राष्ट्रीय पर्व घोषित हो फूलदेई! ग्वाल-बाल ने सिखाई फूलों की महत्तता।

राष्ट्रीय पर्व घोषित हो फूलदेई! ग्वाल-बाल ने सिखाई फूलों की महत्तता।

  (मनोज इष्टवाल)
जब हम आदमयुग के शून्य काल से गुजरकर अविष्कारिक काल में प्रवेश कर रहे थे और स्वाद ब्यजनों की प्रयोग धर्मिता को मनुष्य जीवन में अपना रहे थे तब पुष्प ही एकमात्र ऐसा प्रकृति प्रदत्त पादप था जिसका इस्तेमाल कहाँ हो कैसे हो यह बिडम्बना बनी रहती थी।

कहा जाता है कि त्रेता युग में द्रोणागिरी पर्वत पर खिलने वाली जिस दिव्य औषधि की बात सुशेनवैद ने बताई थी और जिस से लक्षमण के प्राण बचाए गए वह भी एक पुष्प ही था। क्या इस से पूर्व पुष्प की महत्तता का किसी को अनुमान नहीं था? यह यक्ष प्रश्न वैज्ञानिकों शास्त्रविदों और अविष्कारकों के लिए दुनिया भर में चुनौती बना रहा। आज वर्तमान में पुष्पों से कई किस्म की औषधि,इत्र और जाने क्या क्या बन रहा है लेकिन इसका महत्व सर्व प्रथम किसने जाना यह सबसे दिलचस्प है।

हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सीता की पुष्प वाटिका में फूलों के प्रयोग को दर्शाया गया है. कृष्ण राधा के प्रसंगों में भी उसकी महत्तता है, लेकिन पूरी प्रकृति में ऐसा कौन सा पुष्प रहा जिसने अलंकरण की जगह अपनी महत्तत़ा बढाई है।

कविलाश अर्थात शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्तता का वर्णन सुनने को मिलता है। पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी. माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये।

आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया. फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए। सबने अनुशरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फुलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे-

फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज !
शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं।

सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए। पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया. यही कारण भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलायें आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं। जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया फिर क्यों हम फुलदेई नामक इस पर्व यानि चैत्र माह की संक्राति को बाल पर्व के रूप में नहीं अपनाते. क्यों नहीं बाल पर्व पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा करवाते ताकि पूरा संसार जाने कि फुलदेई के इस पर्व की महत्तता क्या है।

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