पलायन एक चिंतनः हिमालय दिग्दर्शन यात्रा-एक।

(विनोद मुसान की कलम से)

इस बार हिमालय को करीब से जानने की कोशिश की। जीवन की पहली लंबी और कठिन यात्रा पर डग भर लिया। मौका था पलायन एक चिंतन के संयोजन में आयोजित कमल जोशी स्मृति हिमालय दिग्दर्शन यात्रा का। इस दौरान हमने पांच दिनों में करीब 75 किमी ऊंचे-नीचे पर्वतों को अपने कदमों से नापा और करीब 13000 फुट की ऊंचाई को छूआ। वनस्पति विहिन पर्वत शिखरों (हाई एल्टीट्यूड) में सांस लेने में दिक्कत हुई तो कई बार कदमों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। लेकिन आंखों के सामने दमकते हिमालय ने हिमायल सी हिम्मत दी और हम डग भरते गए। इस दौरान अमेरिका में यदि वर्ल्ड ट्रेड टावर अपनी ऊंचाई को घटा-बढ़ा लेता तो हमें उसका पता भी न चलता। कारण इन पांच दिनों में हम संचार व्यवस्था से पूरी तरह कटे हुए थे।

ये एक रोमांचकारी यात्रा थी, जो व्यक्ति का खुद से परिचय कराती है। इस यात्रा का उद्देश्य तो उससे भी बड़ा था। हम नए ट्रेकिंग रूट तलाशने जा रहे थे। ताकि इस रूट से जुड़े गांवों की तस्वीर बदल सके। …और हम काफी हद तक इसमें कामयाब भी हुए। मेरा मानना है, यात्राएं तभी सफल होती हैं, जब उनका डाक्यूमेंटेशन किया जाए। ताकि दूसरे लोग भी आपकी यात्राओं का लाभ उठा सकें। इसी कड़ी में मैं अपनी छह दिवसीय यात्रा का वृतांत छह कड़ियों में प्रस्तुत करने जा रहा हूं। उम्मीद है आप लोग उत्साह बढ़ाएंगे।

पहला दिन (दिनांक 22 अक्टूबर 18)

देहरादून से देवजानी

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत दिनांक 22 अक्टूबर को सुबह साढ़े छह बजे यात्रा दल के सभी सदस्य होटल द्रोण में एकत्र हुए। यात्रा आगे बढ़े, इससे पहले सहयात्रियों का परिचय करा दूं। रतन सिंह असवाल (टीम लीडर), नेत्रपाल सिंह यादव, दलवीर सिंह रावत, अजय कुकरेती, इंद्र सिंह नेगी, विजयपाल सिंह रावत, प्रवीण कुमार भट्ट, तनुजा जोशी, सिद्धार्थ रावत, जितेश, प्रणेश असवाल, सौरभ असवाल, सुनील कंडवाल और मैं विनोद मुसान।

सात बजे मुख्यमंत्री आवास पहुंचने का कार्यक्रम था। यहां से सीएम ​त्रिवेंद्र सिंह रावत ने हरी झंडी दिखाकर यात्रा दल को रवाना किया। इससे पूर्व चाय की टेबल पर मुख्यमंत्री रावत से यात्रा क्षेत्र के बारे में लंबी बातचीत हुई। टीम लीडर रतन सिंह असवाल ने देवजनी से सर बड़ियार घाटी क्षेत्र तक की समस्याओं की ओर मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद हम टेंपो ट्रेवरल में बैठ अपने सफर की ओर बढ़ चले। मैं कुछ एक सदस्यों को छोड़ बाकी लोगों से अनजान था। सेल्फी से शुरू हुआ दोस्ती का सफर पीछे छूटते रास्ते के साथ अब आगे बढ़ रहा था।

हंसी-ठिठोली का दौर चल ही रहा था​ कि कैंपटीफॉल से कुछ आगे कांडी गांव के पास गाड़ी का टायर पंचर हो गया। हमें तो जैसे इसी का इंतजार था। कुछ देर सुस्ताने का मौका जो मिल गया। थोड़ी भूख लग आई थी तो पास की दुकान से गरमा-गरम जलेबी और पकौड़ी के साथ चाय ने जिस्म में जान घोल दी। सफर आगे बढ़ा तो हम यमुना घाटी में प्रवेश कर चुके थे।

बीती रात्रि दफ्तर से तीन बजे घर पहुंचा था। बैग तैयार करने और जरूरी सामान जुटाने में सो ही नहीं पाया था। इसलिए गाड़ी में आंख लग गई। अब डामटा में गाड़ी रूक गई थी। साथियों ने उठाया, चलो भोजन तैयार है। गरमा-गरम माछा-भात के बाद तो जैसे शरीर में नई ऊर्जा का संचार हो गया। आगे बढ़े तो देहरादून से पुरोला तक 158 किमी का सफर पूरा कर लिया। इसके बाद पुरोला से 27 किमी पक्की और 16 किमी कच्ची (बेहद खतरनाक) सड़क से गुजरते हुए हम देवजानी पहुंचने वाले थे। कच्चे रास्ते से लगती टौंस की सहायक नदी गड्डू गाड़ (कुछ लोग इसे केदार गंगा भी कहते हैं) हमारे आगे बढ़ते सफर के साथ पीछे छूट रही थी।

इस इलाके में पहली बार सड़क बनने जा रही है। इसलिए रास्ते के दाएं-बाएं बच्चे गाड़ी को देखकर ऐसे भाग रहे थे, जैसे कोई अद्भुत चीज देख रहे हों। कोई दोराय नहीं है कि इनमें से कुछ बच्चों ने पहली बार गाड़ी देखी हो। गांव की सीमा में घुसने से पूर्व अंधेरा हो चला था। लेकिन इधर ग्रामीणों को हमारे आने की सूचना मिली और उधर ढोल-ढमाऊ, मशकबीन और कांसे की थाली की आवाज हमारे कानों तक पहुंची। ये पारंपरिक रूप से हमारे स्वागत की तैयारी थी।

गाड़ी से उतरते ही फूलों की मालाओं से हमारा स्वागत हुआ। इस तरह स्वागत का ये मेरा पहला अनुभव था। टॉर्च की रोशनी में हमें उस घर तक ले जाया गया, जहां हम रात गुजारने वाले थे। ये एक लकड़ी से बना भव्य घर था। कैल और देवदार की लकड़ी की सुगंध नथूनों से होते हुए सीधे दिमाग के तार खोल रही थी। लकड़ी के फर्श पर बिछी हाथों से बुनी सुंदर कालीन माहौल में चार-चांद लगा रही थी। ये घर परस राम पंवार का था। लेकिन मेजबानी में जैसे पूरा गांव उमड़ा था। पूर्व प्रधान सुवेंद्र सिंह चौहान, सूरज चौहान, अनील पंवार आदि लोगों ने व्यवस्थाएं संभाल रखी थीं।

गांव में बिजली थी, लेकिन उसकी रोशनी मध्यम जीरो वाट के जैसी ही थी। अब हम संचार व्यवस्था से भी कट चुके थे। हमारे मोबाइल फोन सिर्फ टॉर्च और फोटो खींचने के उपकरण मात्र बनकर रह गए थे। अब रात्रि भोजन की बारी थी। सभी सदस्यों को बाहर खुले बरामदे में बैठाया गया, जहां विशुद्ध पारंपरिक भोजन परोसा गया। कुछ देर इधर-उधर की…. और नींद आंखों में तैरने लगी। इसके बाद हम सो गए।
जारी….

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