२० रूपये फ़ीस ने बदली जिंदगी, आज बने हैं बेसहारों की ‘आस’, बंजर भूमि में भागीरथ प्रयास से उगाया हरा सोना।

२० रूपये फ़ीस ने बदली जिंदगी, आज बने हैं बेसहारों की ‘आस’, बंजर भूमि में भागीरथ प्रयास से उगाया हरा सोना।
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान।
— लीजिये इस बार ग्राउंड जीरो से आपका परिचय कराते हैं। बाबा केदार की घाटी के नरेंद्र प्रसाद गोस्वामी जैसे कर्मयोगी शिक्षक से जिनके भागीरथ प्रयास आज हर किसी के लिए एक मिशाल है।
रुद्रप्रयाग जनपद में बाबा केदार की घाटी के अगस्त्यमुनि ब्लाक में हाट गांव के श्रीमती सावित्री देवी और रामधन गोस्वामी जी के घर १० जून १९७२ को एक बालक ने जन्म लिया। माता पिता ने अपने इस बालक का नाम नरेंद्र रखा। माता पिता को विश्वास था की उनका ये बालक जरुर लोक में उनका नाम रोशन करेगा। नरेंद्र बचपन से ही मेधावी थे। लेकिन उनके परिवार की स्थिति बेहद ही चिंताजनक थी। पिताजी खेती बाड़ी तक ही सिमित थे। इसलिए घर का खर्चा चलाना बेहद मुश्किल हो जाता था। बस किसी तरह से इनके परिवार का गुजारा हो जाता था। कभी कोई समस्या खड़ी हो जाती तो एक एक रुपया जुटाना बेहद मुश्किल हो जाता। जैसे तैसे करके नरेंद्र ने प्राथमिक की शिक्षा अपने हाट गांव से पूरी की। जब नरेंद्र कक्षा ५ वीं में थे तो स्कूल की फीस के लिए उनके पास २० रूपये नहीं हो सके। नरेंद्र ने फीस के संदर्भ में जब अपने पिताजी और माँ से बात की तो उनकी बेबसी और लाचारी ने सब कुछ बयाँ कर दिया।

आखिर वो भी फीस का बन्दोबस्त कहाँ से करते थे। क्योंकि आमदानी का उनके पास कोई भी जरिया नहीं था। काफी दिनों तक फीस जमा नहीं करने के बाद स्कूल से नाम काटने का फरमान दे दिया गया। थक हारकर नरेंद्र ने बड़ी मुश्किल से फीस का बंदोबस्त किया। और फ़ीस स्कूल में जमा कराई। फीस जमा करने के बाद नरेंद्र जब स्कूल से घर आ रहे थे तो स्कूल के पास एक पत्थर पर बैठ कर अकेले अकेले रोने लगे। उन्होंने सोचा जब मेरे माता पिताजी मेरे लिए फीस के २० रुपयों की ब्यवस्था नहीं कर पाये तो उन बच्चों का क्या हाल होता होगा जिनके न तो पिताजी और न ही माँ होती है।और वो इस दुनिया में अकेले ही जीवन यापन करतें होंगे। कई बार घर की माली हालत को देखते हुये नरेंद्र ने आगे नहीं पढने का फैसला किया। परन्तु हर बार यही सोचकर आगे पढाई जारी रखी की यदि में नहीं पढूंगा तो घर कैसा चलेगा। साथ ही नरेंद्र ने फीस जमा करते वक्त अपने मन में ठान लिया था की भविष्य में चाहे वो जहां भी रहेंगे लेकिन बेसहारा बच्चों के लिए जरुर कुछ करेंगे। ताकि उन्हें भी मेरी तरह से फीस के लिए न भटकना पड़े। मैं अपनी आमदानी का कुछ हिस्सा बेसहारा लोगों के भविष्य के लिए जमा करूँगा। नरेंद्र ने ५ वीं के बाद १० वीं की शिक्षा चंद्रापुरी से और १२ वीं और स्नातक की शिक्षा अगस्त्यमुनि से ग्रहण की। १२ वीं की पढाई के दौरान नरेंद्र ने जीवन का वो संघर्ष देखा।
जिसको सुनने के बाद तो हर किसी की आँखे खुद ही आंसुओं से भर जायेगी। इस दौरान कभी किताब नहीं थी। तो कभी कॉपी, कभी स्कुल की फीस समय पर नहीं दे पाते थे। तो कभी बिना खाने के ही स्कूल जाना पडता था। संघर्ष के इन दिनों ने नरेंद्र को अंदर से बेहद मजबूत बना दिया था। इसी बीच नरेंद्र का चयन द्विवर्षीय बीटीसी प्रशिक्षण के लिए गौचर हेतु हो गया। आज तक तो बस जैसे तैसे पैंसों का बंदोबस्त हो गया था। अब समस्या थी की बीटीसी का खर्चा कौन देगा। ऐसे समय में नरेंद्र के रिश्तेदारों ने थोड़ी मदद की। जिसके बाद नरेंद्र ने जैसे तैसे डेढ़ साल गुजार दिया। अब प्रशिक्षण पूरा करने में केवल तीन महीने बचे थे की एक बार फिर फीस भरने के लिए पैंसों का बंदोबस्त नहीं हो पाया। नरेंद्र को कुछ समझ में नहीं आया की करूँ तो क्या करूँ। एक बार मन में आया की बीटीसी ही छोड़ दूँ लेकिन फिर सोचा की यदि इस समय बीटीसी छोड़ दी तो फिर एक साल का खर्चा कौन उठायेगा। थक हारकर नरेंद्र ने अपने रिश्तेदारों से इस संदर्भ में बात की तो उन्होंने नरेंद्र की मदद की। आज भी वो अपने इन रिश्तेदारों को नहीं भूलें हैं।जैसे तैसे नरेंद्र ने बीटीसी का कोर्स पूरा किया और बतौर शिक्षक पहली तैनाती मिली नवम्बर १९९७ में चमोली के थराली ब्लाक के डुंगरी गांव में। तैनाती के बाद अब पूरे परिवार की जिम्मेदारी नरेंद्र के कंधों पर आ गई थी। पढाई के दौरान लोगों से लिया गया कर्जा से लेकर अन्य कार्यों की देनदारी, बहिन की शादी, बीमार पिताजी के दवाइयों के इलाज सब उन पर था। जिसकों उन्होंने धीरे धीरे चुकता किया और १९९९ से उन्होंने बेसहारा बच्चों के लिए एक कोष खोला और उसे नाम दिया ‘आस’, ताकि कोई बच्चा शिक्षा से महरूम न रहे। और आज इस कोष से ५० बच्चों को छात्रवृति दी जाती है।जिससे बच्चों की पढाई बाधित नहीं होती है। १९९९ से शुरू नरेंद्र के ‘आस’ की उड़ान आज भी बदस्तूर जारी है। भले ही इसका स्वरूप बृहद न हो पर स्थानीय स्तर पर बच्चों को इसका फायदा हो रहा है।
नरेंद्र की रचनात्मक गतिविधियाँ महज नौनिहालों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने तक ही सिमित नहीं रही। बल्कि उन्होंने शिक्षक बनने के बाद एक विद्यार्थी के रूप में पेंटिंग और चित्रकारी अपने सहयोगी शिक्षक मनमोहन शर्मा से सीखा। जिसके बाद आज वो खुद ही अपने विद्यालय में पेंटिंग करतें हैं। वर्तमान में वे रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि ब्लाक के राजकीय आदर्श जूनियर हाईस्कूल पठाली में बतौर सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।

बचपन से संघर्षों ने नरेंद्र को प्रकृति के बेहद करीब ला दिया था। खासतौर पर अपनी दादी श्रीमती काली देवी के अपनत्व और जंगलों और पेड़ों के प्रति असीम प्यार ने उन्हें हमेशा सी ही प्रेरणा दी। उनकी शिक्षिका पत्नी रेखा गोस्वामी ने उन्हें हर कदम पर सहयोग किया।और कुछ अलग करने को प्रोत्साहित किया। जिसके फलस्वरूप २०१० में एक दिन उनकी नजर अपने विद्यालय के खाली पड़े बंजर भूमि पर पड़ी तो उन्होंने मन ही मन निश्चय किया की वे इस बंजर भूमि को हरा भरा करेंगे। जिसके बाद उन्होंने अपने वेतन से पेड़ ख़रीदे और बच्चों और गांव की महिला मंगल दल की महिलाओं, अपने विद्यालय परिवार के सहयोग से बंजर भूमि पर फलदार पेड़ों को लगानें का बीडा उठाया। वे हर साल श्रीदेव सुमन की पुण्य तिथि और कारगिल विजय दिवस पर विद्यालय की बंजर भूमि पर बृहद रूप में वृक्षारोपण करतें हैं। जिसकी परणीती यह हुई की आज पूरे विद्यालय परिसर में आंवला, अमरुद, आडू, से लेकर कई प्रकार के फलदार पेड़ अपनी हरियाली बिखेर रहें हैं। इसके अलवा दशकीय जनगणना २०११ में बेहतर कार्य हेतु उन्हें भारत के महारजिस्ट्रार द्वारा सम्मान पत्र और कांस्य पदक प्रदान किया गया। जबकि बेहतर शैक्षणिक कार्यो और गतिविधियों के लिए भारत के महामहिम रास्ट्रपति जी द्वारा रास्ट्रीय पुरूस्कार २०१४ से सम्मानित भी किया जा चुका है। इन्होने अपने खुद के वेतन से बच्चों के लिए सर्दियों में ठण्ड से बचने के लिए हीटर भी खरीदें हैं। जबकि रास्ट्रपति पुरूस्कार से प्राप्त धनराशी में से ३० हजार रूपये विद्यालय के लिए और २० हजार रूपये आस के लिए दिये ताकि इनसे हर किसी को फायदा मिले।
समाज के लिए मिशाल बने शिक्षक नरेंद्र प्रसाद गोस्वामी जी से हुई लम्बी गुफ्तगू पर वे कहतें हैं मेरा बचपन से लेकर सरकारी सेवा में आने तक का जीवन बेहद संघर्षमय रहा है। बस जैसे तैसे करके मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। कक्षा पांचवीं में मेरे परिवार के पास २० रूपये फीस उपलब्ध नहीं हो पाई थी। इस घटना ने मेरे जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव डाला। मैंने उसी दिन मन में सोच लिया था में जीवन में उन बच्चों की मदद करूँगा जो बेसहारा हैं। और आर्थिक रूप अपनी पढाई बीच में ही छोड़ देतें हैं। मैंने ‘आस’ नाम से एक कोष का गठन किया है। और आज मुझे बेहद ख़ुशी होती है की इस कोष के जरिये बेसहारा बच्चों को लाभ मिलता है।कहतें है की शुरू शुरू में मेरे कार्यों को लोगों ने उपहास उड़ाया, उन्हें लगता था की ये महज दिखावा है। लेकिन आज वही लोग मेरा होंसला बढातें हैं। मै चाहता हूँ की दुनिया में कोई भी बच्चा भूखा न रहे, स्कूल से महरूम न रहें। मेरी कोशिश है की आने वाली पीढ़ी को आखर का ज्ञान देने के साथ साथ कुछ अन्य चीज भी दे सकूँ जो उनके लिए जीवन में लाभदायक हो। इस पीढ़ी को संभाल रहे छात्र छात्राएं ही मेरे असली अधिकारी और जीवन की जमापूंजी हैं। विगत दिनों मेरी पढाई छात्रा अंजली राणा को पेंटिंग के लिए महामहिम रास्ट्रपति के हाथों सम्मानित होने से मुझे बेहद ख़ुशी हुई थी। वास्तव में अगर देखा जाय तो नरेंद्र प्रसाद गोस्वामी जी जैसे शिक्षक समाज एक लिए एक मिशाल है। और उन लोगों के लिए एक सीख है जो हर बात का ठीकरा सरकारी तन्त्र पर फोड़ते हैं। इनका कार्य अनुकर्णीय और प्रेरणादायक है। विरासत में मिली गरीबी और संघर्षों से नरेंद्र प्रसाद गोस्वामी जी ने कभी भी हार नहीं मानी। ‘आस’ के जरिये वो आज ५० बेसहारा बच्चों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं है। जबकि शिक्षा के मंदिर की बंजर भूमि को उन्होंने अपने भागीरथ प्रयास से फलदार पेड़ों से लकदक कर दिया है, इनके कार्यों का वर्णन करने के लिए शायद शब्द ही कम पड जाये।

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