नरु-बिजुला की प्रेम गाथा…! डख्याटों की नहीं सिंगोटयूँ की बांद से था प्रेम-प्रसंग!
नरु-बिजुला की प्रेम गाथा…! डख्याटों की नहीं सिंगोटयूँ की बांद से था प्रेम-प्रसंग!
(विजयपाल सिंह रावत)
ज्ञानसू लगी घुंडयूं बांधी रासौ नरु-बिजुला,
“हम त लाणी सिंगोटीयों की बांद नरु-बिजुला!!
“ज्ञानसू लगी घुंडयूं बांधी रासौ नर-बिजुला” “हम त लाणी सिंगोटीयों की बांद नर-बिजुला” किस्सों और कहानियों के बीच हिमालय की लोकगाथा का इतिहास लिपिबद्ध ना होने के कारण अनेक भ्रामक जानकारियों से भरा पड़ा है। ये लोकगाथायें इतिहास के पारंपरिक श्रोत लोकगीत के माध्यमों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते आये है। जिसमें समय-समय पर समाज अपनी सहूलियत के हिसाब से रोचकता का तड़का लगाने के लिये इसे मनगढ़ंत तरीके से भी परिवर्तित करता रहा है। इसकी सही ऐतिहासिक विवेचना कर इस सत्य के निकट प्रस्तुत करना नये लिखवारों की जिम्मेदारी है।
ऐसी ही एक प्रेम गाथा बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) के गढ़पति दो भाई नर-बिजुला के सामूहिक प्रेम विवाह के लिये प्रचलित है। जिसमें नारी सम्मान का एक पूरा युद्ध लड़ा गया था। बात लगभग 14 या 15वीं शताब्दी की है। आज का उत्तरकाशी तब बाड़ाहाट नाम का प्राचीन कस्बा था। इसके पास बसे तिलोथ गांव के थोकदार दो भाई नर-बिजुला थे। जो अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास पर अपने मामाकोट (ननिहाल) सुदूर रंवाई के डख्याट गांव में गये थे। उस दौर में आखेट और मेले ही मनोरंजन के मुख्य साधन हुआ करते थे। मामाकोट के रिश्तेदारों की सलाह पर नर-बिजुला को खरसाली गांव में अषाढ़ के महीने में आयोजित होने वाले पशुपालक समाज के अधिष्ठाता सोमेश्वर देवता के मेले में जाने का अवसर मिला। बेहद खूबसूरत प्राकृतिक छटाओं में बसे खरसाली गांव में नर-बिजुला उत्सव एवं उल्लास में खो गये। जहां खरसाली गांव की एक खूबसूरत युवती से उनकी आँखें लड़ गयी। जो उस गांव के “सिंगोटी” जाति के परिवार की थी जो आज तोमर जाति के रूप में वहां विद्यमान है। दोनों ही भाईयों ने उस युवती के साथ सामूहिक विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे उस लड़की ने भी स्वीकार किया, (तब ऐसे सामूहिक विवाहों का प्रचलन आम बात होती थी) किंतु उस लड़की ने नर-बिजुला को बताया की उसके परिवार वाले उसके विवाह का वचन किसी और को पहले ही दे चुके थे जिस कारण सीधे तरीके से विवाह संभव नहीं था। इसलिए दोनों भाइयों ने उस लड़की को मेले से ही भगा ले जाने का निर्णय लिया।
नर-बिजुला दोनों उस लड़की लेकर भाग निकले। लेकिन अभी वो ज्यादा दूर नहीं निकले थे की गांव वालों को इसकी भनक लगी और उन्होंने उन्हें कुथनौर के पास पकड़ कर बंदी बनाकर वापस खरसाली ले आये। नर-बिजुला को खरसाली गांव में (आज भी मौजूद) एक पांच मंजिला भवन में सबसे ऊपर की मंजिल पर बने कमरे में कैद कर दिया गया। जब आधी रात की गहरी नींद में पूरा गांव सोया हुआ था तब उस लड़की ने पशुओं के लिये चारा-पत्ती के रूप में लाया गया बांझ-बुंराश के पत्तों का ढेर उस पांच मंजिला भवन के निचे इकट्ठा कर दिया। जिस पर सकुशल कूद कर नर-बिजुला उस लड़की को लेकर आधी रात को ही रंवाई की सीमा से निकल कर अपने गांव बाड़ाहाट वापस लौट आये। अगली सुबह जब रात को घटी घटना का एहसास खरसाली गांव के ग्रामीणों को हुआ तो उन्होंने समस्त रंवाई के आसपास के सगे-संबंधियों के गांवों को बाड़ाहाट पर युद्ध का धाड़ा मारने का आव्हान किया। गीठ पट्टी के 12 गांवों के साथ सहयोगी गांवों की एक फौज बना कर गंगनानी से राड़ी डांडा होते हुऐ नाकुरी के रास्ते वे गंगाघाटी के इलाके में पंहुंचे। जहां गंगा नदी के तट पर थोड़ी देर आराम कर रंवाई की लोगों ने एक विशालकाय पत्थर पर अपने डांगरे एवं धारदार हथियारों को धार दी। जिसके प्रमाण आज भी वहां देखे जा सकते हैं।
(नरु बिजुला का 600 साल पुराना आवास)
यहाँ से ढ़ोल-दमाऊ और रणसिंघों के युद्ध उदघोष में हाथों में डांगरे लहराते हुऐ घुंडयूं बांधी रासौं (मृत्यु तांडव) करते हुऐ रंवाई के योद्धाओं का हुजूम बाड़ाहाट के निकट ज्ञानसू पंहुचा। जहां नर-बिजुला के नेतृत्व में उसकी सेना ने रंवाई से धाड़े (युद्ध,हमला) में आये योद्धाओं के साथ भीषण युद्ध लड़ा। जिसमें युद्ध रंवाई के लोगों के पक्ष में जाता देख नर बिजुला ने अपनी मां और रंवाई से भगा कर लायी पत्नी के साथ बाड़ाहाट में गंगा नदी पार से पुल काट मानपुर होते हुऐ धनारी की तरफ निकल गये। अषाढ़ माह की ऊफनती गंगा नदी को पूरी सेना सहित पार करना रंवाई वालों के लिये संभव ना था। इसलिए नर-बिजुला के अपमान तथा अपनी युद्ध विजयी की निशानी स्वरूप उनके घर की पटाल उठाकर और उसके कोठार(अन्न भंडार) पर बंधी टनों वजन वाली शंगल तथा नर बिजुला के घर में रखे तांबे के दो बड़े बर्तन उठा कर वापस खरसाली गांव ले गये। जिसे देखने के लिये आज भी देश विदेश के पर्यटकों का जमावड़ा खरसाली गांव में लगा रहता है। उस जमाने में किसी के घर की पटाल उठाकर लाना गृह स्वामी का सबसे बड़ा अपमान होता था। ये युद्ध रंवाई के लोगों ने अपनी बेटी को भगा ले जाने के विरूद्ध नारी सम्मान के लिये लड़ा तो नर बिजुला ने भी पत्नी के रूप स्वीकार की गयी उस नारी को किसी भी रूप में वापस ना लौटाने के लिये अंतिम छण तक नारी सम्मान के लिये ही लड़ा। इसमें कौन जीता कौन हारा ये विवेचना का विषय है। जिसे लोक गाथाओं में हम सुनते आये हैं। आज भी नर -बिजुला का यह पौराणिक घर और इससे लगभग 100 किलोमीटर दूर खरसाली गांव में इस घर से लायी गयी निशानीयों को उन दोनों अधिपति की पौराणिक प्रेमगाथा और रंवांल्टाओं के साथ हुऐ युद्ध की शौर्यगाथा से संजोये हुऐ है।
तिलोथ उत्तरकाशी का बिहंगम दृश्य
इस प्रसंग पर वरिष्ठ पत्रकार व तमसा यमुना घाटी की लोक संस्कृति, लोक समाज व इतिहास पर लगातार शोध करते आ रहे मनोज इष्टवाल ने बातचीत में कहा कि यह कहानी यकीनन बहुत उलझी हुई है क्योंकि उन्होंने भी इस पर बर्ष 2008 में शोधपूर्ण आलेख लिखते हुए लिखा था कि यह नरु-बिजुला की प्रेमिका उन्हीं के मामाकोट डख्याट गाँव की है! उनका कहना है तब भी कई लोगों ने इस पर राय जाहिर करते हुए कहा था कि डख्याट गाँव के इसे सिरे से नकारते हैं! उनका कहना है कि नरु –बिजुला पर उन्होंने पुन: शोध प्रारम्भ किया जिसमें यह पाया गया कि वह खरसाली गाँव के तोमर वंशजों की बेटी थी व आज भी खरसाली में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं!
मनोज इष्टवाल ने नरु-बिजुला को वीर भड की संज्ञा देते हुए कहा कि उनके अधीन कभी ऐरासु गढ़ हुआ करता था और उन्हें नरदेव विजयदेव के नाम से जाना जाता था! ऐतिहासिक अपभ्रंशता के फलस्वरूप कोई बादाहाट के मेले में इनकी आपसी मुलाक़ात का बखान करता है तो कोई खरसाली गाँव के मेले का जिक्र! उनका कहना है कि जिस गीतकार को जब जहाँ सहूलियत हुई उसने वह गा दिया किसी ने उन्हें डख्याटों की बांद कह दिया तो किसी ने उन्हें सिंगोरियुं की बांद कह दिया! बेड़ा गीत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि बादी समाज ने इसे बाराहाट के मेले में दर्शाया तो कई ने इसे डख्याट गाँव दिखाया!
उनका कहना है कि किसी ने लिखा है :-
ज्ञानसू लागो घुन्डिया बाँधी रासो नरु-बिजुला,
बाराहाटा का थौळ, रासो नरु-बिजुला!
तख ऐग्ये सौंजड्यों की बांद नरु- बिजुला,
त्वेन त लाण बड़ा नाथुला वाली बांद नरु-बिजुला!
तो किसी ने इसे और अधिक बढा कर लिख दिया कि
“हमना लाणी जौनसारिया बांद नरु बिजोला!”
तोड़ी तौंन तिलोथा कु पुल नरु बिजोला,
तोड़ी तौंन सांगूल्या कोठार नरु बिजोला!
वहीँ कोई इसे और अलग अंदाज में लिखते हुए कहता है कि :-
रौला तोड़ी बोला हे रासो नरु बिजुला,
द्वी भाई की जोड़ी रासो रासो नरु-बिजुला!
हाथ ढांगुरी लेई तौंन भाई नरु बिजुला,
तौंन त लाण सुन्गोरिया बांद नरु-बिजोला!!
यहीं बात खतम हो जाती तब भी सही था लेकिन एक जगह वर्णन में इस रूपसी के डोला लूटने की बात भी होती है!
सेरा लाई बोला बल नर-बिजुला,
लूटी तौंन तिलोथा कु डोला नर-बिजुला!
वहीँ बेड़ा गायन व नृत्य में वे इसे सुंगाड्यों की बांद कहते हैं! मनोज इष्टवाल का कहना है कि इतिहास के गर्त में क्या है यह तो ऐतिहासिक तथ्य ही जाने लेकिन हर बात हर गीत सिंगोटयूँ की बांद कहता सुनाई देता है! भले ही वह अपभ्रंश शैली में कहीं सिंगोरियों की बांद, कहीं सुन्गोरियों की बांद या फिर सुंगाड्यों की बाँद वक्त काल परिस्थिति के अनुसार आया हो! उनका मानना है कि सिंगोटयूँ का एक तोक आज भी खरसाली में है जिन्हें तोमर जाति से जाना जाता है व आज भी नरु-बिजुला के घर की फटालें, संगल इत्यादि खरसाली में हैं!
वे ये भी कहते हैं कि इस प्रेम प्रसंग के चलते यमुना व गंगा घाटी में बर्षों तक अनबन रही और एक दूसरे के यहाँ उसके बाद कई बर्षों तक शादी ब्याह जैसे रिश्ते समाप्त हो गये थे! यहाँ तक कि डख्याट गाँव के उनके मामाकोटि भी इसके बाद तिलोथ या ऐरासु गढ़ नहीं जा पाए! यह भी बताया जाता है कि इस युद्ध के बाद नरु-बिजुला के वंशजों ने तिलोथ से 3 किमी. ऊपर सल्याण गाँव बसा लिया था और उसके बाद वे वहीँ रहने लगे!
मनोज इष्टवाल का मानना है कि धाड देना तब से लेकर अब तक उस परम्परा का हिस्सा रहा है और ऐसे किस्से होते रहे हैं लेकिन यह इतनी बड़ी दुश्मनी में बदल जाएगा कि गीठ पट्टी ही नहीं बल्कि रवाई वाले इसे अपनी नाक का सवाल बना दें यह आश्चर्यजनक है! उनका मानना है कि यह कोठार में छुपाकर लाने वाला प्रसंग तो नहीं लगता हो न हो यह डोला लूटने जैसी घटना रही हो या फिर सिंगोटिया बांद की मंगनी किसी रसूकदार से हुई हो! शायद यह इसी लिए पूरे क्षेत्र की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया हो और यह भी कि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नरु-बिदुला और सिंगोट्यू की बांद का पहला मिलन द्वाराहाट के ही मेले में हुआ हो और वही मिलन की तडफ उन्हें डख्याट गाँव या खरसाली के सोमेश्वर मेले में ले आई हो! उनका मानना है कि आज भी इस छोटे से दिखने वाले बिषय पर वृहद शोध की आवश्यकता है लेकिन वे यह भी कहते हैं कि यह डख्याट गाँव के जयाड़ा थोकदारों की बेटी कदापि नहीं हो सकती!
ऐतिहासिक जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद के पात्र हैं आप
धन्यवाद जी..