उत्तराखंडी सिनेमा के पितामाह पराशर गौड़ बोले- उम्मीदों की किरणों का अभी अस्तांचल नहीं हुआ, इसलिए उत्तराखंडी सिनेमा की अलख जगाते रहिये!
उत्तराखंडी सिनेमा के पितामाह पराशर गौड़ बोले- उम्मीदों की किरणों का अभी अस्तांचल नहीं हुआ, इसलिए उत्तराखंडी सिनेमा की अलख जगाते रहिये!
(मनोज इष्टवाल)
अभी परसों की ही बात है जब पलायन एक चिंतन के प्रणेता ठाकुर रतन असवाल के घर पर उत्तराखंडी सिनेमा के पितामाह पराशर गौड़ से मुलाक़ात हुई. मूलतः बिकास खंड कल्जीखाल के अंतर्गत पट्टी असवालस्यूं मिर्चौडा गॉव में जन्मे पराशर गौड़ वर्तमान में टोरेन्टो कनाड़ा में रहते हैं. भले ही उनसे यह मिलना इत्तेफाक ही हुआ लेकिन आज भी वही लोक संस्कृति की पीड़ा उनके जेहन में है जो पिछली सदी के 70 के दशक में थी.
इस दौरान वर्ल्ड फेम फोटोग्राफर कमल जोशी भी उन्हें मिलने आ पहुंचे. पहुँचते ही वे बेहद गर्मजोशी से पराशर गौड़ से मिले जिनकी अब उम्र के साथ कमर झुकने लगी थी लेकिन चाल ढाल में वही चपलता. बातों में वही शब्दों का बिन्हास! वही हास परिहास जो वह पिछली सदी में दिखाई देते थे. कमल जोशी ने कुशल क्षेम पूछने के बाद यादें ताजा करते हुए कहा- गौड़ साहब, मैं आज भी नहीं भुला जब मैं पहली बार आपको महावलंकार हाल दिल्ली में आपकी गढ़वाली फिल्म “जग्वाळ” के प्रीमियम शो पर मिला था तब भी आप इसी गर्म जोशी से मिले थे और आज 34 बर्ष बाद भी वही गर्मजोशी आपके मिजाज में है. बस मैं यही देखने आया था कि अब आप कैसे हुए ?
(फोटो- प्रणेश असवाल)
पराशर गौड़ ठहाका लगाकर बोले- जोशी जी तब भी आप पत्रकार थे अब भी आप पत्रकार हैं! बस बदलाव यह आया कि आप उसी धारा को आगे बढ़ा रहे हैं और मैंने भले ही फिल्म लाइन नहीं छोड़ी लेकिन बदल जरुर दी है. बातों का सिलसिला यूँही जारी रहा था मैं पराशार गौड़ को अतीत के सुनहरे पल में ले गया बोल पड़ा- गौड़ साहब तब फिल्म बनाना एक महाभारत थी और वह उस दौर की बात है जब कोई गढ़वाली सोच भी नहीं सकता था कि फिल्म भी बन सकती है क्योंकि तब बिरले व्यक्ति का वेतन बमुश्किल 20 हजार पार करता था तब भला आपने लाखों का रिस्क कैसे ले लिया.
(फिल्म जग्वाल की शूटिंग के दौरान पराशर गौड़)
उन्होंने कहा- मैं भले ही गढ़वाली फिल्म बनाने में 1983 में कामयाब हो सका लेकिन मेरे कई प्ले उस दौरान दिल्ली में चर्चा में थे जब गढ़वाल का इसके मंचन की सोच भी नहीं सकता था. एक तरफ ललित थपलियाल का “खाडू लापता” तो एक तरफ मेरा “औंसी की रात” ! 1967 में लिखा मेरा यह नाटक मैंने 1969 में पहली बार “पुष्पांजलि रंगशाला” में प्रदर्शित किया. इसके बाद तो जैसे बाढ़ आई हो और मेरे एक दर्जन से अधिक नाटक 10वीं बार विभिन्न थियेटर में मानचित होते गए.
(उत्तराखंडी सिनेमा के पितामाह पराशर गौड़)
अब आते हैं आपकी बात पर! जग्वाल फिल्म निर्माण भले ही मेरे द्वारा 1983 में किया गया हो लेकिन इस पर काम 1975 से चल रहा था. पहाड़ के मुंबई व दिल्ली में स्थापित कई व्यक्तित्व इस बारे में सोचते रहे. लगातार चिंतन मंथन चलता रहा लेकिन हम में से किसी का भी साहस नहीं हुआ कि पहाड़ की कोपी फिल्म बनाई जाय क्योंकि तब फिल्म उद्योग से जुडी जानकारियाँ भी नहीं होती थी और पैंसा भी नहीं होता था. इकटठा लाखों रुपयों का दांव तब कौन खेले यही सबसे बड़ी महाभारत थी. योजना 1975 की थी जिसने आठ साल ले लिए लेकिन तब भी जस की तस रही. आखिर मैंने दांव खेल ही दिया और 1983 में मात्र 28 दिन की शूटिंग कर “जग्वाल” बनकर तैयार हुई जिसकी शूटिंग पौड़ी, बुबाखाल, घोड़ीखाल, पैडूलस्यूं, कोटद्वार, रूद्रप्रयाग इत्यादि जगह की गयी. तब रतन चाचा बच्चा हुआ करता था. रतन असवाल बीच में ही बोल पड़े- तब मैं पौड़ी में सातवीं कक्षा में पड़ता था और इनका झोला उठाने में फक्र महसूस करता था. फिर ठहाका गूंजा और कमल जोशी बोल पड़े- तब दिल्ली में कुमाऊँ के जनमानस भी सिनेमा घरों में खूब उमड़े और पूछते थे-“दाजू ये जग्वाल क्या हुआ!
मैंने जब पराशर गौड़ से प्रश्न किया कि फिल्म निर्माण वह भी पिछली सदी में? क्या अनुभव थे आपके?
थोड़ा शांत रहने के बाद वो बोले- जग्वाल के शुरू होने से और बनने तक लोगों की प्रतिक्रिया के बारे में न पूछे तो अच्छा होगा क्यूंकि उस दौर में किसी ने भी मुझे तब ना तो हौसला दिया ना ही शाबासी ! हाँ समाज में मैं एक हंसी का पात्र जरुर बना या बनाया गया ! मेरे मान-सम्मान को कई बार दांव पर लगना पड़ा ! जैसे ही लोगों ने सुना कि मैं फिल्म बनाने जा रहा हूँ बस उसी दिन से मेरे साथियों से लेकर जान पहिचान वाले मुझ पर ये व्यंग कसते नही थकते थे ” लो , आ गया गढ़वाली फिल्म प्रोड्यूसर !
सिर के पीछे दोनों हाथ ले जाकर उनकी सोचती आँखों में साफ़ झलक रहा था कि वे अतीत के पन्ने पलटने के लिए सन 1983 में जा पहुंचे! वे बोले- सन 1983 की वो शाम जब मबलन्कार हॉल, रफ़ी मार्ग पर जिस दिन जग्वाल का प्रीमियर शो था उस दिन लग रहा था पूरा पहाड़, पहाड़ से यहाँ चला आया हो ! भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस का बन्दोबस्त करना पड़ा था ! उसी भीड़ में मैंने स्वयं उन लोगो को लाइन में खड़े देखा जो मुझ पर फबतियां कसा करते थे ! मैं स्वयम उनके पास गया और उन्हें अपने साथ बड़े आदर के साथ अन्दर लेकर गया ! मेरे इस व्यवहार से वो पानी पानी तो थे लेकिन असल में वो ही मेरे असली शुभ चिंतक भी थे जिन्होने मुझे बार बार ताने मार मार कर मुझे आगे बढने की हिम्मत दी ! मै तो उन सब का ऋणी हूँ !
(पराशर गौड़ फिल्म “जग्वाल” के निर्माण काल के दौरान)
मैंने प्रश्न किया- फिर तो आपको फिल्म निर्माण के बाद बहुत साड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा क्योंकि तब आप कंस्टयूशनल क्लब दिल्ली में कार्यरत थे और आपको अचानक कनाडा जाना पड़ा. लगता है तब आर्थिक भार एकाएक सिर पर बढ़ गया होगा? वे बोले मुझे बेहद ख़ुशी है कि मैं अपना पैंसा निकालने में कामयाब हुआ लेकिन उसके बाद कुमाऊँ के बिष्ट जी द्वारा बनाई गयी फिल्म “मेघा आ” मार्केट से पैंसा नहीं निकाल पाई इसका बहुत दुःख है. मैंने तब उ.प्रदेश सरकार से 10 प्रतिशत रोयल्टी व दिल्ली दूरदर्शन से भी रॉयल्टी हासिल कर ली थी. रही सही कसार उत्तराखंड की अपार भीड़ ने पूरी कर दी इसलिए मुझे नुक्सान नहीं झेलना पड़ा लेकिन वर्तमान परिवेश में प्रतिस्प्रधा के इस दौर ने सचमुच उत्तराखंडी सिनेमा के लिए परेशानी पैदा कर दी है. क्योंकि यदि आपके पास अच्छी पटकथा और महंगा सेटअप नहीं है तब आप अपनी लगाईं लागत भी वसूल लेंगे ऐसा कह पाना जरा मुश्किल कार्य है. अब आप जग्वाल की बात करेंगे तो ये सोचिये उस दौरान में फिल्म का स्पॉट बॉय से लेकर फिल्म अभिनेता व निर्माता तक सब कुछ खुद ही था क्योंकि पैदाइशी कलाकार तो था ही इसलिए हर अन्गल में अपने को ढालकर देखने का शुकून ही कुछ अलग था.
बातों का सिलसिला यूँहीं जारी रहता कि किसी के फोन से पराशर गौड़ उठ खड़े हुए और बोले- भुला इष्टवाल, तुझ में काफी पुटेन्शियल है तू अपनी लोक संस्कृति का सच्चा चितेरा है तू जब जहाँ चाहेगा मैं खड़ा मिलूंगा. भले ही मैं कनाडा हूँ लेकिन गॉव आज भी मेरे ह्रदय में है इसलिए मैं गॉव के मकान को ब्यवस्थित कर रहा हूँ ताकि अपनी यादों को समेट सकूँ! रही तेरे उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद् पर चिंता ब्यक्त करने जैसी बात तो जितना चिंतित तू है उतने ही चिंतित हम सब हैं जो इस विधा से जुड़े हैं क्योंकि अभी उम्मीदों की किरणों का अभी अस्तांचल नहीं हुआ, इसलिए उत्तराखंडी सिनेमा की अलख जगाते रहिये!