उत्तराखंड में लोकनृत्य लोकगीतों के 52-52 प्रकार ! लोक जीवन के मूल आधार रहे हैं लोकगीत व लोकनृत्य!

उत्तराखंड में लोकनृत्य लोकगीतों के  52-52 प्रकार !
(मनोज इष्टवाल)

विकीपीडिया के अनुसार उत्तराखण्ड लोक गीत, लोकनृत्यों के २५ से अधिक प्रकार पाए जाते हैं इनमें प्रमुख हैं- १-मांगल या मांगलिक गीत, २-जागर गीत, ३-पंवाडा, ४-तंत्र-मंत्रात्मक गीत, ५-थड्या गीत, ६- चौंफुला गीत, ७-झुमैलौ, ८-खुदैड़, ९-आसंती-वासंती गीत, १०-होरी गीत, ११-कुलाचार, १२- बाजूबंद गीत, १३- लामण, १४-छोपती, १५- लौरी, १६-पटखाई में छूड़ा, १७- न्यौली, १८-दूड़ा, १९- चैती पसारा गीत, २०-बारहमासा गीत, २१- चौमासा गीत, २२-फौफती, २३- चांचरी, २४- झौड़ा, २५- केदरा नृत्य-गीत, २६- सामयिक गीत..!
लेकिन इन २६ लोकगीत लोकनृत्यों की श्रृंखला में २७- हारुल, २८-झैंता, २९- रासो, ३०-घुन्डिया रासो, ३१- ब्यो गाळी. ३२- ढकै सौं, ३३-जंगू भावी, ३४- जंगू ३५-जंगबाजी ३६-पंडों गीत नृत्य ३७-सराहीं नृत्य ४०- हुड्क्या बोल, ४१. बादी गीत नृत्य ४२- भगनौल गीत नृत्य, ४३- थाऊडा लोक नृत्य/गीत, ४४- डुंगल्या गीत, ४५- ठुंगणया गीत, ४६- पाउणा गीत-नृत्य, ४७- अटगण-पटगण, ४८- अक्कू-मक्कू, ४९- मोछंग गीत ५०- युद्ध गीत ५१- चैती दान ५२- फगुणीया गीत  इत्यादि सहित बावन कलाएं गीत और नृत्य के हैं जिनमें कई लुप्त प्राय: हो गए हैं!
इन समस्त गीतों में ८ प्रकार हैं जिनमें १- संस्कार गीत, २- देवी-देवता व्रत त्यौहार स्तुति-पूजा गीत, ३- खदेड़ गीत, ४- ऋतु सम्बन्धी गीत ५- विरह गीत ६- सामूहिक रूप से गेय गीत ७- लघु गीत व ८- जातियों के गीत हुआ! इस तरह से गीतों का वर्गीकरण किया गया है जिनमें हर वर्ग में कम से कम ८ से २६ तरह के लोकगीत लोकनृत्य शामिल हैं! इसलिए सिर्फ यह कह देना कि हमारे लोकगीत लोकगीत सिर्फ ५२ ही प्रकार के हैं सही नहीं रहेगा! सबसे कम ८ तरह की गीत सामूहिक गायन शैली में शामिल किये गए हैं जबकि मेरे हिसाब से ये भी दर्जनों भर से ज्यादा होंगे वहीँ सबसे अधिक २६ किस्म के गीत संस्कार गीतों में शामिल हैं! इसके बाद १६ किस्म के गीत नृत्य देवी देवता तीज त्यौहार स्तुति इत्यादि हैंहैं खुदेड श्रेणी में लगभग एक दर्जन व जाति गीतों में लगभग दो दर्जन गीत आते हैं! ऐसे ही विरह व ऋतु सम्बन्धी गीतों की भी श्रेणी हैं जिनमें एक से डेढ़ दर्जन ऐसी ही शैली के गीत हैं! लघु गीत भी ८ से १० श्रेणी के हैं! लेकिन यह भी सत्य है कि इनकी ब्यापकता पर जाने के बाद इन्हीं गीतों की संख्या में दिनी-दिन बढोत्तरी ही होगी घटोत्तरी नहीं! बस जरूरत है तो एक ब्यापक तरह के शोध की!
काश कि गीतों के इतने ही रूप होते क्योंकि इनमें अभी न तो केदारबाछा शामिल हैं न लामण या छोड़े! और तो और इनमें न सरौंs शामिल हैं न छोलिया! पंडों के साथ जागर व भारत व महाभारत वार्ता, धपेली, छपेली, चौमासा, छमासा सहित जाने ऐसे कितने दर्जनों गीत हैं जिनका तो नाम ही नहीं गिना गया! जिस तरह गढवाल के बावन गढ़ हैं उसी तरह हर गढ़ के गढ़पती द्वारा अपने अपने क्षेत्र की धर्म संस्कृति, लोकपरम्पराओं को  संजोने के लिए ऐसे अनूठे प्रयोग किये गए ताकि वह जब भी किसी अन्य गढ़ क्षेत्र में जाए तो वहां उनका अपना रुआब रूतबा बना रहे! पूर्व में संस्कृति शून्य क्षेत्र के थोकदारों को जंगली व ठेठ खस माना जाता था इसलिए चलन में ऐसी परम्पराएं लाई गयी ताकि उसकी चिट्टी कागली से लेकर बोली भाषा व लोक संस्कृति दूसरे गढ़पति से भिन्न हो! इससे उनका कितना फायदा हुआ यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन गढवाली बोली को इसी कारण अभी तक भाषा का दर्जा नहीं दिया जा सका न ही कुमाउनी बोली ही भाषा का दर्जा हासिल कर पाई!
राजा अजयपाल ने ५२ गढ़ों के गढ़पतियों को हराकर जब गढवाल नाम दिया उसके पश्चात श्रीनगरी गढवाली को गढ़नरेश द्वारा भाषा का दर्जा दिया गया व उसी में संदेश, आदेश, शिलालेख, ताम्र-पत्र व सरकारी कामकाज शुरू हुआ लेकिन १८०३ में गोरखाली राज आने के बाद यह सब कामकाज गोरखाली भाषा में शुरू हो गया! १८१५में अंग्रेज आये तो उन्होंने यहाँ लेटिन भाषा प्रयोग में लाई जिसे देवनागरी कहा गया और एक समय आया कि हमारी भाषा पिछड़कर बोली बन गयी!
अब जबकि वर्तमान शोधों से यह ज्ञात हो रहा है कि अकेले गढवाल में ५२ नहीं बल्कि सौ से भी अधिक छोटे बड़े गढ़ हुआ करते थे तब यह भी निश्चित है कि गीत नृत्य सिर्फ ५२ तक ही सीमित नहीं होंगे बल्कि इनकी अधिकता भी कई अधिक होगी!
बहरहाल इन बावनी लोकगीत नृत्यों का संकलन और संयोजन सबसे बड़ा शोध अभी भी शोध का विषय है ..! इस पर हमें चिंतन कर पूर्व खोयी हुई परम्पराओं को धरोहर के रूप में स्थापित करने का प्रयास करना होगा!

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