हिमालय का अथक पथिक "चल मेरे पिट्ठू दुनिया देखें।"
(मदन मोहन कंडवाल की कलम से)

3 जुलाई 2019 को नगर निगम सभागार देहरादून मे पद्मश्री अनिल जोशी,पुष्पेश पंत, रामचंद्र गुहा, शेखर पाठक, अशोक पाण्डे, नरेंद्र सिँह नेगी जी और कई गणमान्य अतिथियों संग आमत्रंण या बिना आमंत्रण के आये दर्शकों, पात्रों मध्य,”चल मेरे पिटठू दुनिया देखें” (ISBN 978_93_88165_43_3) का लोकार्पण हुआ। इसमें अद्भुत जिजीविषा के धनी, यायावर, छायाकारी कविमना, मानवता के अंतर मे गुमे, आत्मिक सुंदरता के पारखी, प्रकृतिसौंदर्यबोध के धनी स्वर्गीय कमल जोशी जी की पैदलयात्राओं और उनकी सतत् चेरी मोटरबाईक से की गयी यात्राओं का विशद वर्णन है। इसका तरतीब-वार संकलन, सम्पादन और प्रूफरीडिंग मल्यो की डार फेम ( समाज से बाबहस सरोकार रखती महिला समाख्या की प्रेरणास्रोत समाज सेविका और चरैवेति-चरैवेति मे गहन आस्था रखती) और लेखिका गीता गैरोला (मल्यो) जी ने किया है।
सरल , रुचिकर और आंचलिक प्लस हिंदी मे बोलचाल की भाषा मे लिखी, तीन सौ रूपये मूल्य की 275 पृष्ठ की किताब का प्रकाशन समय साक्ष्य देहरादून से 2019 मे हुआ है। पेपरबैक किताब का श्वेतश्याम आवरण जानबूझकर मल्यो की डार सा चित्ताकर्षक बनाया गया और बन भी पड़ा है, जिसमे ख्यातलब्ध छायाकार अपनी यात्रा की चेरी संग (समय की सीमाओं से स्वैच्छिक रूपेण बाहर निकलकर भी) पाठकों की स्मृतिमँजूषा मे हमेशा के लिये कैद होकर रह गये है। कमल जोशी जी को पत्र-पत्रिकाओं मे लिखते, पढ़ते देखा था पर यह गम्भीर लेखकीय रुप, गीता जी के अथक परिश्रम के कारण, उनके जाने के पश्चात ही दिख पाया है। पुस्तक की छपाई और फोंट्स पठन होने लायक हैं, जिसके लिये समय साक्ष्य (सुश्री रानू विष्ट और प्रवीण भट्ट टीम) बधाई की पात्र है। यह यात्राकथा, अजय सोडानी जी की, उत्तराखंड से संबंधित, “दर्रा- दर्रा हिमालय” और “हिमालय दर-बदर” नाम सी किताबों से अलग परिवेशों और समान सरोकारों को उद्घाटित करती चलती है।
कभी संकोची और कभी हाजिरजवाबी की हद तक मुँहफट्ट और दमाग्रस्त, पत्रकार कमल जोशी जी, लोक संगीत सुनने के शौकीन तो थे ही, साथ ही साहित्यिक और कलात्मक अभिरूचियों के रसिक भी थे। पिथौरागढ़ की भौगोलिकता संग अकादमिक उत्कृष्टता, सामाजिक और प्राकृतिक समरसता से प्रेरित होकर, वे हर बात को ठोक-बजाकर करने के आदी हो गये थे। चिपको आंदोलन के उत्तरार्द्ध का ‘नशा नही रोजगार दो आंदोलन’, उनकी रुचियों का अजस्र स्रोत बना और पत्रकारिक छायाकार संग लेखकीय यात्रा का सूत्रपात होने का बहाना भी बन गया। 1984 का असकोट-आराकोट अभियान, उनकी दमाग्रस्त जिंदगी का एक परिवर्तनकारी मोड़ बना और दिल्ली की नई पहचान के साथ वे एयर इंडिया मैगजीन और अन्य मैगजीनस् के भी छायाचित्रों और ‘हिमालय को जानो’ शीर्षक के मूलाधार बन गये। जिससे उनकी जान-पहचान का दायरा और भी विस्तृत हुआ।
आमुख मे, परिचय के मोहताज नही (आजकल काफल फेम) अशोक पाण्डे जी ने कमल जोशी जी को एक अंतहीन घुमक्कड़ करार दिया है। साथ ही उनके जीवन के कई दिलचस्प पहलू, जिनमे निश्छल उत्साहपरकता, मित्रताओं को गाड़ने और रल-मिल जाने मे सदबहार-वृक्षीय उद्दामता, अदम्य जिजीविषा वाला लबरेजपना, अपरिचित को भी हमेशा का अपना बनाने की कलाकारी, नव्यदिश-दशा को परखने के आदी होने का मनखीपना, जमीनी धरातल, मिट्टी, मातृशक्ति से मिथकों के बारे मेे रू-ब-रु होने की व्यग्रता और बेलक सी अनवरत यात्राओं के सफलता, असफलता से भी भविष्यात्मक सुनिष्पत्तियों की उपार्जकता, लोगों के निजी व्यष्टिगत सरोकारों को परखने, समझने और उसे समष्टिगत बनाने की महारती, और सम्मुख मुँहबांये मृत्यु सी खड़ी जिंदगी का साथ, बिना शिकायत, शिकवे और हिम्मत संग निभाने की सहज कला प्रवीणता और अंत मे स्वयंप्रभा समुज्ज्वला सी दीर्घलंबित आयोजित अदधिचीय अंत, सच मे एक अंतहीन यायावर की दुखद पर महान स्मृतीय विरासत है।
यात्रावृत्त तीन भागों मे विभक्त है। पहले भाग मे सम्मिलित बारह यात्राओं मे कृष्ण कमल के पैदल पाँवों के निशान दिखते हैं तो दूसरे भाग मे शामिल आठ यात्राओं मै पैदल स़ग बाईक और पिट्ठू की पिग्गीबैगिंग नजर आती है और अंतिम, तृतीय भाग मे कैमरे के समकक्षीय सहचरी मोटरबाइक से तथा स्मृतिमँजूषा मे की गयी दसेक धरातलीय और मानस यात्राओं को संकलित किया है, मल्यो ने। एक उधारी से उऋण होने की उनकी यह इच्छा बहुत ही सराहनीय श्रद्धांजलि और कर्तव्यनिष्ठा की परिचायक सी है। जहाँ,तृतीय भाग “दुनिया देखें” मे अधिकांश, तीन पेज से छह पेज के यात्रा वृतांत हैं, एक दस पेज के “सफर मे है नाहिद” को छोड़कर, वहीं भाग दो, “चल मेरे पिट्ठू” मे भी दो पेज से छह पेज तक के यात्रा संस्मरण ही हैं। मुख्य बड़े वृतांत, भाग एक मे हैं जिनमे आठ छोटे-मझौले वृतांत, चार पेज से आठ पेज तक फैले हैं और चार बड़े वृतांत क्रमशः पंद्रह (बोर बलड़ा-भरड़-काण्डे), चौबीस-चौबीस (रे महासिंग रै सिंग को पेंशन दिलाओ, तथा बेलक: देखा बहुत) और (हम होंगे सिनला पास) इक्कावन पेजों के बन पड़े हैं।
अगर पाठकीय पठन-पाठन की सहूलियत से देखें तो सरल से कठिन के सिद्धांत का अनुसरण करते हुये तृतीय भाग को प्रथम, द्वितीय को द्वितीय ही और प्रथम भाग को तृतीय होना अच्छा होता। इससे पाठक सरल और छोटी यात्राओं की स्कूली शिक्षा से, स्नातक, परास्नातक और यात्रा पठन, विचरण का डॉक्टर होता। जो कि पिछले डेढ़ माह मे कोई भी समीक्षा या टिप्पणी के पत्र-पत्रिका या सोशल मीडिया के प्रकाश मे न आने से स्पष्ट है।अधिकतर अतिउत्साही पाठक (राग पहाडी़ को द्रुतताल मे गाकर) तृतीय भाग की आखिरी कथायात्रा या यात्राकथा को जोश मे पढ़कर ही पस्त होते दिखते हैं, या शायद फिर राग पहाडी़ यात्रा को अति बिलम्बित ताल मे (गा) पढ़ रहे होंगे। या कहीं, पाठक यात्राकथा के बनिस्पत कथायात्रा तो नही ढूँढ रहे होंगे? (शायद, यह तो कत्तई सँभव नही होगा? )….
संकलनकत्री गीता जी से पूछने पर पता चलता है कि ऐंसा कुछ नही है। यात्राकथाओं को कमल जोशी की 1984 से पहले-पहल की यात्राओं से 2016, अब तक हनोल यात्राकथा के समयावधियों के हिसाब से सँयोजित किया गया है। एक बात तो माननी ही होगी कि पहले भाग की शुरुआत मे 51 पेज मे फैली यात्रा से बिना दृढसंकल्पित इच्छाशक्ति के,सामान्य पाठक न जूझ सकता है। साथ ही 15, 24 और 24 पेज की तीन यात्रायें भी पाठक का चंचलमन बेलक, महासर, बोर-बलडा़-भरड़-काण्डे बनाने को उद्यत दिखती हैं। जो संभव नही, इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाना चाहिए कि ये चार यात्रायें शब्द वर्णन, यात्रा रस और निहितार्थो मे कमजोर है, बिल्कुल भी नही। लेखक समर्थ है मनोविनोद संग यात्रा के समग्र सराकोरों को उजागर करने मे, बस पाठविचरण हेतु हमनिवाला, हमप्याला, हमसफर पाठकीय धैर्य की दरकार ही बहुत जरुरी है।
अभी सोच मे हूँ कि किन-किन परिपेक्ष्यों मे देखूँ इन अथक यात्राओं को। चलो पहले-पहल एकाध सम्पादकीय या मुद्रण की गलती, जो हनोल से संबंधित है, का जिकर जरूरी है शायद। शुरुआत मे, पाठक (जैंसे मेरे साथ हुआ, कारण अकारण भी नही) पढ़ते हुये आराकोट से असकोट यात्रा के यात्रा दिशा से असली हनोल के अलावा एक और हनोल को उत्तरकाशी के पूरब दक्षिण मे उत्तरकाशी और टिहरी की सीमा पर समझने की गलती कर सकता है, जो है भी नही और ना ही लेखक ने कोई भ्रम पैदा किया है। दूसरी गलती, पेज 80 मे दूसरे, तीसरे पैराग्राफ पर फोंट आकार पूरी किताब के फोंट आकार से छोटा छप गया है। तीसरी, प्रूफरीडिंग की छोटी गलती पेज 270 मे, मोनालिसा को मोमनालिसा लिखने की मात्र है बस।
इस यात्रा वृतांत मे (वास्तव मे यह मात्र यात्रा वृतांत नही है, बल्कि कुछेक जीवंत कथायात्राओं और संस्मरणों से भी भरा हुआ है।) ‘इकरा! कुरान का पहला अक्षर’ की इकरा, ‘सफर मे है नाहिद’ की संघर्षशीलता की मिसाल नाहिद, ‘टिँचरीमाई लौट आओ’ की टिँचरीमाई, ‘छेबुली का हाईवे’ की छेबुली, ‘मोखम्बा की रँगीली’ की रंगीली तथा यारों के यार दीवान और हयात और सुंदरतम अन्नपूर्णा टिकुली, ‘उड़ना चाहती है नीमा’ की नीमा और ‘गबरू की चाहत’ का गबरू, ‘हम पिलायेंगे चाय’ के दो नन्हे किरदार, ‘दर्शन दे गयी नन्दा’ की अनुष्का, ‘आस्था की यात्रा’ की नर जात्रा, देव जात्रा कहकर लेखक को एक रुपया देने वाली आस्थावान वृद्धा, ‘अनुसूया देवी’ की अनसुय्या देबी, कच्छा तीन, 2014 मे ‘एक रात का परिवार’ का पूरा ही परिवार, ‘बस एक मोबाईल टॉवर’ की मीना भुल्ली, 1943 मे फौज मे भरती और पेंशनहीन रै सिंग, असली सोनानी बोड़ा सोबन सिँह आदि सम्मोहनता भरे मयाल्दु मन के कौंलि लगाते चित्त के निर्दोेष, कम पर विचित्र जरुरतों वाले सहृद्य चरित्र कभी छपछपी लगाते हैं तो कभी अपनी देखभाल से मन हर्षाते और दूर होने पर रूलाने का सबब बनते हैं।
रही बात मिथकीय, तथ्यात्मक और सामाजिक सरोकारों की बात और वो जिंदादिली और मानवतावादी दृष्टिकोण…..और आशाओं के दिये भी तो जले हैं……..और इस कविहृदय का प्रकृति सौंदर्यबोध कैंसे झलकता है कुछेक उद्दरणों मे, देखेंगे जरा-जरा आगे-आगे….अंत मे जितना मैने खुद कमल जोशी जी को जाना और पहचाना है, उस आधार पर……….इन छह बिंदुओं पर बात रखकर आगे समीक्षा पूर्ण करता हूँ आज। स्वान्तःसुखाय समीक्षा, और वो भी स्वांतःसुखाय यायावर पर लम्बी होनी जायज है, मित्रों धैर्यशील रहें बस यही इल्तजा। बाकी सभी पात्रों की परोक्ष और अपरोक्ष मे निभी सृजनात्मक भूमिका, पाठकों के गहराई मे पढ़ने और समझ पर छोड़ना ही श्रेयस्कर रहेगा।
रही बात तथ्यात्मक और मिथकीय सूक्ष्मावलोकन और सामाजिक पर्यटन सरोकारों की बात, तो पेज 270 पर गंगा की यमुना के मार्फत् और उसकी भी टौंस नदी (तमसा) के मार्फत् सीमारेखीय सबसे पश्चिमी सहायक नदी पब्बर, सिंधु की सहायक नदी, सतलज की भी सहायक नदी है। नदी का एक ओर का पानी बंगाल की खाड़ी और दूसरी ओर का पानी अरब सागर को बिछुड़ता है और फिर जरूर, हिंद महासागर मे ही मिलता होगा। इस तथ्य का जिक्र, महासू मंदिर के छत्र की नागरशैली, कढ़ाह,धूण, घाण्डुआ की चोरी छिपे बलि, महासू- महाशिव घालमेल और सिद्धबली कोटद्वार मे गोरखनाथ और हनुमान जी का घालमेल तथा नेपाली महिला रेनू का पैंसे और पति पर दुधारी नजर अद्भुत है यह सब, आखिरी यात्राकथा मे और भी बहुत कुछ के अलावा।
इसी तरह पेज 262, 263 पर राज्य गीत, पहाडी़ हाऊस डॉट कॉम की हालते बयां, पहले मात्र नैनीताल की मद्यनिषेध से उन्मुक्तता,आंचलिक जेवरों,भोज्य, परिधानों की मार्केटिंग की सोच के अभाव के बहाने सरकार व्यवस्था पर तंज दिल-दिमाग झकझोरते हैं। ग्रामीण आतिथ्य भरे रोजगार, के साथ अगर दारूड़ि, घमतपौं छिपड़ूज्, मतिहरणमस्त, ताशहुक्का गुड़गुड़, पुरुषों को छोड़ दें, तो कतिपय खर्क, गोट मे रहने वाले पहाडी़ बालपुुरूष के मुँह से निकला वाक्य भी व्यथित करता है….”तीन-चार महीने तक इन जानवरों के साथ रहने से हम अपनी भाषा ही भूल जाते हैं।”….
आशाओं से भरे बनारस, सुल्तानपुर के कर्म से सच्चे उत्तराखण्डी, मुनस्यारी अवस्थित, (असली उत्तराखण्डी) स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ शैलेंद्र तथा रूद्रप्रयाग के वीरेंद्र और अजय की उद्यमशीलता किसको नही स्पर्श करेगी। पर रोना इस बात का है कि ये मात्र गिने-चुने अपवाद ही हैं।
नाहिद की वास्तविक कथागोई का सुखांत लेखकीय दृश्य-चित्रात्मकता का गुण लिये कुछ यूँ होता है…..”सरसों के फूलों से भरे खेत के बीच की पगडण्डी पर चलती दोनो सहेलियां खिलखिलाकर हंस पड़ी। उनकी खिलखिलाहट सुनकर उनके आगे चल रहा कुत्ता चौंककर भाग गया।”
पूरे संस्मरण मे टिंचरी माई की कुटिया छिनने पर यह कथन, उनके निष्काम परोपकारी स्वभाव को दर्शा देता है, …”तू अपने अधिकारों के लिए क्यों न लड़ी?….सीधी बात माई ने कही, कुटिया मेरी थी, अपने स्वार्थ के लिए लड़ना पड़ता मुझे, सन्यासी का क्या होता है, जमीन के टुकडे़ से मोह कैंसा? हाँ दूसरे की जमीन होती तो पटवारी का मुँह ” नोच लेती, माई ने जोड़ा।”……..। सच मे…….. देवभूमि है उत्तराखंड, और असली ब्राह्मण है, पी डब्ल्यू डी कर्मचारी, बिना वेतन मिले, यात्रा दिनों मे सोहनलाल , जो बद्रीकेदार कभी न जा पाये, सड़क रखरखाव करते हैं और यात्रियों की प्यास बुझाने को तत्पर रहते हर दिन।
कर्नल कोठियाल, केदारनाथ पुनर्निर्माण और टनकपुर देहरादून बस प्रसंग और पहाड़ो को आबाद करते मेहनतकश नेपालियों संग, हमारे अपने आलसी, पलायनग्रस्त स्थानीय लोगों का अहसानफरामोशी भरा दुर्व्यवहार और कोटद्वार, लैसंडौन से पाटीसैंण (भगाया गया) गया नेपाली भाई भी मन कचोटता जाता है। हर्सिल, अंग्रेज विल्सन और लाली और खुद की करेंसी के साथ गंगा मे कटे देवदारों का हरिद्वार तक प्रवाह एक बिडम्बना है तो (जो अंग्रेजों के लिये हम न जाने क्योंकर न सोच पाते), दो दगडुवों की रोड रोलरी और ठेकेदारी के दिवास्वप्न के बाद आत्मसम्मान भरी कट चाय मन मोह-मोह जाती है। पत्थर तोड़ता पोलियोग्रस्त गबरू भी तो, लेखक को, उसके कर्तव्यबोध के चलते समय से बड़ा दिखने लगता है।
प्यास और भूख के मारे, सहजमना कमल जी को पहाड़ के बुग्यालों मे नीमा मे अप्सरा दिख जाती हैं…”थोडी़ देर मे वो एक लोटे मे छांछ और नमक लेकर लौटी वो मुझे आन्छरी (अप्सरा) सी दिखाई दी,जो पहाड़ के बुग्यालों मे मनोकामना पूरी करती है।” …….लड़कियों की यथार्थवादी सोच पर यह कथन……”लड़कियाँ पास हो रही हैं, हमारे नेता बुरी तरह फेल हो रहे हैं।….मै इन लड़कियों से माफी भी किस मुँह से माँग सकता था? क्या हमें इन लड़कियों को यही उत्तराखंड देना था?…..(बोलो भैयों भुल्यों तुम थै कन्नु उत्तराखंड चयेणो छ…..मेरे नैपथ्य मे नेगीदा के जनजागरण गीत की अब क्षीण आवाज गूंजती सी…………..। अक्षयपात्री, अक्षतयौवना ताम्रवर्णी और ठसक भरी मंद-मंद मदभरी चाल से चलती टिकुली की सौंदर्यसुषमा और सम्मोहन का ताब और गहन चुप्पी, और मिलने की चाह सब खिलाफ सिंह ने गुड़ गोबर कर दिया। बिना संकोच के षष्टजनातिथ्य साबेत्री, खीमा मय परिवार अन्नपूर्णा टिकुली की कृपा से ही तो कर पाया था, मन मोहता यात्रा वृतांत यह भी।
रांसी से गोंडार (गोंडार की रात, किताब याद आती है) मोखम्बा की कर्मठ भुल्ली रंगीली मे। और विनय के डी की अद्वाणी वाले चाय के स्थानीय दुकानदार की बात भी तो, जब रंगीली हंसते हुये, लेखक को कहती है कि चाय के बने पंद्रह रुपये अगर न रखकर चले गये तो “किस्मत थोडी़ लिजाला तुम!” और संस्मरणात्मक यात्राकथा ‘छेबुली का हाईवे’ का मन भिजता समापन करना कोई सीखे कमल जोशी जी से….”मैने बाइक बढा़ दी। कुछ देर बाद महसूस किया कि पीछे बैठी रेहा हिल रही है। देखा, रमुआ (पुचकारा बच्चा) रेहा को दोनो हाथ हिला-हिला कर विदा कर रहा है और उतने ही जोर से रेहा भी हाथ हिला रही है। मैने और रेहा ने बहुत देर तक बात नही की। एक चुप्पी ने हमें घेर लिया था।”…..पसरे मौन की भाषा पाठक भी सुन रहा होता है।
एक और नयी बात पढ़ी, सुआखोली से आगे, मोर्याना धार (टॉप) के बारे मे, कि यह धार दोनो पनढा़लों को डिवाईड करती है। यानि इस धार के एक तरफ का पानी यमुना मे और दूसरी तरफ का गंगा मे समाता हैे। याने तेज बारिश मे पैर फैलाकर खड़े होने से यमुना-गंगा जल सम्पर्क एक ही जगह अचल हुये कर सकते हैं। पब्बर, टौँस की सहायक नदी की सी बात फिर से यह। और…..उत्तराखंड के लेह, नेलांग घाटी मे, जाह्नवी , भूवैज्ञानिक स्केल पर (गर्तांग गली होकर) पुरानी नदी से जनजातीय जाड़ भाईयों का कैलाश यात्रारुट होता था। माणा गाड के बगल मे अब भूतहा गाँव जोदुंग, सिनला पास की यात्रा मे रु-ब-रु हुये गाँव की भी बरबस याद दिलाता सा। क्या यह विरासती गाँव नही बन सकता है? यह सवाल भी बदस्तूर लेखक मन मे जारी है।
खतलिंग ग्लेशियर मे दिखे सोबन सिँह, असली स्वतंत्रता सैनानी, जिन्हें तब बागी घोषित किया गया था, अब भी गुमनामी के अंधेरों मे, उत्तराखंड के जन्मने से, आशान्वित होकर लेखक से जब सकारात्मक उत्तर नही पाते हैं, और चुप्पी ही पाते हैं, तो यह कहकर कि ……… “कोहरा साफ हो गया है। हिमालय की फोटो खींचो।”….लेखकीय मन को सोलह/अठारह सालों बाद भी अनजाने ही, और भी कोहरामय कर देते हैं। यह मेरी व्यक्तिगत सोच है कि, ‘कलुआ विनायक’ का एक किलोमीटर वाला कुटजीय जिजीविषा वाला कमल, (टिंचरी माई के अपने लिये नही, बल्कि दूसरों के लिये लड़ने वाला वक्तव्य सा तत्पर),महासंकोची और साथ ही आत्मीयता की थाह पाने पर (हेे व्बेका, दा बल!) बेहिचक महाधिकार जमाने वाला कमल ही असली कमल जोशी था। जो बौद्धिकता मे आरामदायक नही महसूस करता था, हर समय स्वतःफूर्त, स्वचेतन,मस्तमौला और अपने घावों को गहन मनगह्वर मे छिपाता हुआ स्वतंत्र प्राणी धरातलीय प्रयासों पर शायद ज्यादा यकीन करता था, (वो)।
भरपूर जानकारी देखें तो, बैरांगणा घाटी के साइट्रस प्रजातीय पौधे, अनुसूया देवी के रस्ते मे भरपूर हैं और मण्डल मे दूधगंगा और बालखेला नदी का संगम स्थल,मार्छा, शौका जनजाति के लोगों का गलत भोटिया नामकरण,और सचमुच का नारी स्वातंत्र्य भी दिखता उसे वहाँ। सती अनुसूया की लोक प्रचलित दोनो कहानियों का पुनर्पाठ तथा जिज्ञासाओं की कंदराओं मे आस्था का प्रक्षालन रहस्यमयी है पर जरूरी भी तो। आस्थाओं की नंदा राजजात यात्राओं मे अनुष्का रुप मे नंदा-सुनंदा का प्रकट होना एक जीवनोत्सव से कम नही है।उसकी डाँट, रहमतें, सरोकार और सुमधुरता किसे नही सालेगी भला, तभी तो गले लगाना तो जरूरी है न ऐंसी दिशा ध्याणी बहना नंदानुष्का को।
‘बस एक मोबाइल टॉवर’और ‘एक रात का परिवार’ जहाँ आतिथ्यप्रियता और विश्वास की पराकाष्ठाओं के पवित्र सोपान हैं, वहीं ये वार्तालाप कितने जीवंत बन पड़े हैं……. “भुली, मैं भीतर आ सकता हूँ।”
‘हाँ आ जाओ’ उसने (मीना ने) विश्वास से कहा। मै अंदर चला गया। सारे दल के खरक के अंदर जाने पर भी विश्वास की सोनजुही न हिली, है न अद्भुत यह बात। और….कुछ न होते हुये भी भूखे चेहरों को पढ़कर , गोठ मे मीना की यह बात…..”चलो मैं तुम लोगों के लिये एक-एक रोटी बना देती हूँ” (सबके चेहरों का सूरजमुखी हो जाना खुशनुमा सा अनुभवार्जन है यह पढ़ते जाना)। मीना, सावित्री का नेगीदा को गुनगुनाना और विदाई मे प्रतिदान भी माँगा तो क्या कि सरकार से कहना कि, मायके की क्षेमकुशल जानने को एक अदद मोबाइल टॉवर बस लगा दें बस। उधर, एक रात के परिवार मे रंवाई घाटीप्रदेश की अनजाने लोगों को भी आतिथ्यप्रियता से कृत्यकृत्य करने की सद्भावना मैने खुद भी महसूसी है। संग ही रोपण और गीत गाते यायावरीय ये लोग….. मासूमियत और जमीनी मानवीयता के रिश्तों और सरोकारों से गद्दगद होने सा यह सब।
अब रहे बाकी चार लम्बी संस्मरणों वाले यात्रावृत्तांत,…… उनको बिना पढे़ तो आनन्द नही मिलने वाला। यह जो भी बटेरा है थोड़ा-बहुत, वह सारी किताब मे पसरे तथ्यों, रहस्यों, पर्यटन सूचनाओं, नये आचारों, कथाओं, उपकथाओं, सरोकारों, प्रकृति, जानवर, पौंधों और आदमियों मे एकमात्र सत्ता के अलौकिकता को देखने की बातों का (1/1000th) एक बटा हजारवाँ भाग भी नही है। शादी मे चख्ती चखना,रामणी की पलायित चलमती के पति की पचास पैंसे की अव्यावसायिक चाय, पेज 27 की अद्भुत भाई, बहन की कथा और सूना गाँव, ज्योंर, नदी के प्रशंसक और बैगपाइपर से साक्षात्कार, लागर-फू, पलसेती झरने की व्यथाकथा, बुग्याल मे छिया देवता युगल मंदिर, भुतहा गाँव गर्ब्याड़, पेज 34 मे दानी बिठलु जसूली दातार की कथा, कुटी-यांग्ती संगम (और कुटी मे ज्यादा पानी काली से पर नाम बाद मे काली ही का विद्रूप, पब्बर- टौँस की सी कथा या टौँस-यमुना की कथा भी, और भी होंगी बहुतेरी ऐंसी विद्रूपी कथायें), गुंजी, नपलच्यूं, श्याप्लों की चाय, सीपाल पर्वत का सौंदर्य, कालापानी नदी मे मिलती दो नदियों के पानी की कथा तथा बद्रीनाथ की कपाटों के खुलने की महत्ता, श्यांगचुंग, टिंकर नदियां, दो सांपों से सामना और भोलेनाथ, कैलाश गरीब आदमी का तीर्थ और गरीब को अलभ्य तीर्थ गया विहार की बातें, दन कला के आदि पुरूष भादू नब्याल, गैंगहट का सतयुग, पीतम बक्खा की चटनी, पाण्डुपुत्रों के चरणचिह्न, ज्या, याक और गाय का संकरण और ऊँचे रस्ते की दरार भांपने वाला वरदान नर झेंपू, मादा झुम्मु, सफेद बुराँशपुष्प, सैन्य छावनियों के आसपास भोटिया लोग, भेडे़ और भोटिया कुत्ता, पार्वती ताल का सौंदर्य, सिनला पास से काली, धौली नदी की ओर ‘मृतकों का मैदान’ और बहुत कुछ है सिनला यात्रा मे। मूर्तिकार डी एस सीपाल, जसुली देवी मूर्ति बनाते हुये और नागलिंग, बागलिंग के बाद धौली बाँधने की मानवी विनाशक महत्वाकांक्षायें भी।
बोर बलड़ा भरड़ काण्डे के आतिथ्य और अनातिथ्य की दो बार की पराकाष्ठाओं की बात और विदुरमहिषी की आशँकाओं के चलते, “सबसे ऊँची प्रेम सगाई, दुर्योधन के मेवा छाड़े, साग विदुर घर खाई ” का चरितार्थ न हो पाना भी दुखद अनुभव सा तब भी और आज भी (किताबी न हो बस)। …..”पता नही , हमारी बातें मँगतू और उसकी पत्नी को समझ मे आयी कि नही। पर हम वास्तव मे बहुत शर्मिँदा थे।”….महेंद्रथ पुजारियों का अनात्मीयता भरा व्यवहार, शराबी की गति खोंड मे, समदर गाँव का अद्भुत निरभागी स्कूल, रामलीला मंचन न होने की व्यथा, रामणी के बिजली तारों की वरदानी या अपशकुनी कथा, कर्जन रुट पर बसे कनौल मे बनारस के डॉक्टर की असली उत्तराखण्डी होने की प्रेरणादायक सेवाकथा और सबसे ऊपर दमे पर लेखक की जीत भी तो…
सास्त्रु् लेक (सहस्त्रताल), बूढ़ाकेदार कथागोई, आदिबद्री, भविष्यबद्री, बूढ़ा केदार, वृद्ध जागेश्वर कितनी भूत, वर्तमानोन्मुखी और भविष्यात्मक धारणायें है हमारे मिथकों मे। है न आश्चर्यजनक यह सब। समाधिकथा, धर्मगंगा, बालगंगा , दोनो का उद्गम् सहस्त्रताल के पनढ़ालों से होता है। महासरनागताल रस्ते मे तार्किक कुत्ते से मुलाकात, पुनः आतिथ्यप्रियता की घटनाओं की पुनरावृत्ति, तितराणा तक ऋषिकेश से धनाढ्यों का श्रवणकुमार सा कण्डी मे तीर्थाटन, छाने, मरडा़ या गोट या खरक मे जन्मी अतार्किक लोककथाओं के संग चरती गायों द्वारा लेखक की #हैलो की उपेक्षा, बांद की खोज, कोटद्वार कौड़िया कैम्प कथा, महासरनाग की अनियमित पर घोषित यात्रा के रहस्य, भटवाड़ी, भीमरसोई और 1943 मे भरती #तोकुमारहस्य (कमल जोशी जी, सुन रहे हो न!…यह कुछ नही, बल्कि #तग्माप्राप्त रैसिंग है।)…. रैसिंग की पेंशन व्यथाकथा बहुत ही दुखप्रद पर रुचिकर है।
अंत मे बेलक की यात्रा मे जोंकों की बहुतायत, पहाडी़ बेटी, व्वारी, दानु दीवानु हेतु, #नकचुण्डीकामहात्म्य, सत्तरावयासीन राधा दादी की निष्ठुर जीवनकथा पर बार-बार कर्तव्यबोध से उठने की जीजिविषा, स्कूलों की दूरी और शिक्षा संग समान प्रतियोगिता मे लेखक की संविधानिक संवेदनशीलता भरे सुधार की गुंजाइश की चाहना, बालगंगा मे ज्यादा पानीदार होने पर भी, यमुना की सहायक नदी कहलाना अन्यायपूर्ण सा लगता है अन्य उदाहरणों की तरह। सास्त्रू मे स्नान का महत्व और यहाँ भी प्यारदेई की #आतिथ्यप्रियता, महिला के अनोखे आराम करने की परिभाषा पर चिंतन-मनन, भेडो़ की चरागाह सीमा का विस्तार कोटद्वार, लालढांग तक होने की विचित्रता, सेमल के मोटे पेड़ की मोटूमल कहकर मलामत, यहाँ की जोंकों का ईलाज, स्थानीय देवी भद्रकाली की राजस्थान (चित्तौड़गढ़) से सम्बद्धता, भटवाड़ी, सौँरा गाँव संगम मे बेलक नदी अपनी चपलता त्यागकर भागीरथी मे शांत भाव से मिलना …और भी बहुत कुछ भरा है यहाँ। बेलक मे कुछ भी न देख पाने पर भी बहुत कुछ सीखने के फल को धनात्मकता से सहेजना इस अंतहीन घुमक्कड़ की ही जीजिविषा हो सकती थी। आपको सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब आपके विचारों, सराकोरों की कद्र हो और पात्रों की पात्रताओं की सहेजने वाली देखभाल हो, संवाद जारी रहे और आगे उत्तराखण्डी नये यात्रियों का उत्साहवर्धन भी हो। पलायन रूके और लोग हिमालय संस्कृति की महत्ता समझें।
कमलदा! तुम चेन्नई आकर हिमालय से निकले पब्बर के बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के पानी का हिंद महासागर मे परोक्ष संगम और मौर्याना टॉप के गंगा- यमुना मे बिछुड़े पानी के प्रयागराज मे गंगीय संगम के बाद पुनर्संगम देखने और साथ-साथ घूमने का वादा तो तोड़े हो पर चलो यह जात्रा पढ़कर , मै आश्वस्त हूँ कि तुम वहाँ भी असमानी मोटरबाइक से ब्रह्माण्ड की उल्काओं,धूमकेतुओं और आकाशगंगाओं को निहारने से फुर्सत नही पा रहे होंगे। शांति मिले तुम्हें अथक मानवयोनि के सब गुणावगुण समाहित करते यायावर! सलाम!!!??☺
(नोटः न तो मै समीक्षक हूँ, न ही प्रकाशक, लेखक या संकलनकत्री, किसी का भी प्रचारक या प्रसारक। अतः यह पाठकीय समीक्षा है गहन पठन, आकलन, सारतत्व संग्रहण के बाद । अतः स्वांतःसुखाय समीक्षीय तत्वों भरी, याने झूठी बिक्री बढ़ाने वाली, यसमैनशिप वाली छोटी और क्रिस्प नही होगी। इसमे एक बटे हजार जानकारी भी नही हैं किताब की, पढ़ने वाले पढे़ंगे उत्तराखंड मानसवृंद को गहन जानने को। आभार,कमलदा, समय साक्ष्य और मल्यो।)