हे भगवान…! 30 साल में कितनी बदल गयी मेरी जमीन।

हे भगवान…! 30 साल में कितनी बदल गयी मेरी जमीन।

(मनोज इष्टवाल यात्रावृत)
आज भी मुझे याद है 12 नवम्बर 1988 की वह जिंदगी की पहली फ्लाइट जब मैं दिल्ली सफदरजंग एयरपोर्ट से जौलीग्रांट हवाई अड्डे में उतरा था। तब भी में इतना ही फुकरा था आज भी शायद । क्योंकि शौक जिंदगी से जाने का नाम नहीं लेते चाहे जेब से पूरे माह का वेतन एक दिन में उड़ जाय।सच बात भी है तब लोग एक साइकिल नहीं खरीद पाते थे हवा में उड़ने वाले शायद उस दौर के मालदार गढ़वाली हुआ करते रहे होंगे।

वायुदूत से उड़ने का मेरा प्लान कुछ यूँ ही नहीं बना। तब मेरा एक दोस्त अमेरिका चला गया था नाम जगदीश शाह। साथ पढ़ते थे और दोस्त भी घनिष्ठ हुआ करते थे। जगदीश की मंगनी हुई और वह अमेरिका से दिल्ली अपनी बहन के साथ शादी की व्यवस्था के लिए लौट रहा था। उसके ससुरासी भी तब एयरपोर्ट को उतना ही विशाल आभामण्डल मानते रहे होंगे जितना मैं! इसलिए उसकी होने वाली सास ने मेरे ऑफिस के नम्बर पर फोन करके बताया कि मुझे उनके साथ एयरपोर्ट आना है क्योंकि वे इस बारे में ज्यादा कुछ नही जानते।

मेरे पैर मानों जमीन पर न हों सचमुच कमरे में जाके नाचने लगा और आंसू तक आ गए कि जगदीश से बर्षों बाद मुलाकात होगी। तब शायद भौतिक मूल्य इसलिए ज्यादा अहमियत नहीं रखते थे क्योंकि पैसा नहीं था और प्यार का छलकता समंदर। या फिर ये कहूँ तब तक दिल में एक ऐसी पवित्र आत्मा का वास था जिसे छल कपट परपंच से लेना देना नहीं था। आज सोचता हूँ क्या सचमुच उस युग ने रिश्तों में उतनी ही शुद्धता रखी थी जितना उस काल में पर्यावरण शुद्ध रहता था।
बिषय लम्बा है संक्षिप्त में लौटता हूँ। मैं लखनऊ पहुंचा तो यहां मुझे मेरी मित्र ने टोका। लेखक महाराज प्लेन में लिखने के लिए तो आपको कोई सब्जेक्ट नहीं मिला होगा?
मैं मुस्कराया और जवाब दिया- सब्जेक्ट ऐसा कि जिस पर कभी ध्यान ही नहीं गया!
अतीत की यादें ताजा हुई और मुझे जगदीश के अमेरिका से लौटने का वह दिन याद आ गया जब मैं जोर जबरदस्ती चेकइन के लिए सिक्योरिटी से उलझ पड़ा कि मेरा दोस्त आ रहा है आप जांबूझकर क्यों रोक रहे हैं। तब उन्होने कहा था यह रेलवे प्लेट फॉर्म नहीं एयरपोर्ट है। जैसी इज्जत से और बाहर अपने आने वालों का इंतजार कर रहे हैं तू भी कर। कभी प्लेन देखा भी है तूने। चला आया…!
बस बात दिल को लगी और चार महीने का वेतन इकट्ठा किया और सफदरजंग से वायू दूत की फ्लाइट पकड़ी और देहरादून आ पहुंचा। बिना किसी मकसद के ।
लेकिन तसल्ली थी व चेहरे पर स्वाभिमान भी कि मैंने प्लेन की यात्रा कर ली। तब भी मुझे खिड़की की सीट मिली थी और आज भी वही सीट। तब भी प्लेन बादलों के ऊपर से उड़कर आया और आज भी बादलों के ऊपर ही था। लेकिन तब मेरी धरती का अप्रितम श्रृंगार था। मेरा उतुंग हिमालय ऐसे दिख रहा था मानों खिलखिलाकर मुझसे बातें करने को मेरी तरफ दौड़ रहा हो। उसकी बांहें इतनी विशाल थी कि बस फैलती ही जा रही थी। मेरी धरती जब आई तो पहाड़ ऐसे लग रहे थे मानों हरे रंग में एक साथ कई रेस्ट कैम्प लगे हों। घर ऐसे टिमटिमा रहे थे मानो ट्यूब लाइट हों। और उसके गर्भ में बह रही सारी नदियां हरी भरी।
आज तीस साल बाद हिमालय तो वहीं अचल अडिग दिखा। लेकिन धुंधलका जैसे उसे निगलने चला हो। वह खिलखिला तो रहा था लेकिन उसके चेहरे की मजबूरी साफ दिख रही थी मानों उसे जकड़ लिया हो। पहाड़ आहत थे मानों उनके अंग काट दिए हैं। जो घर ट्यूबलाइट से लगते थे वे बारूद से लग रहे थे। हरियाली के जंगल कम और बंजर भूमि ज्यादा दिख रही थी। सदा वाहिनी नदियों का तेज खत्म था सिर्फ माटे की खींची हुई सफेद लकीरें ज्यादा दिख रही थी। सिर्फ गंगा की मांग में भरा सिंदूर जरूर हमारे साथ आगे तक बढ़ता चला गया। मानों माँ गंगा कह रही हो पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो चाहे सिर पर हो कितना भार।
मैं भौंचक था कि मात्र 30 साल में हमने विकास के नाम पर अपने जल जंगल जमीन और जीवन इतना कुरूप कर दिया है तो कैसा विकास। बादल तब प्यारे लगते थे लेकिन अब ये बीड़ी के धुंवें से कसैले कैसे हो गए।
ओहो यह विकास नहीं बड़ा बिनाश है जो मुझे स्वर्गलोक की ओर बढ़ते यान से दिख रहा था। क्या सचमुच पर्यावरण अपना संतुलन तेजी से खो रहा है।
यूँ तो वायुयान से कई यात्राएं इन 30 बर्षों में कर चुका हूं लेकिन खिड़की कम ही बार नसीब हुई। इस बार चिंतन के पल ज्यादा रहे और खुद से पहाड़ की खुद भी। मुझे आश्चर्य इस बात का है कि हर नौकरशाह, मंत्री,मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और योजना निर्माता आये दिन जहाजों से यात्रा करते हैं क्या कभी उन्हें इस तरह का चिंतन नहीं दिखा होगा कि हम विकास के नाम पर अपनी जमीन में क्या बो रहे हैं। क्या उन्हें आज की चिंता है भविष्य की नहीं। या फिर दूषित पर्यावरण ने हम सबकी मानसिकता ही बदल दी है। चिंतन तो करना ही होगा हम सबको इसी तरह हवा में उड़कर अपनी मातृभूमि के लिए। उसमें पल रहे हर जीव जंतु प्राणी वायु जल के लिए।

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