21 बर्ष 8 किमी. सड़क 3 करोड़ खर्च और अभी तक अधूरी! आखिर चुनाव में क्यों खड़ा करना पड़ा इन्हें अपना उम्मीदवार !
21 बर्ष 8 किमी. सड़क 3 करोड़ खर्च और अभी तक अधूरी! आखिर चुनाव में क्यों खड़ा करना पड़ा इन्हें अपना उम्मीदवार !
(मनोज इष्टवाल)
उपेक्षाओं का अंत न होता देख जहाँ जनमानस लाचार व त्रस्त हो जाता है वहीँ विधायक मंत्री-संत्री नौकरशाह ठेकेदार की आपसी जुगलबंदी क्षेत्र को किस गर्त में ले जाती है, यह देखना हो तो उत्तरकाशी जनपद के मोरी विकास खंड के सीमान्त क्षेत्र बंगाण आकर देखा जा सकता है. जहाँ एक सड़क 21बर्ष से बन रही है लेकिन अभी भी 8 किमी. पूरी नहीं हो पाई है और इन 21 बर्षों में इस पर 3 करोड़ से अधिक धनराशी खर्च हो गयी है.
आखिर कब तक जनता जनार्धन ऐसे नुमाइंदों का मुंह ताकती रहती जिनके मुंह में भ्रष्टाचार की ऐसी मलाई लगी है कि उसकी कोमलता रगड़ने से भी नहीं जा रही थी इस बार सभी बंगाणीयों ने ऐसा नीम्बू तैयार किया कि उसकी खट्टास की बास सूंघते ही क्या भाजपा क्या कांग्रेस सबके मुंह से मलाई झाग के रूप में बहने लगी. ये विधान सभा चुनाव न आया हो माना बज्रपात हुआ हो. जहाँ अपना चुनावी पर्चा दाखिल करते समय कांग्रेस के उम्मीदवार राजकुमार व भाजपा के उम्मीदवार माल चंद रथ पर सवार वोट बैंक का चश्मा आँखों पर चढ़ाये कुर्सी की परिकल्पना में तलीन नजर आ रहे थे वहीँ बर्षों से विकास की राह ताकने वाले बंगाणी समाज ने उनके रथ की कीलें निकाल दी. धूप छाया चस्मा नजर का बना दिया. रवाई एकता मंच के मोरी विकास खंड की 4 पट्टियों के 68 गॉव, एकजुट हुए व दुर्गेश लाल नामक एक साधारण व्यक्ति का जब निर्दलीय नामांकन दाखिल करने पहुंचे तो उसके साथ जुटी भीड़ देख राष्ट्रीय दलों की हवा फुस्स हो गयी. नवोदित नेता दुर्गेश लाल यहीं नहीं रुके जब उन्होंने पुरोला में जनसभा की तब मानों इस पूरे विधान सभा क्षेत्र में जलजला आ गया हो. क्या माल चंद क्या राजकुमार ! ऐसा हडकम्प मचा कि कोई महासू मंदिर में कोई बजीरों के घर कोई सयाणा सरपंचों के यहाँ तो कोई चढ़ाई में हांपता गॉव लांघता घर घर की चौखट पर! बंगाणी समाज को मनाने दौड़ पड़ा लेकिन अब तो क्रान्ति का बिगुल बज गया था समाज अचेतन से चेतन की ओर लौट आया था जिस बेहरमी से नौकरशाह के साथ मिली-भगत से बड़ी पार्टियां देहरादून के विधान सभा में बैठ इस सीमान्त क्षेत्र के लिए आबंटित धनराशी हजम कर जाते थे आज उन्हीं का इस समाज ने हाजमा खराब करके रख दिया. उत्तराखंड के इतिहास में यह पहला मौका है जब जनता जनार्धन एक ऐसा बेनाम नेता लेकर आई हो जिसका चुनावी खर्चा पूरा क्षेत्र खुद वहन कर रहा हो.
पलायन एक चिंतन के संरक्षक रतन असवाल से मिली जानकारी के अनुसार इन 68 गॉव में लगभग 24,600 मतदाता हैं जिन में लगभग 18,081 मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया. अब ऐसे में परिणाम जो भी निकले लेकिन विकास के लिए उपेक्षित इन ग्राम सभाओं ने ऐसी नींव तो रख ही दी कि अब जो भी विधायक या मंत्री इस क्षेत्र का बनता है वह सबसे पहले इन्हीं के पास जाकर पूछेगा कि उनकी रज़ा क्या है. क्योंकि आपको यह जानकार अफ़सोस होगा कि उत्तर प्रदेश के जमाने में सन 1996 में इस क्षेत्र के विधायक रहे बर्फियालाल जुवांठा ने आराकोट-बलावत-मौन्ड़ा 8 किमी. सड़क की स्वीकृति करवाई थी तब यह सड़क बननी शुरू हुई थी जिसके लिए तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार लोकनिर्माण ने 2.84 करोड़ रुपये स्वीकृत किये थे लेकिन लगभग 21 बर्षों के बाद भी यह सड़क अभी तक पूर्ण रूप से नहीं बन पायी है जबकि वर्तमान तक इस पर 3 करोड़ से ज्यादा की धनराशी खर्च हो गयी है. सडक के हालत यह हैं कि उस पर चढ़ी तारकोल की परत गाडी के टायरों से साथ उखडती हुई देहरादून तक पहुँच जा रही है लेकिन विभाग में ऐसा कोई माईबाप नहीं निकला जो पूछ सके कि ये माजरा क्या है.
बलावट से मौन्डा तक की दो किमी सड़क देखकर आप यही कहेंगे कि यह खच्चर मार्ग है. मौन्ड़ा ग्राम में घुसने से पहले लगभग 150 मीटर सड़क ऐसी है कि वाहन चालक का जरा भी ध्यान बटें तो दुर्घटना निश्चित है. हलके वाहन के आलावा इतनी चौड़ी सडक है कि अगर कोई व्यक्ति पैदल भी आ रहा हो तो उसके लिए जगह नहीं बचती.
मौन्डा गॉव के चैन सिंह बताते हैं कि आखिर शिकायत कहाँ दर्ज करें. जिनकी लाठी उनकी भैंस. मंत्री संत्री शासन प्रशासन सब तो ठेकेदारों की जेब में रहता है. उनकी बात सुन रहे उप जिलाधिकारी शैलेन्द्र नेगी असहज नजर जरुर आये लेकिन उस सत्यता को भला कैसे नकार सकते थे. ज्ञात हुआ है कि उन्होंने लौटते ही लोकनिर्माण विभाग की इस कार्यशैली पर नाखुशी जताते हुए खूब क्लास लगाईं है.
आपको बता दें कि एक सड़क के डामरीकरण के मानकों को पूरा करने के लिए सड़क पर पांच बार कोडिंग होती है. पहली कोडिंग को सोलिंग कहते हैं जिसमें 30 एमएम के पत्थर बिछाए जाते हैं जिनके ऊपर मिटटी बिछाकर डोजर से उसे समतल किया जाता है. तदोपरांत दूसरी कोडिंग होती है जिसे इंटर कहते हैं इसमें 55/60 एम एम का पत्थर मिटटी के साथ बिछाकर उसमें डोजर चलाकर फिर समतल किया जाता है. तीसरी कोडिंग टॉप कहलाती है जिसमे 25/45 एमएम का पत्थर बिछाया जाता है व डोजर चलाकर इसे कुछ समय के लिए यूँही छोड़ दिया जाता है उसके बाद सीक झाड़ू या कम्प्रेसर से इसकी धूल मिटटी साफ़ कर दी जाती है. तब चौथी कोडिंग पत्थर व तारकोल के 20/10 के रेशो से की जाती है जिसे प्री मिक्स कोडिंग कहा जाता है. अंतिम कोडिंग में 6 एम एम की गिट्टी बिछाई जाती है जिसे लोक निर्माण विभाग की स्वीकृति के पश्चात् ही बिछाया जाता है तब सड़क का डामरीकरण किया हुआ माना जाता है. लेकिन यहाँ तो लगता है तीसरी व पांचवीं कोडिंग हुई और सड़क मंजूर हो गयी. क्योंकि जिस तरह आप फोटो में सडक के हाल देख रहे हैं उस से तो साफ़ जाहिर हो ही रहा है कि कुल बजट का मात्र 20 प्रतिशत भी यहाँ खर्च नहीं हुआ है. 3 करोड़ खर्च होने के बाद भी मात्र 8 किमी. रोड का डामरीकरण नहीं हुआ और उसमें भी 21 साल लग गए ऐसे में भला कब तक ग्रामीण अपनी सहनशीलता का परिचय देते. आखिर उन्होंने जब झंडा बुलंद किया तो ऐसा किया कि अब विधायक भी उनका और सरकार भी उनकी. एकता ऐसी कि कुछ भी कर गुजरने को तैयार. सचमुच जब तक ऐसी क्रान्ति पूरे समाज में नहीं आएगी तब तक ये समाज के लुटेरे ठेकेदार, विभाग और विधायक मंत्री यूँहीं लूट खसोट मचा-मचाकर इस प्रदेश को ऐशगाह बनाते रहेंगे. यह एक सबक है आने वाली सरकार के लिए कि अब वह दिन दूर नहीं जब जनता जनार्धन आपसे एक एक पाई का हिसाब माँगना शुरू कर देगी.
सेब व्यापारी इसी गॉव के और्चेड मौन्ड़ा बाग़ वाले जयदेव चौहान कहते हैं कि उनके गॉव में नाशपत्ती, सेब का विगत बर्षों से खूब व्यापार है जिसमे वे सेब में रॉयल, स्पर, रेड रिचर्ड, गोल्डन, रेड गोल्डन व स्वीट रेड गोल्डन सहित अन्य कई प्रजाति के सेब बेचा करते हैं लेकिन प्रदेश की खराब कृषि नीति के कारण उन्हें मजबूरन सेब को हिमाचल की मंडियों में बेचना पड़ता है क्योंकि वे लोग स्वयं ही फसलों में यहाँ आ धमकते हैं और हमें देहरादून मंडी से अच्छा दाम घर बैठकर दे जाते हैं ऐसे में भला कौन किसान नहीं चाहेगा कि वे अच्छे दामों पर सेब बेचे. हाँ तब बुरा जरुर लगता है जब हम देखते हैं कि हमारे सेब का प्रमोशन हिमाचल सरकार करती है जबकि उत्तराखंड सरकार के पास अभी तक मंडी के अलावा कोई नीति बनी ही नहीं है. उन्हें लगता है कि उन जैसे अन्य कास्तकारों को हरसिल की तरह ही अपने सेब का प्रमोशन खुद करना पडेगा क्योंकि विगत बर्ष राज्य सरकार द्वारा दिए गए कागज के बॉक्स बेहद घटिया होने से सारे सेब बर्बाद हो गए. ऐसे में बंगाण क्षेत्र के सेब व्यवसायी सोच रहे हैं कि वे हर्षिल के सेब की भाँती अपने यहाँ के सेब के प्रोमशन के डिब्बे खुद बनायेंगे जिस पर बंगाणी सेब लिखा होगा. कास्तकार हीरा सिंह चौहान, सते सिंह, चन्द्र सिंह इत्यादि का मानना है कि हमारे यहाँ बेहतरीन क्वालिटी का सेब होता है लेकिन उस समय बहुत पीड़ा होती है जब उन्हें अच्छे दामों पर वह सेब हिमाचल सरकार या वहां के ठेकेदारों को बेचना पड़ता है.
फोटो- रतन सिंह असवाल