सुरजू कौंल व जोतरमाला प्रेम प्रसंग! तो…यह कारण था कैंतुराओं का गोसाईं बनने का! सावर की विद्या, बोक्साड़ी जाप पंजाबी चुंगटी, खरवा की झोली व हैंसदा ज्यूँदाळ की क्या थी करामात!

(मनोज इष्टवाल)

क्या कत्युरी नागवंशी थे..! जो पढेगा वही हंसेगा और कहेगा क्या बेकार की बात लिखता है इष्टवाल भी! तो क्या नौ लाख कत्यूरी गोसाईं अर्थात कनफड़ा थे? अब उचक या बिदक मत जाना क्योंकि मैं हवा में तीर नहीं चला रहा बल्कि तथ्यों पर आधारित ऐतिहासिक तारमतम्य के आधार पर ही यह बात कह रहा हूँ!

नौ लाख कत्यूरियों की शुरुआत शालिवाहन व आसंति-देव बासंतीदेव से मानी जाती है जो अयोध्या के सूर्यवंशी राजपूत थे! इनका उत्तराखंड में आगमन काल संवत 797 से लेकर संवत 1057 कार्तिकेयपुर अर्थात जोशीमठ व इसके पश्चात संवत 1057 से लेकर संवत 1648 करवीरपुर (बैजनाथ) राजधानी के रूप में रही जबकि कत्युरी वंशजों की एक शाखा का नेपाल के काली व गंडकी नदी से लेकर डोटी क्षेत्र के पठारों तक 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राज रहा! जिसमें वर्तमान में दार्चुला, बैतडी, पाटन, बजांग, दैलेख, बर्दिया, बांके, सल्याण, हुम्ला-जुम्ला, दांगेदेऊ बुटोल, दिपायल सहित कई क्षेत्र शामिल हैं! कई इतिहासकार व साहित्यकार कत्यूरियों को संवत 1057 अर्थात बीरमदेव तक ही कैंतुरी शासन का हिस्सा मानते हैं लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि चंद वंशजों के आगमन के बाद भी इन लोगों का बदस्तूर शासन उनके समकक्ष चलता रहा और चंद वंशी राजा बाजबहादुर चंद के पश्चात ये इतने छिन्न- भिन्न हो गए कि ये राजशाही से लेकर थोकदारों में तब्दील हो गए! नौ लाख  कैंत्युरी की लगभग 600 शाखाएं धीरे-धीरे कन्वर्ट होकर आम जातियों में शामिल हो गयी फिर भी कुछ उप जातियां व राजपरिवार के लोग आज भी कैंत्युरी के रूप में पहचान में आते हैं!

१ व २- कत्यूरी राजचिह्न ३- बांयें से दायें अस्कोट के राजा भानुराज पाल, लेखक मनोज इष्टवाल व जीवन चन्द्र जोशी

“गजेटियर आब हिमालयन डिस्ट्रिक्स आब नार्थ वेस्टर्न प्राविसेंस के द्वितीय खंड (1888) में एटकिन्सन ने उनके शासन काल पर प्रकाश डाला है! एटकिन्सन के अलावा इलियट ने भी कत्यूरियों के वास्तविक वंशजों की परिभाषा यह तय की थी कि ये पूर्व में कटोरों के वंशज थे! मेरे द्वारा अपने शोध में जब कत्युरी साम्राज्य के अंतिम राजा अस्कोट के पाल वंशजों के महल का भ्रमण किया गया था तब यहाँ के राजा भानुराज सिंह पाल ने भी ऐसी ही एक पौराणिक तस्वीर दिखाते हुए कत्युरी काल के इतिहास का जिक्र करते हुए बताया था कि उनका राज काबुल इस्लामाबाद से लेकर सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र तक फैला था! तब यह विश्वसनीय नहीं लगा लेकिन जब इलियट व एटकिन्सन के तर्कों में इसे कटोर/कटार या कटारमल्ल से जोड़कर देखा गया तब समझ आया कि यकीनन उनके तत्कालीन तर्क जायज थे क्योंकि काबुल/ हिमालय के पश्चिमी ढालों पर कटोर या कटोरमान आयुधजीवी जनजाति निवास करती है जो आज भी अपने को सूर्यवंशी मानते हैं! कत्युरी काल में राजा कटारमल्ल जिन्होंने कुमाऊं में सूर्य मंदिर की स्थापना की! लेकिन यह बिलकुल अजब गजब है कि ज्यादात्तर सूर्यवंशी बाद में उत्तराखंड में आकर अग्निवंशी या नागवंशी कहलाये! इस पर अभी शोध बाकी है! 

क्षेत्र में कत्यूरियों का इतिहास यों तो लगभग 3 से 4 हजार बर्ष पुराना माना जाता है व कई इतिहासकार इन्हें पुरुषोत्तम राम के वंशजों में भी मानते हैं लेकिन उत्तराखंड में इनका लगभग पौने चार सौ साल एकछत्र राज रहा व सिर्फ बीरमदेव को छोड़कर इनके सभी राजा महान दयालु व प्रजा पालक माने गए हैं! वैसे कत्युरी साम्राज्य का गढ़-कुमाऊं पर लगभग 851 बर्षों तक राज रहा! यह आश्चर्यजनक कि उत्तर भारत पर नन्द, मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त, मौखरी सुल्तानों, मुगलों आदि ने भी इतने बर्ष तक राज नहीं किया!  

यों तो इतिहासकारों में पातीराम, हरिकृष्ण रतूड़ी, डॉ. शिब प्रसाद डबराल चारण, ओकले, बद्रीदत्त पांडे, पाउल प्राइस, राहुल सांकृत्यायन, प्रयाग जोशी सहित दर्जनों लेखकों ने कत्युरी काल पर लिखा है लेकिन सभी ने बढ़-चढ़कर एटकिन्सन के पुस्तक का ही जिक्र किया है!

ऐतिहासिक प्रवृष्टि में उलझ कर फिर मूल बिषय को छोड़ना मेरी पहले से ही कमी रही है! कहाँ यहाँ सुरजू कौंल व जोतरमाला के प्रेम प्रसंग के बाद कत्यूरियों की एक शाखा का कनफड़ा अर्थात गुसाईं बनने के तर्क व साक्ष्यों की बात हो रही थी कहाँ हम कत्युरी काल पर उलझ गए!

१ व २ अस्कोट किला व राजा भानुराज सिंह पाल ३- सूर्यवंशी बंगारियों का ध्वज (फोटो-कुंवर यश बंगारी)

सबसे पहले हमें भीमली बाजार या भीमली गढ़ ढूंढना होगा व तत्पश्चात ताता-लुहागढ़! सच ये है कि ये दोनों ही जगह आज के परिवेश में कहाँ है किसी को जानकारी नहीं होगी ! लेकिन नागणी व खैट पर्वत शिखर के जिक्र से पता चलता है कि सुरजू कौंल वर्तमान के टिहरी गढवाल की इन शिखरों को लांघता हुआ बदरीनाथ माणा घाटी या फिर नीति घाटी पार कर द्वापा भोटन्त (तिब्बत) पहुंचा था! क्योंकि सुरजू कौंल व जोतरमाला की जागर या भड वार्ता में इस सबका जिक्र है जैसे- “तेरो होलो सुरजू बाला भिमली बजार, कनि होली कुंवर तेरी नौरंगी तिबारी” इसके बाद आगे के सन्दर्भ में नागणी को चिन्हित करते बोले इस तरह हैं- “पौंछी ग्ये सुरजू आज नागनी का सेरा, मिलिग्ये कुंवर त्वे हिमा मर्छयाण, त्वेकू कुंवर हिमा बिचौणु बिछोन्दी, नागणी का सेरा बाला चुडैण लगीं च..!”

अगले प्रसंग में आता है कि – “घोड़ी का सवार पौंछी ऊँचा खैटाखाला, धारम बैठिकी तिन आसण बिछाए! खैटखाल रैंदी बाला खैटा की आंछरी!”

इन प्रसंगों से साफ़ जाहिर होता है कि तब तिब्बत के लिए मार्ग नागणी-खैटपर्वत होकर जाता था! क्योंकि इन दोनों पडावों पर सुरजू कौंल नौ दिन नौ रात रहा! इससे साफ़ विधित होता है कि सिर्फ जीतू बगड्वाल के साथ ही खैट की आँछरियों के सम्बन्ध नहीं रहे बल्कि सुरजू कौंल का भी इन आँछरियों ने जमकर दोहन किया! वो तो शुक्र है कि बाबा गोरखनाथ से दीक्षा लेकर सुरजू कौंल जोतरमाला से मिलने हुणियों के देश भोटन्त के ताता-लुहागढ़ पूरी तैयारी के साथ गया था व उसके पास लोकतत्व के रूप में तांत्रिक विद्याओं का भंडार मौजूद था जिसमें सांवर की विद्या, बोक्साड़ी विद्या, पंजाबी चुग्टी, हाथ ताळ छुरी, खुरासानी चीरा, फटिक मुंद्रा, खरवा की झोली, तेजमली सोटा, नौपुरी को बांस, बागमरी आसन, कानू को मन्तर, काळी को ज्वाप, हैंसदा ज्यूँदाल, अमृत की तुम्बीपांसा इत्यादि मौजूद थे जिन्होंने पूरे सफर में उसकी रक्षा की!

सुरजू कुंवर भिमली बजार का राजा कहा गया है! यहाँ यह बात समझ नहीं आ रही है कि यह भिमली बजार आखिर हुआ कहाँ? क्या भड गाथा जिस मार्ग से सुरजू कुंवर के जाने की बात कर रही है वह सही है क्योंकि नागणी उत्तरकाशी व टिहरी जनपद की सीमारेखा पर है! उसके बाद सुरजू कौंल खैट पर्वत पहुंचता है! नागिणी सेरा के साथ 1600 नागों का वर्णन है- “भरती सिभार जौंका चीणा सी मुखड़ा, नागणी का सेरा होला सोलह सौ नाग!”

अब नागों का क्षेत्र तो सेम-मुखेम माना जाता है जो नागनी-चिन्यालीसौड से होकर रास्ता पहुँचता है! क्या यहीं से खैट पर्वत पार कर नीति घाटी होकर सुरजू ने अपना सफर जारी रखा? संक्षिप्त में सुरजू कौंल व जोतरमाला की प्रेम गाथा आपको बताये देता हूँ-“ नागवंशी सुरजू कौंल को एक रात स्वप्न होता है! स्वप्न भी इतना लम्बा की वह नौ दिन नौ रात तक स्वप्न में ही रहता है! उसकी माँ व बहन परेशान हैं कि वह अभी तक जगा क्यों नहीं! सपने में सुरजू कौंल ताता लूहागढ़ अर्थात तिब्बत के द्वापा क्षेत्र के एक किले में रानी जोतर माला को देखता है! जिसका रंग कमल के फूल सा है! जिसके सुतरी पलंग पर झालर लगी है! जिसकी कवासूरी सेज पर लगे घंटे भविष्यवाणी करते हैं! जिसका हृदय सूरज की तरह चमकने वाला है! उसकी पीठ चन्द्रमा सी है व कमर स्थानीय कीट कुंमाली की तरह है! जिसके वेणी (चोटी) पर्वत पर विचरण करने वाली काली लम्बी नागिन सी, मांग गंगा जी की फाट की तरह है! नाक मानो तलवार की धार हो, होंठ दाड़िम के फूल जैसे सुर्ख, दांत जाई की कली जैसे सफेद और शरीर का रंग उसके अंग अंग से प्रस्फुटित होता है! उसका तकिया सोने का है!

१- विभिन्न राज ध्वजों के साथ लेखक २- सेनापति पुरिया नैथानी के वंशज निर्मल नैथानी, पुराना दरबार टिहरी के कुंवर भवानी सिंह व लेखक मनोज इष्टवाल

जोतरमाला सपने में ही सुरजू कौंल को उलाहना देती है कि “हे सुरजू कौंल अगर तू सच्चा सिंघणी का पूत है तो मेरे ताता-लुहागढ आना और अगर सियारनी का है तो मत आना!” जोतरमाला की इस उलाहना को सुनते ही वह चौंककर खड़ा होता है! नौ दिन नौ रात सपने के वशीभूत होकर सोचता रहता है कि नौ लाख कैंतुराओं के राज्य में भगवान भास्कर उदय होते हैं! झिलमिलाती धूप आती है! सुरजू कौंल की माँ पुकारती है- मेरे नागवंशी सुरीज तुम जागृत हो जाओ! तुम्हारे सोने से कैंतुरी सभा सुन्न हो गयी है! तेरी माँ जिया ब्वे नागीण तुझे पुकारती है! तुम राज दरबार क्यों नहीं आते! तुम पंक्ति में बैठकर क्यों नहीं खाते! बेटा नौ दिन हो गए हैं मैंने तुम्हे देखा नहीं है! तेरे बिना भिमली बाजार सुन्न पड़ा है ! तेरी बहन सुर्जी तुझे पुकारती है! आज यह कैसी नींद पड़ी है तुझे..तू उठता क्यों नहीं?

अब सुरजू कौंल जागृत होकर अपने किले की नौ रंगी तिबारी में आ पहुँचता है! अपनी माँ को सपने की बात कहता है कि “रांड की जोतरा देंद जन्मों की बोली, सिंघणी कु व्हेलो ऐलू ताता-लूहागढ़! स्याळणी कु व्हेलो रैल्यो भिमली बाजार!” तीरिया (त्रिया) को जांचनों मीकु मोरणु व्हेग्ये!  भौं कुछ व्हे जैन मिन जाणा लूहा गढ़!”

माँ सुरजू कौंल को बहुत समझाती है कि तेरे दादा, पिता व भाई बरमी कौंल भी उसके बहकावे में आ गए थे लेकिन वहां से वापस नहीं लौटे! तू मेरा इकलौता पुत्र है तू भी चला जाएगा तो यह राजपाट सूना हो जाएगा! तेरी तीलू बाखरी भी छींक रही है! बहन व माँ के मनाने के बाबजूद भी क्षत्राणी पुत्र भला कहाँ रुकने वाला था! क्योंकि जोतरमाला ने उसे सपने में सियार का पुत्र या सिंघणी का पुत्र संबोधन जो दे दिया था! थक हारकर माँ उसे कहती है कि ठीक है जब तेरी जिद ही है तो सीधे जाने की जगह गुरु गोरखनाथ का आशीर्वाद ले ले! तब सुरजू कौंल गुरु गोरखनाथ के पास जाता है! गुरु गोरखनाथ भी सुरजू कौंल को बहुत समझाते हैं लेकिन वह किसी की नहीं सुनता आखिर गुरु गोरख

नाथ उसके कान फड़वा देता है व उसके बाल मुंडवा देता है! जिसका वर्णन कुछ ऐसा मिलता है:-

नौ दिन नौ राति सुरजू रैगे गोरख का पास! धूनी लगौन्द चेला आसण बिछोन्द!

गाड़ याली गोरख तिन हाथ ताळ छुरी! ताळ-छुरी गाडी तैकी मुंडली मुंडयाली!!

रूप सी कन्दूड्यूँ धनि खुरसानी चीरा! पैरेने सुरीज त्वेथैं फटीक मूंदडा!

सुफेद कपडयूँ तीन भगोया चैर्याली! पैर्याली गुरुल त्वे भागोया मुंडासी!!

कांधूं म धैर्याली त्यारा खरवा की झोळी! एक हाथ देई त्वेई तेजमली सोटा!

दूजा हाथ देई तेरा नौपुरी को बांस!धैर्याली बगल म तिन बघमरी आसण!!

त्वीकू दियालू बाला काना कु मन्तर! बोक्साड़ी जाप देई, कांवर की धूल!

सांवर की विद्या देई पंजाबी चुंगटी! विपदा पडली तब मीकु याद करी!!

सुरजू कौंल अब पूरी तरह कनफड़ा जोगी बन गया था! खैट पर्वत होकर वह हुणीयों के देश पहुंचा! वहां से बिषैली पर्वत शिखर, इससे बचने के लिए गुरु गोरखनाथ ने संजीवनी विद्या दी! जहाँ से होकर सुरजू कौंल भोटन्त पहुंचा! और नौ दिन नौ रात पांसा खेलकर आखिर जोतरमाला को जीत लिया!

जिस मार्ग को सुरजू कौंल ने उस काल में चुना वह उन आम लोगों की समझ से परे है जिन्होंने हिमालयी भू-भागों का सफर न किया हो! लेकिन यह भी तय है कि हर काल में यहाँ का मार्ग बदलता रहा है! अठारहवीं सदी का ढाकर मार्ग अलग था तो अब सडक मार्ग अलग है! उससे पूर्व भी कुछ ऐसा ही रहा होगा! क्या तब हवा के बेग में उड़ने वाले घोड़े रहे होंगे? यह कल्पना करनी चाहिए क्योंकि हमने कहानियों में कई घोड़ों के पंख देखे! लेकिन जिस यात्रा मार्ग से सुरजू कौंल ने यात्रा की वह नागणी-खैट-हूणियों का देश अर्थात भोटिया जाति क्षेत्र बदरीनाथ नीति-माणा घाटी व बिषैला पर्वत अर्थात काला पर्वत व संजीवनी पहाड़ अर्थात द्रोणागिरी पहाड़ लांघकर तिब्बत जाना हुआ!

अब आप कहेंगे की वह नीति जाने की जगह द्रोणागिरी क्यों गया होगा तो आपको बता दूँ कि द्रोणागिरी यात्रा के दौरान ही मुझे ज्ञात हुआ कि यहाँ से तिब्बत जाने का पूर्व काल में कोई रास्ता रहा होगा क्योंकि वहां की पर्वत शिखर पर तिब्बती भाषा में कुछ अभिलेख गुदे हुए हैं जिन पर मैंने द्रोणागिरी निवासी व अपर कमिश्नर गढवाल मंडल हरक सिंह रावत जी से भी चर्चा की थी! द्रोणागिरी के ग्रामीणों का भी मानना है कि यहाँ से पहले भोटन्त देश को यात्रा मार्ग जाता था!

अब आते हैं भिमली बजार पर…! यह स्थान चिन्हित करना जरा कठिन है लेकिन कैंतुरा जाति नागवंशी है यह हम सब इसलिए जानते हैं कि टिहरी गढ़वाल का घुत्तु-घनशाली हिंदाव क्षेत्र नागवंशियों का ही रहा है व पट्टी हिंदाव में ही सबसे ज्यादा कैंतुरा जाति के लोग निवास करते हैं जिन्होंने अभी तक अपनी जाति पुरातन काल से ज्यों की त्यों रखी है! इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि हिंदाव के कैंतुरा ही नौ लाख कत्यूरियों की एक राजसी शाखा रही है जिसके बरमी कौंल व सुरजू कौंल जन्मदाता रहे हों! यहीं कहीं भिमली बाजार रहा होगा जिसे चिन्हित करना शोध का बिषय है!

यहाँ सोच का बिषय यह है कि कत्युरी काल के राजाओं में सर्व विधित शालिवाहन के वंशजों में आसंतीदेव-बासंती देव ने अपनी राजधानी जोशीमठ बनायी फिर सुरजू कौंल कैसे हिंदाव आ बसे! लेकिन हम भूल जाते हैं कि एक काल में नौ लाख कैंतुराओं का राज उनकी विभिन्न शाखाओं द्वारा काबुल-कंधार से लेकर पूरे हिमालयी क्षेत्र में रहा है! हो न हो इन्हीं के वंशजों में बरमी कौंल व सुरजू कौंल को हिंदाव क्षेत्र की जागीर रही होगी!

अब आते है मुख्य बिंदु पर..! कत्यूरियों की एक परम्परा रही है! जोशीमठ में कत्यूरियों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात कान छिदवाये गए! आज भी हमारे पौड़ी जनपद के बाली कंडारस्यूं व खातस्यूं तथा एनी स्थानों पर जितने भी खाती गुसाईं या कंडारी गुसाईं हैं इन्हें गोसाईं माना जाता रहा है व ये गुरु गोरखनाथ की परम्परा के शिष्य बताये जाते हैं जो कहीं न कहीं सुरजू कौंल से अपने को जोड़ते हैं! इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि गोसाईं शब्द चंद वंशी राजाओं के काल में भी व पंवार वंशी राजाओं के काल में भी प्रचलित रहा है व ये कत्युरी राजवंश की एक शाखा रही है! कत्युरी सूर्यवंशी रहे हैं लेकिन इनके एक शाखा के ध्वज में सूर्य के साथ-साथ नाग भी विराजमान हैं जिससे जाहिर होता है कि ये सूर्यवंशी कुछ काल पश्चात नागवंशी भी कहलाये! जैसे राजा भानुप्रताप सूर्यवंशी हुए व उनके उत्तराधिकारी कनकपाल चन्द्रवंशी! हो न हो कत्युरी राजवंश में भी कोई शासक ऐसा रहा हो कि उसके पुत्र न होने अपर उसने अपनी पुत्री नागवंशियों को दे दी हो!

बहरहाल सुरजू कौंल व जोतरमाला का प्रेम प्रसंग के बाद प्रेम विवाह सुखद रहा व सुरजू कौंल के साथ उसके भाई बरमी कौंल जिसका स्थान ब्रह्मढुंगी बद्रीनाथ में बताया जाता है अमर रहा लेकिन यह बहुत कम गोसाईं लोग जानते होंगे कि वे कत्युरी राजवंश के हैं न कि किसी कनफड़ा जोगी की सन्तति! क्योंकि बुजुर्ग अक्सर यह प्रचार प्रसार करते दिखाई दिए हैं कि गोसाईं कनफड़ा जोगी हुआ करते थे धीरे-धीरे जहाँ बसे उस पट्टी के नाम से राजपूत हो गये जबकि यह तर्क निराधार है बल्कि यह सही कि कत्युरी राजवंश के शीर्ष सुरजू कौंल तब गोसाईं कहलाये जब उन्हें गुरु गोरखनाथ ने अपनी विद्या दी व उनके कान छेदे!

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