13 बर्ष की यातना सहकर आखिर मर ही गया वह पत्रकार..!

(मनोज इष्टवाल)
हिन्दुस्तान का पत्रकार जिसे उन 400 लोगों के साथ एचटी ग्रुप ने 13 साल पहले बेवजह बाहर का रास्ता दिखा दिया था आखिर करप्ट सिस्टम के विरुद्ध 13 साल तक एचटी के कार्यालय के बाहर धरने पर अकेले ही जूझता यह शख्स दम तोड़ ही गया! हिमाचल प्रदेश के रविन्द्र ठाकुर ये मौत उस पत्रकारिता की मौत है जिसने बाजारवाद को जन्म देकर पत्रकारिता के शीर्ष पर पहुंचे उन व्यक्तित्वों के मुंह पर कालिख पोती है जिनके पास बेवजह के मुद्दों पर होहल्ला करने का समय तो है लेकिन मीडियाकर्मी के साथ सच के साथ खड़े होने का वक्त नहीं है.

रविन्द्र ठाकुर अकेले ही 13 बर्षों तक कभी भूखे पेट तो कभी आधे पेट एचटी मुख्यालय के बाहर धरना देते रहे आवाज बुलंद करते रहे लेकिन उन जैसे गरीब पत्रकार को देखने भर की फुर्सत इन 13 बर्षों में उन्हीं सहपाठियों को नहीं थी जिनके साथ उन्होंने उसी कार्यालय में जाने कितने बसंत व्यतीत किये होंगे!
सिस्टम से अकेले ही लड़ते रविन्द्र ने कोर्ट, कचहरी, सम्बन्धित मंत्रालय, पुलिस , सत्ता, मीडिया हर जगह दस्तक दी लेकिन हासिल पाया जीरो! पूरे तंत्र से उन्हें सिर्फ और सिर्फ दुत्कार ही मिली उसी तंत्र का हिस्सा हर वाकह मीडियाकर्मी है जो आज चरम पर है लेकिन करम गति का खोटा सिक्का ही कहा जाएगा. पूरा दिल्ली मीडिया क्रीम के नाम से जाना जाता है लेकिन ऐसे मुद्दों पर जाने मीडियाकर्मी व मीडिया संगठन कहाँ चले जाते हैं!
दस्तक के दीपक बेंजवाल ने यकीनन अपनी संवेदना में वह रोष प्रकट किया जो प्रश्न बनकर सभी मीडियाकर्मियों को गाली देता सा प्रतीत होता है. उन्होंने लिखा ” इस मौत पर मत देना श्रधान्जली”? अपने आप में वर्तमान समस्त सिस्टम पर अंगुली ही नहीं उठाता बल्कि जोर का तमाचा भी मारेगा!
रविन्द्र की मौत पर अनुसूया प्रसाद काला कहते हैं- “कभी इन चौथे स्तम्भ ने इस बेबस पत्रकार के लिये आवाज उठाई हो कम से कम मैने तो नहीं सुना दिल्ली में इसी के इर्द गिर्द घूमने वाले बडे बडे कैमरे लिये वह रवीश,प्रसून, जी न्यूज,दुवा,न जाने कितने है जो अपने आप को सब से अच्छा समाचार दृष्टा कहते है? इस पत्रकार पर नजर गई भी है तो समाचार क्यों बनता? इससे इनको पैसे थोडे ही मिलते। तेरह साल…..। कोई कम नहीं होते। न्याय कहाँ से मिलता।उसके पास पैसे नहीं थे।बिना पैसे न्याय मिल जाये। यह तो सम्भव नहीं है। फिर ठीक ही हुआ वै अलविदा कह गये।”
वहीँ वरिष्ट पत्रकार रमेश पहाड़ी लिखते हैं-“यह एक पत्रकार की नहीं, पत्रकारिता की मौत के रूप में देखने का आग्रह मैं करना चाहता हूँ। धनपतियों ने पत्रकारों को सम्मानपूर्वक जिंदा न रहने देने का अभियान चला रखा है। वे अपने लाभ के लिए अपने संवाददाताओं को अपना मानने के लिए तैयार नहीं हैं और पत्रकार भी बेरोजगारी, भुखमरी के मारे उनकी शर्तें मानने को विवश हैं। यह अलग बात है कि कुछ पत्रकार साथी इस स्थिति में अपना हित साध ले रहे हैं लेकिन सबके लिए इंसाफ माँगने का दावा करने वाला पत्रकार अपने लिए न्याय माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। पत्रकार संगठन भी वर्चस्व की लड़ाई में उलझे हैं तो यही परिणाम मिलेगा।”
वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र रावत खिन्न मन से लिखते हैं-“संसद के ५०० मीटर पर चौथे स्तम्भ की दर्दनाक माैत……..पूंजीपति सत्ता के दलालाें के गठजोड़ का फल……!”
यकीनन यह व्यक्ति लेटा नहीं है बल्कि मौत के आईने में सोया वह व्यक्तित्व है जो एचटी ग्रुप के लिए ही नहीं अपितु समस्त पत्रकारिता के लिए ऐसा तमाचा है जिसकी आवाज नहीं आती लेकिन दिल को तार-तार कर देती है. रविन्द्र ठाकुर आप जैसे न बिकने वाले लोग अब कम ही हैं पत्रकारिता जगत में! जो बिक गए धनाढ्य जरुर हुए लेकिन तुमने अपने जमीर को नहीं बिकने दिया और संघर्ष की परिभाषा साबित कर दी भले ही वह नाकाम रही! यकीनन तुम्हारी मौत की खबर सुनकर एचटी के मालिक रात भर करवट बदलते रहे होंगे! श्रधान्जली!
 

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