107 साल पुराना है गढ़वाली रंगमंच, 40 साल पुराना है उत्तराखंडी सिनेमा…!

(मनोज इष्टवाल)


ऋतुओं के बदलाव रहे हों या फिर खेतों का हल जोत, फसल कटाई बुवाई, विवाह, उत्सव,जन्म संस्कार, त्यौहार,मेला, मौसम परिवर्तन, स्वांग, बन्यास,कौथिग, थौळ इत्यादि उत्तराखंडी लोक में प्रचलित गीत जिन्हें हम लोकगीत के नाम से जानते हैं व् उनके साथ किये जाने वाले लोकनृत्यों की विविधताएं हजारों साल पुरानी मानी जाती हैं। भले ही राजशाही के दौर में यह विद्या पातरोँ (आधुनिक में वेश्याओं/या इस से सम्बंधित लोकलुभावन अंग प्रदर्शनों) के द्वारा राज महलों में प्रचलित नृत्य रहे हों। लेकिन ठेठ इसके उलट विवाह समारोहों में बादी जाति व् आवजी जाति का चैतवाली गायन नृत्य प्रसिद्ध रहा है। जिनमे लांग व् स्वांग दोनों ही महत्वपूर्ण रहे। लेकिन ग्रामीण परिवेश में सामूहिक लोकगीत लोकनृत्यों का प्रचलन कालान्तर से वर्तमान परिवेश तक यथावत चलता आ रहा है जबकि पातर स्वांग इत्यादि समाप्ति पर है और इसमें शक नहीं कि लोकगीतों व् लोकनृत्यों पर भी इस काल में खतरा मंडरा रहा है।


हाल ही में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा उत्तराखण्ड फिल्म विकास परिषद् का गठन किया गया लेकिन हैरत इस बात की है कि इस परिषद् ने एक भी ऐसा नाम परिषद् के सदस्यों में नहीं जोड़ा जिनका प्रोफ़ाइल यह साबित कर सके कि उन्होंने नाटक विधाओं पर या रुपहले परदे पर ऐसा कोई कार्य किया हो जिसे सराहना मिल सके। आश्चर्य तो तब होता है जब 107 साल से लगातार रंगमंचीय परंपरा को जीवित रखने वाला एक भी रंगकर्मी इसमें शामिल नहीं है और न ही 40 साल पुराने फिल्म बैनरों का कोई व्यक्तित्व ही इस परिषद् का सम्मानित सदस्य घोषित हुआ है।


गवाई रामलीला, कृष्ण लीला, हरीश चन्द्र तारामती, रूप- बसन्त, अभिमंयुं चरित्र, भक्त प्रहलाद सहित अनेकोनेक नाटक गढ़वाली में पूर्व से मंचित किये गए लेकिन ऐतिहासिक खोजों के दौर की अगर देखा जाय तो सर्वप्रथम ग्राम -खैड (मवालस्यु) पौड़ी गढ़वाल में जन्मे भवानी दत्त थपलियाल द्धारा लिखित या रचित नाटक “जय विजय” का मंचन सन 1911 में किया गया। जो लगातार कई बर्षों तक होता रहा । फिर उन्होंने सन 1938 में प्रह्लाद नाटक लिखा। गढ़वाली बोली में लिखे जाने वाले ब्रिटिश काल के नाटकों की यह प्रथम कड़ी थी इसी दौर में इनके द्वारा ढोल सागर भी लिखा गया। जबकि 1932 में बिशम्बर दत्त उनियाल द्वारा गढ़वाली नाटक ” बसंती” 1934 में ईश्वरी दत्त सुयाल द्वारा “परिवर्तन” 1936 में बाणीभूषण का ” प्रेम-सुमन” इत्यादि नाटकों का दौर शुरू हुआ जो देश भर के विभिन्न मंचों में गढ़वाली समुदाय के रंगमंचीय कलाकारों द्वारा प्रदर्शित किए गए। लेकिन भवानी दत्त थपलियाल के बाद प्रोफेसर पांथरी का नाटक ” भूतों की खोह” तथा “अंध:पतन” नाटक भी उल्लेख में आये। 

खाडू लापता नाट्य मंचन!


फिर तो जैसे नाटकों का स्वर्णिम दौर शुरू हुआ हो। कवि एवं अभिनेता जीत सिंह नेगी के नाटक ” भारी भूल” तथा “मलेथा की गूल” दिनेश पहाड़ी का “जुन्याली रात” केशव ध्यानी का “भोलू सौकार”, गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल का ” इन नि चैन्द”, मोहन थपलियाल का “खाड़ू लापता”, मदन मोहन का “पुरिया नैथानी”, अबोधबंधू बहुगुणा का ” माई का लाल” तथा “अंतिम गढ़”, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश का एकांकी नाटक “नौबत” डॉ. गोबिंद चातक का एकांकी संग्रह ” जंगली फूल” गोबिंद राम पोखरियाल का “बंटवारों” बद्रीश पोखरियाल की नृत्य नाटिका ” शकुंतला” इत्यादि का मंचन मुम्बई, दिल्ली, लखनऊ, राजस्थान के विभिन्न शहरो, मेरठ, चंडीगढ़, पौड़ी देहरादून कोटद्वार सहित देश के कई बड़े महानगरों में होता रहा। फिर नये दौर में जीत सिंह नेगी का ” वीरवधु देवकी”, “खैट की आंछरी” सहित कन्हैया लाल डंडरियाल, विश्व मोहन बडोला, राजेंद्र धस्माना, स्वरुप ढौण्डियाल, रामेश्वर गौड़, दिनेश पहाड़ी इत्यादि के नाम चर्चित रहे । 1986 में बद्रीश पोखरियाल द्वारा रचित नृत्य नाटिका का मनोज इष्टवाल द्वारा सफल निर्देशन किया गया जिसका मंचन दिल्ली में करने के पश्चात् ” शकुंतला नृत्य नाटिका” नाम से इसका प्रसारण लखनऊ दूरदर्शन से भी किया गया।
इनमें ऐसे कई और नाम भी हैं जो पिछली सदी के नाटककारों में शामिल रहे हैं। हाल के ही दिनों में पर्वतीय नाटय मंच की टीम सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलदेव राणा के निर्देशन में माधौ सिंह भंडारी की 424वीं जयंती पर उनके गाँव मलेथा में इसका ऐतिहासिक प्रदर्शन कर चुकी है! यह बड़ी बात है कि पर्वतीय नाट्य मंच की टीम विगत कई बर्षों से इसका लगातार बड़े मंचों पर प्रदर्शन करती आ रही है!


सन 1978 में गढ़वाली सिनेमा का स्वर्णिम दौर लौटा । विकास खंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल के मिरचोड़ा गॉव निवासी पारासर गौड़ द्वारा ” जग्वाल” नामक फिल्म को रुपहले परदे पर लाया गया। और इसी फिल्म के माध्यम से वे गढ़वाली ही नहीं बल्कि उत्तराखण्डी सिनेमा के पितामह कहलाये। यह फिल्म सुपरहिट हुई। फिर जैसे गढ़वाली फिल्मों के निर्माण की बाढ़ आई हो एक के बाद एक फिल्म बननी शुरू हुई जिनमे “कवि सुख कवि दुःख”, कौथिग, उदन्कार, प्यारु रुमाल, बेटी-ब्वारी, घरजवैं, फ्योंली, बंटवारु, रैबार, बिरणी बेटी, सात फेरु, आस, मेघा, ब्वारी होत इनी, सतमंगल्या, गढ़ रामी बौराणी,तेरी सौं इत्यादि परदे की व् दर्जन भर वीडिओ फिल्मों का पिछली सदी में निर्माण हुआ जिनमे तरुण धस्माना द्वारा साहसिक कदम उठाकर गढ़वाली पटकथा का हिंदी रूपांतर कर हिंदी फिल्म “हिमालय के आँचल में” बनाई जिसकी पटकथा गढ़-कुमाऊँ को जोड़ती नजर आई। लगभग डेढ़ दर्जन से ज्यादा फिल्में आज भी डिब्बा बंद है क्योंकि धीरे धीरे गढ़वाली सिनेमा से यहाँ के जनमानस का मोह भंग होने लगा।


फिर कई बर्षों की शान्ति के बाद अनुज जोशी द्वारा साहसिक कदम उठाकर उत्तराखण्ड आंदोलन का बिषय उठाकर फिल्म “तेरी सौं” बनाई गयी जो इस सदी की ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद की पहली फिल्म हुई। तब से अब तक यह दौर बेहद धीमा था लेकिन विगत दो बर्षों से फिर इसमें तेजी आई है!

जून 2017 में पटकथा लेखक व निर्देशक नरेश खन्ना की पत्नी निर्मात्री सरोज खन्ना अपने पहाड़ प्रेम को भूल नहीं पाई व अपने निर्देशक पति नरेश खन्ना के निर्देशक में “भूली ए भुली” नामक गढवाली फिल्म का निर्माण ऐसे दौर में कर डाला जब मल्टीप्लेक्स पर भी बड़े बड़े हॉलीवुड बॉलीवुड कलाकारों की फ़िल्में देखने के लिए लोग घरों से निकलना पसंद नहीं कर रहे थे! बहुत सुंदर फिल्म का यह हश्र हुआ कि उसकी मार्केटिंग ढंग से न हो पाने के कारण निर्देशक नरेश खन्ना को लाखों का नुक्सान उठाना पडा और इसी सब के चलते सदमें में आने के कारण व स्वस्थ खराब होने के कारण ऐसा बताया जाता है कि वे इसी कारण असमय स्वर्ग सिधार गए!

हाल ही में सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री उर्मी नेगी की फिल्म “सुबेरो घाम” गढवाली सिनेमा की ऐसी पहली फिल्म साबित हुए जिसने बॉक्स ऑफिस में सिर्फ अपनी निर्माण लागत वसूल की बल्कि लाभ भी कमाया! बतौर पटकथा लेखक, अभिनेत्री व निर्माता निर्देशक उर्मी नेगी की माने तो वह कहती हैं अब तक उन्होंने जितनी भी गढ़वाल से जुडी पटकथाएं लिखी या काम किया उसकी लागत वह इसी सिनेमा से वसूलने में कामयाब रही हैं! वह गढ़वाली फिल्मों के निर्माता और निर्देशकों के लिए एक सबक बन सकती हैं क्योंकि जब तक निर्माता निर्देशक के पास सशख्त पटकथा व अभिनय क्षमता के अलावा फिल्मांगन अच्छा नहीं होगा तब तक हमारी भाषाई फ़िल्में देखने के लिए दर्शक हाल तक नहीं पहुंचेगा! फिल्म अभिनेत्री उर्मी नेगी गढ़वाली सिनेमा के बाजार में साकारात्मकता से आगे बढ़ रही हैं क्योंकि “सुबेरो घाम” की सफलता के बाद आजकल वह उसका सीक्वल बनाने में एड़ी चोटी का जोर लगा रही हैं! “सुबेरो घाम पार्ट -2 के नाम से बनने वाली फिल्म “बथौंs” की वह न सिर्फ गीतों की रिकॉर्डिंग कर चुकी हैं बल्कि उसकी लोकेशन भी देख आई हैं! वहीँ बर्षों कन्यादान जैसी सशक्त पटकथा की वीडियो फिल्म का निर्माण करने वाला पटकथा लेखक, फिल्म निर्माता व निर्देशक देबू रावत अब इस फिल्म को बड़े परदे पर लाने का विचार कर रहे हैं!

मनोज चंदोला द्वारा निर्देशित कुमाउनी फिल्म “राजुला” ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्राप्त किया है ऐसा बताया जाता है! इस फिल्म ने कितना व्यवसाय किया व निर्माता इसकी बाजार से लागत वसूल भी कर पाए कि नहीं इस सम्बन्ध में जानकारी अभी तक उपलब्ध नहीं हो पायी है! हाल ही के महीनों में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के उपन्यास “मेजर निराला” पर केन्द्रित फिल्म “मेजर निराला” का निर्माण उनकी पुत्री आयुषी पोखरियाल द्वारा किया गया जिसका निर्देशन गणेश वीरान द्वारा किया गया! फिल्म देश के विभिन्न हिस्सों में लगी लेकिन वह क्या कारोबार कर पाई इसकी भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो पाई है!

अब जबकि उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद् का गठन हो गया है व पिछली हरीश रावत सरकार में वह अपना कार्यकाल भी पूरा कर चुकी है लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि एक तरफ वर्तमान में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत एक ओर पूरे प्रदेश को फिल्म सिटी में तब्दील करने के लिए रोज नई घोषणाएं कर रहे हैं लेकिन सरकार बनते ही भंग की गयी उत्तराखंड फिल्म विकास परिषद् का अभी तक गठन नहीं कर पाए हैं! यहाँ सरकार किस मंसा से काम कर रही है यह कहना जरा मुश्किल सा है लेकिन यह तय है कि विगत दो तीन बर्षों में चाहे वह गीतों पर काम हुआ हो या नाटय मंचों व शोर्ट फिल्म स्क्रिप्टिंग पर उत्तराखंड के परिवेश में विजुअलाजेशन वर्क पर अच्छा काम हुआ है!

2 thoughts on “107 साल पुराना है गढ़वाली रंगमंच, 40 साल पुराना है उत्तराखंडी सिनेमा…!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *