26 बर्षों बाद जुटा बावर के मानल थात का ऐतिहासिक बिस्सू!
26 बर्षों बाद जुटा बावर के मानल थात का ऐतिहासिक बिस्सू!
(मनोज इष्टवाल)
किसी जमाने में बैशाखी के पर्व पर तमसा नदी के आर पार से खत्त-बाणा धार के मानल थात के बिस्सू मेले में शिरकत करने हजारों-हजार की संख्या में हिमाचल, पर्वत, बंगाण, रवाई-जौनपुर, जौनसार क्षेत्र के लोग जुटते थे! मेले में अहम की लडाइयां छिड जाने पर जब वाद-विवाद बढ़ते तो लाठियां चलने तक की नौबत आ जाती! कई बार संघर्ष भी होता लेकिन यह सर्वथा सत्य है कि यह मेला हिमाचल और बावर के बीच रिश्तों की ऐसी डोर थी जिसमें खिंचते हुए कई यौवनाएं बावर आई तो कई बावर की यौवनाएं हिमाचल गयी! यानि कोई तमसा के इधर बहु तो कोई उधर बहु!
मानल थात के बिस्सू में जब हारुल नृत्य में एक गाँव या इलाके की लडकियां/लड़के दूसरे गाँव या क्षेत्र के लड़के या लड़कियों को चुनौती देकर मुकाबला करने को ललकारते और हार जीत के बाद एक दूसरे से परिचय प्रगाढ़ता बढती तो बस बढती चली जाती और अंत में वह वैवाहिक रिश्तों में तब्दील हो जाया करती!
यह बात सिर्फ मानल थात के बिस्सू पर ही लागू नहीं होती है बल्कि सम्पूर्ण पहाड़ी भू-भाग में ऐसी परम्पराएं सदियों से रही हैं लेकिन इस क्षेत्र की बानगी ही अलग है! यहाँ यौवन को जोवन की भांति जीने वाले लोग अपनी लोक संस्कृति की अलग पहचान के कारण ही ट्राइब कहलाते हैं! लेकिन तेजी से बदलते वर्त्तमान परिदृश्य को देखकर अब नहीं लगता कि यह ट्राइब का तमगा जौनसार बावर के लोग संभाले रख पायेंगे! सिर्फ भोटिया जनजाति ही वर्तमान में अपनी लोक समाज व लोकसंस्कृति के मूल्यों के प्रति सजग दिखाई देती है और उसके जितने भी बड़े-बड़े अफसर हैं वे अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए हर सम्भव पर्यटन शील हैं ! चाहे वह दारमा घाटी हो, जोहार हो, शोर-मुनस्यारी हो या फिर नीति-माणा..! ये लोग आज भी पूरी शिद्दत से अपने हर लोक परम्पराओं व त्यौहारों के लिए जुटते हैं, और अपने ट्राइब्स होने पर नौकरियों में सिर्फ फायदा ही नहीं उठाते बल्कि गर्व भी महसूस करते हैं!
वहीँ जौनसार बावर में यह संस्कृति ह्रास की ओर तेजी से अग्रसर है! पिछले 10 बर्षों में इन्होने अपने लोक में प्रचलित आभूषण, वस्त्र सज्जा ही नहीं खोये बल्कि अपनी लोक भाषा के प्रति भी अब गंभीर नहीं दिखाई देते! शिक्षा के बाजारीकरण और शिक्षित होने के बाद यह समाज अपनी बुनियाद से उखड़ रहा है!
26 बर्ष बाद मानल थात में बिस्सू जुटा यह खबर जब मुझ तक पहुंची तो शायद वहां के हर नागरिक की भाँती मैं भी उतना ही खुश हुआ होउंगा क्योंकि मैंने अपनी आँखों से कांडोई-भरम का वह ऐतिहासिक बिस्सू समाप्त होते देखा है जिसकी एक बानगी देखने के लिए आज भी आँखें तरसती हैं! मैंने 1996 में जौनसार के रामताल गार्डन में जुटे बिस्सू का वह आलम देखा है जिसे देखने को आँखें तरसती हैं और वहां सिर्फ सांकेतिक बिस्सू ही दिखाई देता है!
शुक्र है कि ठाणा डांडा (चकराता के पास) की गनियात से बिस्सू तक के परिदृश्य अभी तक जीवित रहे जिसने नौगाँया थात का बिस्सू जीवित रखा, जिसने खुरुड़ीथात पर जुटने वाले पौराणिक बिस्सू को पुनर्जीवन दिया! भले ही भौतिकतावाद का भेंट चढ़ा लखवाड़ डांडा का बिस्सू अब अलोप हो गया है लेकिन दुबारा से दो बड़े बिस्सू मेलों को जीवन मिला है उससे यह तय मानिए कि धीरे धीरे फिर से जौनसार बावर क्षेत्र में मेलों की रंगत लौटने लगी है!
मानल थात बिस्सू के बंद होने का कारण आपसी रंजिश व छुटमुट झगड़े रहे हैं शायद ऐसा ही कुछ कांडोई भरम के कांडोई में जुटने वाला बिस्सू मेला भी बंद हुआ ! भले ही क्वाणु गाँव वालों ने अपना बिस्सू अभी तक जीवित रखा है लेकिन जाने क्यों वे भी उसकी उस भव्यता को कायम नहीं रख पाए जो पिछली सदी में हुआ करती थी!
मानल थात में 26 बर्ष बाद पुनः बिस्सू मेला जुटने के पीछे शायद ग्रामीण कम और शिलगुर देवता की ज्यादा मेहरबानी रही क्योंकि खत्त बाणाधार के 6 गाँव जिनमें चिल्हाड़, सिल्वोड़ा, बन्द्रौली, डिमीच व चान्जोई प्रमुख हैं द्वारा मानल थात में नवनिर्मित शिलगुर मंदिर की पुनर्स्थापना पर ही सभी खूंदों द्वारा यह मेला तय किया गया और साफतौर पर पंडितों द्वारा यह अपील की गयी कि मेले की शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए शराब का सेवन कर मेले में न आयें, जिसका यह प्रभाव रहा कि लगभग 10 से 15 हजार के बीच लोग मानल थात के बिस्सू मेले में सरीक हुए जिसमें खत्त सयाना बाणाधार सहित ओस्मेऊ खूंद (दिमीच के पाउच व बन्द्रौली के नेगी), मेगरेऊ खूंद (बाणाधार के राजपूत राणा जोकि खत्त सयाना भी हैं) तलाण खूंद (चान्जोई के उनियाल) व बिजेऊ खूंद (चिल्हाड़ के पंडित/ जिन्हें सिर्फ पंडत कहा जाता है खूंद शायद नहीं) इत्यादि ने अपने ढोल-नगाड़ों के साथ मेले का आयोजन किया जिसमें थात में हजारों-हजार लोग जुटे लाठी-बल्लम लिए जब ये सभी खूंद वहां इकठ्ठा हुए तो मानल थात की धूल आसमान चूमने लगी!
हारुल व झैंता नृत्य के साथ ठौउडा ने मेले की रंगत में चार लगा दिए! उत्साहित लोगों को यह कहते सुना गया कि हम इन 26 बर्षों तक आखिर सोये कहाँ रहे! बेहद सौहार्दपूर्ण माहौल में मेला समाप्त हुआ और हिमाचल बावर के रिश्तों की डोर फिर प्रगाढ़ता की ओर खींचने लगी! सभ्य समाज की यह पहल पूरे उत्तराखंड के उन थातों, धारों, डांडा के लिए मिशाल है जहाँ के मेले सिमट गए ! आईये नयी पीढ़ी फिर से इन्हें शुरू करवाए ताकि आप अपनी गर्मियों की छुट्टियों के चंद पलों का आनंद अपनी उन सुरम्य धारों डाँडो और थातों में ढोल दमाऊ की घमक व अपने लोकगीतों लोकनृत्यों के साथ आनन्दित होकर मनाये इससे दो कार्य होंगे एक हम अपने गाँव से जुड़ेंगे दूसरे हमारे लोक त्यौहार जीवित रहेंगे और सबसे अहम यह कि हम अपनी लोक संस्कृति की बानगी के साथ अपनी छुट्टियों को कम खर्चे के साथ सपरिवार ख़ुशी ख़ुशी मनाएंगे!