4 नवंबर 1887 को कालौ डांडा (लैंसीड़ाउन) में रखी गयी गढ़वाल राइफल्स की नींव!
4 नवंबर 1887 को कालौ डांडा (लैंसीड़ाउन) में रखी गयी गढ़वाल राइफल्स की नींव!
- लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी की सिफारिश पर 1889 में उत्तराखंड की प्रथम बटालियन की स्थापना.
- 1890 में कालौंडांडा का नाम लैंसीडाउन रखा गया.
मनोज इष्टवाल
एक ऐसा बहादुर योद्धा जो लाशों के बीच सात दिन सात रात बिना खाए पिए लाश बनकर लेटा रहा हो. जिसने लाशों के अम्बार की बू के बीच कई चील कौवों को उन्हें नोंचते देखा हो. और जिसने अदम्य साहस के साथ अफगान सेना की गुप्तचरी कर ब्रिटिश सेना को जीत दिलाई हो भला ऐसे लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के कहने पर उनके अंग्रेज अफसर कैसे माना करते कि नहीं गढ़वालियों के लिए कोई सेना नहीं बनाई जायेगी.
एडीसी टू वायसराय इन ब्रिटेन एंड इन इंडिया रहे लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के वंशज भले ही वर्तमान में कोटद्वार के बलभद्रपुर में उनकी रियासत में रह रहे हों लेकिन विकास खंड कल्जीखाल के हैडाखोली गाँव में जन्मे इस पूत की वीरता के ऐसे अध्याय शामिल हैं जिन पर प्रत्येक गढ़वाली अपने आप पर नाज करता है. आज भी गढ़वाली पूरे देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी वीरता और वफादारी की मिशाल कायम किये हुए है. गढ़वाल राफल्स गठन में अमूल योगदान देने वाले बलभद्र सिंह के लिए जंगी लाट लार्ड रॉबर्ट्स के ये शब्द (“एक जाति जो बलभद्र सिंह नेगी जैसे पुरुषों को पैदा करती है उसे अपनी एक बटालियन मिलनी ही चाहिए।“ )
जिस बलभद्र सिंह नेगी के लिए थे उनका जन्म 1829 में पौड़ी गढ़वाल की पट्टी असवालस्यूं के हैडाखोली गाँव में हुआ था। 17 वर्ष की उम्र में वे गोरखा रेजिमेंट की पांचवी बटालियन में भर्ती हो गए। अंग्रेजों ने गढ़वालियों को गोरखाओं के क्रूरतापूर्ण शासन से मुक्त कराया था गढ़वाली इतिहास में जिसे गोरख्याणी कहा जाता है। जिसकी वजह से गढ़वालियों का अंग्रेजों के प्रति सम्मान था। गोरखाओं के बीच बलभद्र ने खुद को साबित किया और निरंतर बढ़ते रहे। 1859 तक वे सेना में हवलदार मेजर बन चुके थे।
अंग्रेजों के लिए अफगान युद्ध बहुत मुश्कित हो चला था, इसलिए वयोवृद्ध लार्ड रॉबर्ट्स को कमांडर बनाया गया। कई कोशिशों के बाद भी अंग्रेज अफगानों को नहीं जीत पाए फिर बलभद्र सिंह नेगी की पिछली बहादुरी को देखकर उन्हें अफगानों की युद्ध नीति पता करने का कार्य सौंपा गया। नेगी ने 7 दिन मृत सैनिकों के बीच लेटकर महत्वपूर्ण सूचनाएं इकठ्ठा की जिसके आधार पर अंग्रेज अफगानों से युद्ध जीत पाए। उनकी युद्ध कौशलता का सिलसिला चलता रहा। अफगान युद्ध के दौरान उनके महान योगदान के कारण सूबेदार बलभद्र सिंह को दो बार ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। जब वह फील्ड मार्शल राबर्ट्स के एडीसी थे तब उन्हें ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया और सर्वोच्च सैनिक के पदक से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही उन्हें सरदार बहादुर का भी खिताब दिया गया
अगर एक सरसरी नजर लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के जीवनकाल पर डाली जाय तो वह यह है कि मात्र 12 बर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद गरीबी से तंग आकर बलभद्र सिंह घर से निकलकर 500 की यात्रा कर पश्चिम उत्तर सीमा प्रान्त तत्कालीन अबडदाबाद पहुंचे जहाँ वे 5 वीं गोरखा राइफल्स में भर्ती हुए. अपनी वीरता अनुशासन व सौम्य व्यवहार के चलते मात्र 13 महीनों में ही उन्हें लैंस नायक बना दिया गया. 1859 की क्रान्ति तक वे मात्र दस साल के सेवाकाल में हवलदार बना दिए गए.1871 में कंधार लड़ाई में उन्होंने अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया. जिसके लिए इन्हें वीरता स्वरूप “आर्डर ऑफ़ मैरिटी” का सम्मान दिया गया पुन: काबुल युद्ध में इन्होने यह सम्मान हासिल किया. जिसके बाद इन्हें सूबेदार मेजर के पद का अलंकरण दिया गया. व ब्रिटिश आर्मी के सर्वोच्च सेना नायक ने इन्हें एडीसी पद पर सुशोभित कर दिया. 5 बर्ष इस पद पर कार्य करने के पश्चात 1885 में ये ब्रिटिश सेना से सेवानिवृत्त किये गए. इनकी सेवा से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कोटद्वार बावर के घोसिखाता स्थान पर 1600 हेक्टेअर जमीन दान दी जिसे आज बलभद्रपुर के नाम से ही जाना जाता है. सेवानिवृत्ति के बाद सन 1887 में उनकी सिफारिश पर लार्ड मेंनवरिंग द्वारा उत्तराखंड की प्रथम बटालियन की स्थापना की गयी. 63 बर्ष की उम्र में गाँव से लैंसीड़ाउन जाते समय गुमखाल के नीचे बदरू का पाणी नामक स्थान पर ध्यान में बैठे बलभद्र सिंह नेगी के उपर चट्टान का बड़ा सा पत्थर आ गिरा जिसमें उनकी मृत्यु हो गई.
बलभद्र सिंह ने कमांडर-इन-चीफ को अलग से गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के लिए प्रोत्साहत किया और उन्होंने इस प्रस्ताव को तत्कालीन वॉयसराय लार्ड डफरिन के पास भेजा। जनवरी 1886 में फील्ड मार्शल राबर्ट्स ने अलग गढ़वाली रेजिमेंट बनाने के लिए अनुमोदन में लिखाः- “एक जाति जो बलभद्र सिंह नेगी जैसे पुरुषों को पैदा करती है उसे अपनी एक बटालियन मिलनी ही चाहिए।“ ‘ये लोग एक उच्च योद्धा जाति के होंगे, वर्तमान में 5वीं गोरखा में बहुत सारे गढ़वाली हैं, जिन्होंने बार-बार अपनी बहादुरी और वफादारी को साबित किया है और उनके अधिकारियों ने इसे स्वीकार किया है कि गढ़वाली शारीरिक सौष्ठव और वीरता में बिशुद्ध गोरखाओं के समान है। दूसरी गोरखा रेजिमेंट में गढ़वाली सैनिकों को उत्तम सैनिकों में गिना जाता है और सभी अधिकारी जो जाति को जानते हैं उनकी उच्च सैन्य योग्यता के गुणगान करते हैं।’
अप्रैल 1887 में दूसरी बटालियन तीसरी गोरखा रेजिमेंट की स्थापना के आदेश दिए गए। जिससे 06 कंपनियां गढ़वालियों की और 02 कंपनियां गोरखाओं की थी। 5 मई 1887 को चौथी गोरखा के लेफ्टिनेंट कर्नल ईपी मेनवारिंग ने कुमांऊ क्षेत्र के अलमोड़ा में पहली बटालियन का गठन किया और 4 नवंबर 1887 को बटालियन गढ़वाल क्षेत्र में कालौंडांडा पहुंची जिसको बाद में तत्कालीन वॉयसराय के नाम पर लैंसडाउन से जाना जाता है। 1891 में 2/3 गोरखा रेजिमेंट की दो कंपनियों से एक नई गोरखा पल्टन खड़ी की गई और शेष बटालियन का पुन: नया नाम बंगाल इन्फैन्ट्री की 39वीं गढ़वाल रेजिमेंट रखा गया। बैज से गोरखाओं की खुंखरी को हटाकर उसका स्थान फोनिक्स (बाज) को दिया गया। जिसने गढ़वाल राइफल को एक अलग विशेष रेजिमेंट होने की पहचान दी। 1891 में फोनिक्स (बाज) का स्थान माल्टीज क्रास ने लिया जिस पर ‘द गढ़वाल राइफल’ अंकित था तथा बैज के ऊपर पंख फैलाए बाज था। यह पक्षी शुभ माना जाता था और इससे गढ़वालियों की सैना में अपनी पहचान का शुभारंभ हुआ। यद्दपि ये शुरू से हरी जैकेट पहनते थे परंतु 1892 में अधिकारिक तौर पर राइफल्स की उपाधि मिली। जब इसका नाम उन्तालीसवीं (द गढ़वाल राइफल्स) रेजिमेंट ऑफ बंगला इन्फैन्ट्री रखा गया।
आज गढ़वाल राइफल्स ने ब्रिटिश शासन काल में दो विक्टोरिया क्रॉस दिए हैं जबकि वर्तमान में उसकी वीरगाथा में सैकड़ों मेडल्स जुड़ गए है. चाहे दरवान सिंह हों या फिर गबर सिंह या जसवंत सिंह सभी की गौरब गाथा ने गढ़वाल राइफल्स के साथ देश व पहाड़ियों के मान सम्मान को हिमालय की बुलंदियों के समान उंचा बनाए रखा. लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी पहला ऐसा वीर योद्धा था जिसके पुत्र अमर सिंह नेगी को नाइब सूबेदार की बर्दी पहनाने गढ़वाल राइफल्स की एक टुकड़ी उनके गाँव गढ़वाली बैंड के साथ हैडाखोली पहुंची. और जब द्वीतीय विश्व युद्ध के दौरान सूबेदार अमर सिंह गोली लगने से घायल हुए तब इनके पिता लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी ने अंग्रेज अफसरों को तार भेजकर लिखा कि यदि मेरा पुत्र अब सेना की सेवा करने लायक नहीं रह गया है तो उसे गोली मार दी जाय.
(1988-87 में किये गए मेरे शोध का एक अंश, इस दौरान मुझे बलभद्र सिंह नेगी के पौते डीएसपी साहब हरेन्द्र सिंह नेगी, उनके भाई जिनके पुत्र तत्कालीन समय में मेजर रहे, रेलिश रेस्टोरेंट के मालिक व अन्य बलभद्रपुर के कई नेगी परिवारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिनसे अहम चर्चा हुई व कई दस्तावेज संग्रहित भी किये. एक दास्तावेज के तौर पर मैंने इसे दिल्ली दूरदर्शन में सौंपा भी! लेकिन दुर्भाग्य से यह कार्यक्रम तब प्रसारित नहीं हो पाया. उस दौर में लैंसडाऊन में ब्रिगेडियर डिल्लन साहब, लेफ्टिनेंट कर्नल टी.एस.बिनैपाल साहब व एग्जुटेंट मेजर रावत हुआ करते थे.)