अब मिष्ठान भंडारों में सजने लगे हैं। इसे मार्केट देने का श्रेय सर्वप्रथम दो महिलाओं को जाता है जिनमें गढ़ कल्यो के नाम से विख्यात श्रीमती ऊषा नेगी हैं व दूसरी उत्तराखण्ड रसोई के नाम से श्रीमती विजयलक्ष्मी गुसाईं हैं। दोनों ने राज्य निर्माण के बाद जहां जहां भी अपने खान पान के स्टाल लगाए उसमें गढवाळी समाज में व्याप्त उडद की दाल के पकोड़े व अरसे जरूर शामिल हुए।
(श्रीमती विजयलक्ष्मी गुसाईं)
फिर श्रेय जाता है पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को जिन्होंने उत्तराखण्डी खान-पान को प्रमोट करने का जिम्मा उठाया व इन्हें मार्केट तक लाये। उसके बाद “तेरा गांव” सहसधारा रोड पर सिडनी ऑस्ट्रेलिया में होटल व्यवसायी लखेड़ा जी व राजपुर रोड स्थित गढ़भोज के मालिक ने अपने खान पान में अरसों का चलन शुरू किया। आज यह देहरादून के कई मिष्ठान भंडारों में शोभा बढ़ा रहे हैं व यहां का व्यवस्थित समाज अपनी शादी ब्याह पार्टियों में इन होटलों में इसका आर्डर भी कर रहे हैं।
मॉडल आवास उत्तराखण्ड
अब आते हैं इसकी बनाने की विधि पर। श्रीमती दिनेश्वरी देवी नैनवाल बताती हैं कि एक पाथा चावल में एक शेर पानी व एक भेली। एक पाथा मापक लगभग दो किलो चावल माना जाता है जिन्हें रात भर तांबे की तौलि, पीतल की तौली और अब अब सिल्वर की पतीली में भिगो कर रखा जाता है। सुबह एक तौली को चूल्हे के ऊपर रखकर उसमें एक शेर पानी में एक भेली यानी लगभग 2 किलो गुड़ डाला जाता है जिसे खूब खौला खौला कर पकाया जाता है।उधर हल्के गर्म पानी के साथ पिछली रात भिगोने रखे चावल अब तक फूलकर मोटे हो जाते हैं। वहीं बड़े से चूल्हे में तैका लगाया जाता है। तैका यानि एक कढ़ाई में तेल गरम करने के लिए रखा जाता है और जब तेल गरम होकर खुशबू देने लगता है तो उसे तैका चढ़ाना कहते हैं।
फिर पीतल या तांबे के तौली (बड़ी पतीली) जिसमें चावल रहते है को पीतल की परात से ढककर उर्खयली (धान चावल कूटने का स्थान) में लाया जाता है जहां उसके साथ एक दरांती भी होती है जिस से कंडाली काटकर लाई जाती है व वह परात के ऊपर रखी जाती है।
उड़द की दाल पीसती ग्रामीण महिलाएं।
फिर परात को एक तरफ से उठाकर चावल उर्खयली (ओखली) में डिब्बे से या कटोरे से डाले जाते हैं और उन्हें गंजयाली (मूसल) से बारीक कूटा जाता है। यह चावल इतना बारीक कूटा जाता है जितना कि आटा। फिर इसे छलनी से छानकर इसके मोटापे के अनुपात को कम करते हैं फिर भी यह चावल आटे से महीन नहीं होता।
यह सब तो ठीक हुआ लेकिन इस सब में कंडाली यानि बिच्छू घास का क्या रोल। यकीन मानिए आप में से ज्यादात्तर लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया होगा लेकिन यह भी हमारी लोक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। आप कहेंगे कैसे ? तो लीजिये आपको बता दें कि कंडाली क्यों पहले भीगे चावलों के ऊपर और बाद में कूटे चावलों के ऊपर पहुंचती है।
बहुत शोध व जानकारी लेने के बाद भी निष्कर्ष नहीं निकल रहा था। अचानक घर में ही जब प्रश्न का सटीक उत्तर मिला तो मन प्रसन्न हो गया। नूतन तनु व उनकी माँ श्रीमती बिंदी देवी पन्त एक साथ बोल पड़ी कि हर्पणा की वजह से कंडाली रखी जाती है। जबकि अब तक एक ही उत्तर मिलता था दाग न लगे इसलिए जो सटीक प्रतीत नहीं होता है ।
(अरसे)
अब आप पूछेंगे ये हर्पणा क्या बला है! हर्पणा वह ऊपरी हवा हुई जो दूषित वातावरण को साथ लेकर चलती है व चमकती चीजों पर आकर्षित होती रही है। चावल स्वेत है और उसके पकवान बनने की खुशबू उन दूषित हवाओं तक भी जा पहुंचती है ऐसे में लोगों का मानना हैं कि कहीं अरसों को खाने से बच्चे बीमार न हों या फिर किसी को नजर न लगे इसलिए कंडाली रखी जाती है।
कण्डाली हरियाली का प्रतीक है लेकिन उसके काँटो में इतनी तेज चुभन होती है कि मानो विद्युत करंट हो इसलिये दूषित आत्माएं उसे छूने से डरती हैं और यह आज भी पहाड़ी समाज में ब्याप्त है कि किसी बच्चे को अगर हर्पणा लग गयी हो तो उस पर कंडाली लगाकर ही उसे भगाया जाता है। इसे आप टोटका कहें या फिर बेवजह की दकियानूसी लेकिन यह मैंने स्वयं कई बार पाक/पाग बनाते देखा है। पाग या पाक शब्द भले ही छोटा है लेकिन उसकी व्याख्या बड़ी लम्बी है। पाग गुड़ को पिघलाकर बनाया जाता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये सब तो ठीक है लेकिन पाग है क्या बला! इसको बनाने के लिए कान्स की थाली में पानी के साथ उसकी लाम्प बनाई जाती है। अभी पाग और फिर लाम्प। गढवाळी के कुछ शब्द ऐसे हैं जिनको अन्य शब्दों में परिभाषित करना टफ है। यहां पाग और लाम्प दोनों जुड़वा भाई जैसे हैं। या फिर उन्हें दूल्हा दुल्हन मान लीजिये। एक दूसरे के पूरक ।
कांस की थाली में ठंडा पानी डाला जाता है और खोलते गुड़ के घोल की थोड़ी सी राब उसमें डाल दी जाती है। जिसे फिर उंगली से छूकर देखा जाता है। अगर वह गुड़ अंगुली के साथ एक लार सी बनकर लेयर के रूप में आती है तब समझो पाग या पाक अच्छा लगा है और उस से बनने वाले अरसे उन्नत किस्म के होंगे उनमें बीच में चावल का ढेला सा नहीं मिलेगा बल्कि वह बेहद महीनता के साथ आपके मुंह का स्वाद बढ़ाएंगे।
अब उस खोलते गुड़ में यथोचित्त कूटा गया पीठु (चावल का आटा) मिलाकर उसे दबळआ (मजबूत लकड़ी के एक डंडे से) खरोळआ (घुमाया) जाता है और वह तब तक लागतार घुमाया जाता है जब तक उसमें डिंडे (गोलियां) खत्म न हो जाएं। फिर तेल के हाथों से उसे यथोचित्त गोलाई देकर तेल की खोलती कड़ाई में डाला जाता है जो उसमें पककर अरसे के रूप में बाहर आता है।
अगर आपने अरसे का स्वाद लेना है तो उसे भी गरम-गरम जलेबी की तरह खाएं। लेकिन एक आध ही खाएं ज्यादा ख़ाकर पेट में करास लगने के चांस ज्यादा होते हैं । करास यानी आंव वाली डीसेंट्री। इसलिए इस पकवान को ठंडा होकर लगभग एक माह तक आप बड़े आराम से खाते रहिये बशर्ते इसपर हर्पणा न लगी हो या इसका पाग ठीक न बना हो।
हर्पणा वाले अरसे अक्सर भरभराकर पकते ही टूटने लगते हैं जिसे लोग यह कहते सुनाई देते हैं कि पाग सही नहीं लगा।