और गॉव वीरान होते गए..! उत्तराखंड से पहाडी, जवानी और पानी का पलायन!
और गॉव वीरान होते गए..! उत्तराखंड से पहाडी, जवानी और पानी का पलायन!
- पानी के प्रति सजग होना होगा देश को!
- सूखते स्रोतों ने उत्तराखंड के गॉव उजाड़े!
- नमामि गंगे प्रोजेक्ट उत्तराखंड के हरिद्वार ऋषिकेश के लिए वरना पहाड़ को तो कंकण-गारे ही मिले.
(मनोज इष्टवाल)
अनायास ही सुप्रसिद्ध गढ़वाली साहित्यकार स्व.महेश तिवारी की पुस्तक “वेदी का वचन” जोकि गढ़वाली साहित्य परिषद कानपुर द्वारा बर्ष 1998 में प्रकाशित की गयी थी कि गंगा पर लिखी ये पंक्तियाँ याद हो आई कि “औरुं कु लगै होला तिन, अमृत का धारा! झणी कथैं बौगाणी छई तू, तैं पवित्र धारा! भाग मा हमरा ऐनी, तेरा ढून्गा गारा!! (अन्य के लिए लगाए होंगे तूने, अमृत के धारे! जाने किसके लिए बहा रही थी तू, अपनी पवित्र धारा! भाग में हमारे तो आये,पत्थर और गारे!!”
सचमुच तब शायद पहाड़वासी इस काव्य सृजना से इतना इत्तेफाक न रखता हो लेकिन आज नमामि गंगे प्रोजेक्ट पर अरबों रूपये जिस सफाई अभियान पर खर्च हो रहें हैं उस जीवनदायिनी गंगा के मायके वाले आज भी वैसे ही प्यासे हैं जैसे पहले थे. वैसे ही उपेक्षित हैं जैसे सदियों से रहे हैं. और माँ गंगा को पहाड़वासियों ने जितना दहेज़ बदले में दिया मैदानी भू-भाग वाले उसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकते. पहाड़ की सारी उपजाऊ मिट्टी के मैदान, गंगा की बजरी-रेती, और तो और बोतलों में पैक होकर बाजार में बिकता गंगा जल पहले भी पहाड़ का नहीं था और आज भी नहीं है.
पूरे उत्तराखंड से बहने वाली अमृतदायिनी गंगा के अलावा उत्तराखंड की बड़ी नदियों में सरस्वती, अलकनंदा, भागीरथी, यमुना, कोसी, काली गंगा, नंदाकिनी, धौली, पिंडर, मन्दाकिनी, पूर्वी व पश्चिमी नयार, रुपिन, सुपिन, तमसा सहित कई अन्य बड़ी नदियाँ निकलती हैं जो भारत के अधिकाश महानगरों में पेयजल आपूर्ति, कृषिजल आपूर्ति और तो और मल मूत्र बहाने में सहयोग करती हैं लेकिन पहाड़ हमेशा प्यासा रहा. फिर भी नीरसता नहीं आने दी और सदाबहार जलवायु के साथ पर्यावरणीय शुद्धता पूरे देश के जलवायु को भी शुद्ध करता रहा लेकिन उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं हुआ क्योंकि साधन संपन्न देश के राजनेता व कर्णधारों ने पत्थर के आंसू बहते कब देखे?
2013 में नागाधिराज हिमालय ने फिर अपना रौद्र रूप धारण किया जैसे 1802-03 में किया था. उसी तरह के जलजले के साथ उसके सब्र का बाँध फिर फूटा लेकिन पिसा यहाँ भी उत्तराखंडी जनमानस ही. सुख सुविधाओं के अभाव में अपने अच्छे बुरे दिन पहाड़ का जनमानस यूँ तो बर्षों से हँसते खेलते काटता ही आया है लेकिन जिस पहाड़ के लिए अलग उत्तराखंड राज्य बना था जनमानस खुश था कि अब दुःख के दिन गए पहाड़ पर खुशहाली होगी क्योंकि उसके कर्णधार होंगे जिनके पास यहाँ के गॉव आँगन व जल जंगल जमीन की खुशहाली व विकास के लिए कई कार्ययोजनायें होंगी लेकिन यह क्या ? पहले तो सिर्फ पहाड़ से पहाड़ का पानी और जवानी ही रूठी थी लेकिन अब तो गॉव मकान खेत खलिहान भी रूठ गए!
राज्य निर्माण के बाद से लेकर उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण परिवेश को उत्तराखंड प्रदेश ने तोहफे में जो दिया वह संभाल सकने में शायद हम थक जाएँ इन 16-17 बर्षों में हमने तोहफे में जहाँ लगभग 3500 गॉव वीरान पाए वहीँ 2,80,615 घरों पर ताले, 650 आपदाग्रस्त गॉव, लगभग 2046 प्राथमिक विद्यालयों पर ताले लटकने की देरी व लगभग 32 लाख लोगों का पहाड़ से पलायन!
ये सभी आंकड़े अब तक की सरकारों की नजर में आये कि नहीं यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है. चलो अगर नहीं भी आये तो प्रदेश के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग के 2013 के आंकड़ों को ही उठाकर देख लेते हैं जिनके अनुसार सबसे ज्यादा पलायन अगर उत्तराखंड के जिलों से हुआ है तो वे हैं अल्मोड़ा व पौड़ी!
राज्य निर्माण के बर्ष 2000 से लेकर 2013 तक अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग के अनुसार अल्मोड़ा में 36,401 पौड़ी में 35,654, टिहरी 33,689, पिथौरागढ़ 22,936, देहरादून 20,625, चमोली 18,535 हरिद्वार 18,437 नैनीताल 15,075 उत्तरकाशी 11,710 उधमसिंहनगर 11,434 चम्पावत 11,281 रूद्रप्रयाग 10,971 व बागेश्वर के 10,073 घरों में ताले लटके हुए हैं. इस हिसाब से सन 2013 तक कुल 2,57,825 घरों में ताले लटके हुए मिले या फिर खंडहर में तब्दील मिले. इस से ज्यादा चिंता का बिषय और कोई हो सकता है क्या?
गॉव चलो अभियान के प्रेणत़ा सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद्ध डॉ. अनिल जोशी बताते हैं कि भले ही राज्य निर्माण से पूर्व यहाँ प्रतिव्यक्ति आय 1.34 आंकी गयी थी जिसमे बढौतरी दर्शाते आंकड़े इसे वर्तमान में 1.51 जीडीपी दर्शाते हैं. वहीँ नावार्ड की 2004-05 की रिपोर्ट में जीडीपी कृषि सम्बन्धी क्षेत्र में 27.22 फीसदी बताई गयी थी जो वर्तमान तक घटकर लगभग 8.50 फीसदी रहा गयी है जो बेहद चिंताजनक है. डॉ. जोशी इसकी वजह प्रदेश सरकार की गलत नीतियों को बताते हुए कहते हैं कि हमारे नीति-नियंताओं ने जल, जंगल, जमीन का बेतरतीबा दोहन करते हुए यहाँ के सकल घरेलु उत्पाद ख़त्म किये, पशुपालन चौपट हुआ. स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार कमतर हुए माफिया कॉर्पोरेट को बढ़ावा मिला और कुछ नहीं.
वहीँ पौड़ी के विधान सभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़कर राष्ट्रीय दलों के चेहरे पर शिकन लाने वाले चौबटाखाल विधान सभा क्षेत्र के समाजसेवी कविन्द्र इष्टवाल बताते हैं कि उनके विधान सभा क्षेत्र में 900 से अधिक गॉव का उन्होंने भ्रमण किया जहाँ अधिकतर घरों में ताले लगे हैं व खेत खलिहान बंजर पड़े हैं. लगभग 46 हजार मतदाताओं वाले इस विधान सभा के जनमानस अब तक की सरकार की नीतियों से इतने बेबस लाचार और गुस्से में नजर आये कि क्या कहने! कविन्द्र कहते हैं कि आम जनता का कहना है कि यहाँ सिर्फ माफिया, शराब और ठेकेदार उत्तराखंड के बनने के बाद पनपे हैं. पढ़े लिखे युवक बेरोजगार हैं व मजबूरी में आठ से दस हजार की नौकरी के लिए घर गॉव छोड़ रहे हैं उनके पीछे-पीछे माँ बहनें भी चल देती हैं और यह सच है कि जिसने एक बार पहाड़ क्या छोड़ा वह राज्य निर्माण के बाद वापस गॉव नहीं लौटा. सिर्फ घरों में ताले जंक खाते रहे और खेत खलिहान सब बंजर.
प्रदेश का गरीब और अधिक गरीब हो रहा है क्योंकि सरकारी गलत नीतियों के कारण उन्हें वह सब नहीं मिल पा रहा है जिसके वे असली हकदार हैं. कविन्द्र कहते हैं कि केंद्र सरकार की मनरेगा योजना गदेरों में चकडाम, पुस्ते व सीसी मार्ग बनाने तक ही सीमित है . मनरेगा से पहले भी यही सब बनते आ रहे हैं जो धरातल पर आज तक नहीं उतरे. बीपीएल कार्ड का मुद्दा उठाते हुए उनका मानना है कि अगर इसकी निष्पक्ष जांच हो जाय तो सिर्फ पांच या दस फीसदी अव्यर्थी ही आपको सही बीपीएल धारक मिलेंगे और 90 फीसदी फर्जी! इन्द्रा आवास की स्थिति यह है कि जिसका मकान आज टूट चुका है उसके लिए तीन साल तक इन्तजार करने को कहा जाता है. आखिर ऐसे में पलायन नहीं होगा तो होगा क्या?
वहीँ पलायन एक चिंतन के संरक्षक समाजसेवी रतन असवाल की चिंता इस सबसे से अलग है वे कहते हैं गॉव अब आंकड़ों हैं उनकी पीड़ा उनका दर्द समझने वाली न हमारी राजनीति है और न कार्यप्रणाली! वे अब इस बात से कम चिंतित हैं कि पलायन होकर पहाड़ खाली हुआ है बल्कि उनकी चिंता अगले बर्ष मार्च 2018 के उस औद्योगिक पॅकेज से है जो होली दे पॅकेज नाम से जाना जाता है. उनका कहना है कि पूरे प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों में यदि प्रदेश सरकार के उद्योग विभाग के आंकड़े देखे जाएँ तो लगभग 13.50 लाख नौकरियाँ सिडकुल, पिटकुल, एनटीपीसी सहित अन्य कई औद्योगिक घरानों के कारखानों से उत्तराखंड में मिली है जिसका लगभग 80 प्रतिशत रोजगार यहाँ के मूल निवासियों को दिया गया है. इस हिसाब से लगभग 10,800 उत्तराखंडी हुए जिनमे बमुश्किल चार या साढे चार हजार ही ऐसे होंगे जो स्थायी नौकरी पर हैं बाकी लगभग 6,300 ठेकेदारी प्रथा के तहत नौकरी कर रहे हैं ऐसे में अक्सर यह हुआ है कि होलीडे पॅकेज ख़त्म होते ही ज्यादातर कम्पनियां अपना बोरिया बिस्तर समेटना शुरू कर देती हैं, कई कम्पनी व फैक्ट्री यह काम करने भी लगी हैं, ऐसे में एकाएक प्रदेश सरकार पर लगभग 5 लाख से अधिक बेरोजगारों का प्रेशर आ सकता है. जिस से प्रदेश की माली हालत और पतली होने की संभावना है व जीडीपी के धड़ाम से लुढ़कने की भी. रतन असवाल कहते हैं कि इसके पूर्व के उदाहरण आप देख सकते हैं जिनमे हल्द्वानी, भीमताल, रूद्रपुर, काशीपुर, लांघा, पटेलनगर, मोहबेवाला हरिद्वार सहित कई फैक्ट्रियां हैं जिस से लाखों बेरोजगार हुए और ऐसे में मानव तस्करी बढ़ी. उनका मानना है कि पहाड़ से इन फैक्ट्रियों में काम करने आई हमारी माँ बहनें जोकि इतने बर्ष इन फैक्ट्रियों में काम करती रही क्या फैक्ट्री बंद होने पर गॉव जाकर अपने बंजर खेत खलिहान आबाद करेंगी?
यहाँ हाईफीड के निदेशक व समाजसेवी उदित घिल्डियाल पलायन को बेहद गौण मानते हैं! उनका कहना है कि पलायन हर युग में हुआ और ये निरंतर होता रहेगा लेकिन जिस तरह का पलायन उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद हुआ वह चौंकाने वाला है क्योंकि यहाँ लोग शिक्षा रोजगार के लिए बाहर तो निकले लेकिन दुबारा लौटकर नहीं आये और यही वजह भी है कि यहाँ गॉव खंडहर,वीरान होते गए, खेत खलिहान बंजर! क्योंकि पलायन अगर किसी भी क्षेत्र में हुआ है तो वह बेहतरी के लिए हुआ है. वे पलायन का कारण ही मूलभूत सुविधाएं मानते हैं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, संसाधन व रोजगार. उदित घिल्डियाल कहते हैं कि अमेरिका के गाँवों से भी हर बर्ष पलायन होता है यही बात इंग्लैंड में भी है और विश्वभर के सभी देशों में भी लेकिन वहां का पलायन ऐसा नहीं होता कि वे गए तो लौट कर नहीं आये. अमेरिका के गॉव भारत के महानगरों से भी ज्यादा विकसित हैं क्योंकि वहां सभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध है. पलायन हमेशा मूलभूत सुविधाएं न होने के कारण ही होता है.
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के अल्मोड़ा और पौड़ी से ही सबसे ज्यादा पलायन इसलिए हुआ क्योंकि ये ब्रिटिश काल में कमिश्नरी रही और यहाँ के लोग शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे जिसके कारण ये अपनी बेहतरी के लिए गॉव से छोटे से फिर महानगर और बाद में विदेशों में भी जा बसे. ये लोग वापस अपने गॉव की ओर क्यों नहीं लौटे उसका भी सबसे बड़ा कारण मूलभूत सुविधाएं ही रहा है. आखिर कब तक माँ बहने सिर पर गोबर, घास व लकड़ी का बोझा ढोती रहेंगी. कब तक दूर सूखते धारों से पानी का बंठा-भारा उठाती रहेंगी.
उनका मत है कि अगर मानव पलायनवादी नहीं होता तो क्या उत्तराखंड को अजित डोभाल, जनरल विपिन रावत, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख ए.के.धस्माना, नेवी चीफ राजेन्द्र सिंह, एडमिरल (से.नि.) डीके जोशी जैसी शख्सियत मिल पाती जिन पर पूरा देश नाज करता है व पूरे देश की रक्षा का जिम्मा है. ये लोग बाहर बसे लेकिन हैं तो उत्तराखंडी ही! ये लौटे क्यों नहीं यह मुख्य प्रश्न है? जिसका जवाब उदित स्वयं देते हुए कहते हैं कि अगर उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद हम अपनी कार्य योजनाओं में पहाड़ को मूल भूत सुविधाएं उपलब्ध करवा पाते तो जितने भी अब तक पलायन कर चुके हैं वे वापस लौटते. वे पलायन करना कोई बड़ा बिषय नहीं मानते और न ही पलायन करने का सबसे बड़ा कारण स्वास्थ्य और शिक्षा ही. उनका कहना है पलायन का सबसे बड़ा कारण है प्राकृतिक संसाधनों में तेजी से आ रही गिरावट! जिसमें पानी सबसे बड़ा कारण है. नमामि गंगे को केंद्र सरकार की अच्छी पहल मानते हुए वे कहते हैं कि अगर पहाड़ का पर्याप्त पानी पहाड़ को ही मिल जाता तो पहाड़ खाली नहीं होते. वे आगरा के पास बादशाह अखबर द्वारा बसाए गए खूबसूरत शहर फ़तेहपुर शीकरी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वह सिर्फ पानी न होने के कारण वीरान हो गया है.
उत्तराखंड में बेतरतीबे तेजी से वीरान होते गॉव और सिमटती जनसँख्या को वह पहाड़ के लिए पहाड़ के लोगों द्वारा ही दिया जा रहा अभिशाप मानते हैं क्योंकि सबने मैदानों की ओर इसलिए कूच करना शुरू कर दिया है कि पहाड़ के प्रति इन 16 सालों में कोई भी ऐसी ईमानदार पहल नहीं हुई जिस से वहां आय के साधनों की वृद्धि हो. संसाधन बढ़ें और दिनचर्या सुधरे.
उत्तराखंड प्रदेश के तेजी वीरान होते गॉव व प्रस्तुत समस्त आंकड़े प्रदेश सरकार के लिए ऐसी नजीर है जिन पर अब वे आँखे नहीं मूँद सकते. क्योंकि अगर आँखें मूंदी तो न पहाड़ी रहेगी न जवानी ही पहाड़ के काम आएगी और पहले की तरह निरंतर बहती अमृतदायिनी माँ गंगा व अन्य नदियों का पानी!