हिमालयी राज्यों का पैन्सारा बाजा व नृत्य..! उत्तराखंड व नेपाल में एक ही रंग रूप!

(मनोज इष्टवाल)

पैंसारा ताल …..! यह तब ज्यादा खूबसूरत दिखता है जब कोई जश्न का माहौल हो! यूँ तो पैंसारा बाजा ढोल में ही बजता है और यह इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु के पल तक साथ-साथ 6 मात्राओं में 6 ताल ऑफ बीट बजता है! ऐसा नहीं है कि यह बाजा सिर्फ वृत्ति के लोग ही बजाते हैं बल्कि फिर्त्ति वाले लोग भी इसे अपने ढोलक व घुंघुरुओं की खनक के साथ “पसरु नृत्य/गायन/वादन में खूब इस्तेमाल करते हैं!

पैंसारा का शुद्ध रूप क्या है यह तो कोई गुनीजन ही बता पायेगा लेकिन “पसरु” बाजा गढवाल के पौड़ी जनपद में प्रचलित है जो 6 मात्राओं में 6 ताल ऑफ बीट में ही बजता है! यह शब्द हो सकता है पैन्सारा का ही भाषाई अपभ्रंश हो!

धारचूला उत्तराखंड व दार्चुला नेपाल में पैन्सारा वादनृत्य!

आज मित्र ठा. रतन सिंह असवाल ने यह वीडिओ मुझे काली नदी पार बसे नेपाल की गा.वि.सा दार्चुला जो नेपाल का ठेठ पश्चिमी हिस्सा है से भेजा और कहा- पंडा जी, राजू फर्त्याल की शादी में बजने वाले इस बाजे को पहचानिए व बताइये कि क्या यह हमारे गढवाल में भी बजता है! वैसे यह पिथौरागढ़ जिले के धारचुला में भी ऐसे ही बजता है जैसे यहाँ नेपाल में बज रहा है! वीडिओ देखा और फिर आँख बंद कर उसे सुना तो होंठों पर मुस्कराहट रेंग गयी! मुझे लगा  यह तो पैंसारा की ताल है! ठीक वैसे ही जैसे रण बाजा या आवजी/बाजगी लोग ढोल प्रतिस्पर्दा में बजाते हैं!

पद्मश्री प्रीतम भरतवाण

सोशल साईट पर वरिष्ठ पत्रकार अनिल बहुगुणा ने भी यह वीडिओ अपलोड कर लिखा था “एक अन्तर्राष्ट्रीय विवाह उत्सव में”! मुझे लगा इस पर ढोल सागर के किसी मर्मज्ञ से बात कर लेनी चाहिए! भला पद्मश्री प्रीतम भरतवाण से अच्छा माध्यम कौन होता! बस फोन उठाया और बात हुई! प्रीतम भरतवाण बोले- इष्टवालजी, पैन्सारु या पैंसारा दो तरह से बजाया जाता है! पहला थाती का पैंसारा कहलाता है व दूसरा धद्दी पैंसारा होता है! थाती का पैंसरा अक्सर अपने क्षेत्र की रिधि- सिद्धी के लिए बजाया जाता है जबकि धदि पैन्सरा मनोरंजन व अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए बजता है! इसमें कोई अलग ताल नहीं होती बल्कि इसकी पहचान ही इसकी श्रेष्टता का प्रतीक है! इसमें 6ताल, 6 मात्राएँ ऑफ बीट होती हैं! यह हमारे जन्म से लेकर मरण तक साथ चलता है!

डॉ. डीआर पुरोहित

ढोल सागर तक बात पहुंची हो और ढोल सागर पर बर्षों काम करने वाले साहित्यकार डॉ. डीआर पुरोहित जी याद न आयें ऐसा भला कैसे सम्भव था! मैंने फोन लगाया और जानकारी मिली कि आज वे देहरादून में ही किसी शादी एन शिरकत करने पहुंचे हैं! उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि पैंसारा को गढवाली मूलतः पैसरू खेलना बोलते हैं! यह बाजा अक्सर तब बजता है जब बारात दुल्हन के आँगन में पहुँचती है! तब आपसी कुशल क्षेम ढोल में ही पूछने के बाद यदि ढोल के मर्मज्ञ ज्ञाता हों तो अपनी अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए वे पैसरा बाजा बजाना शुरू कर देते थे! लेकिन अब न वे ढोली ही रहे न ढोल…! यह चिंता का बिषय है! वैसे उत्तरकाशी के रवाई क्षेत्र में पैन्सरा मौत के बाजे के रूप में भी बजता है! यहाँ किसी की मृत्यु पर जब उस व्यक्ति के शव को शमसान ले जाया जाता है तब यहाँ प्रचलन है कि बाजगी समाज उनकी अंतिम यात्रा के लिए एक स्थान पर शव रुकवाकर उन्हें अंतिम विदाई में यह बाजा बजाकर विदा करते हैं!

जौनसार, रवाई व जौनपुर में बजने वाला पैन्सरा!

बात अब साफ़ हो गयी थी! शुद्ध रूप से अगर हम पैन्सारा की बात करें तो यह जन्म पर, रण में, ख़ुशी में एवं दुःख में अलग अलग समय पर बजाया जाता है! किसी का जन्म किस घड़ी हुआ उस घड़ी में अगर नौबत्त बजाने का समय हो तो देव स्तुति  के बाजे में रिधि-सिद्धी हेतु पैन्सरा बजता था! जिसे थाती पैन्सारा के नाम से जाना जाता है! और अगर कहीं युद्ध हो या फिर कौथिग/मेले में जाना हो तो शबद बजने के बाद चलत ताल में पैन्सारा जोश दिलाता हुआ आगे बढ़ता था इसे धद्दी ताल इसीलिए कहा गया है कि यह ललकार के रूप में सामने वाले के छक्के छुडा दे इसलिए बजाया जाता रहा है! चौथा व अंतिम पैन्सरा भी धद्दी ताल का ही रूप हुआ इसमें भी 6 ताल 6 मात्राएँ होती हैं लेकिन यह तब बजता है जब किसी की शव यात्रा निकल रही हो! लोग शंख ध्वनी या ढोल की आवाज से पूर्व में पता लगा लेते थे कि दूसरे गाँव कोई मौत हो गयी है! इसे मौत का बाजा भी कहा गया है!

दार्चुला गा.वि.सा. नेपाल में बारातियों का स्वागत व पैंसारा नृत्य!

धारचुला के मित्र राजेन्द्र सिंह की शादी जब धारचुला पुल पार नेपाल की दार्चुला गा.वि. सा. पहुंची तो वहां भी नगाड़ों में दोनों क्षेत्र के बाजगियों ने नगाड़ा पीटना शुरू कर दिया! प्रस्तिस्पर्दा बढ़ी तो पैंसरा बाजा शुरू हो गया! पीली पगड़ी बांधे उत्तराखंड के धारचुला क्षेत्र के बाजगी ने पहले शुरुआत की तो भला नेपाल का बाजगी कहाँ चुप रहता! दोनों की ही वाद्य कौशलता पर बाराती व घराती हाथ में ढाल व तलवार लिए खूब थिरके व यथासमान उन्हें पारितोषिक भी दिया! रतन असवाल बताते हैं कि यहाँ सब पगड़ी बांधे थे! हमें भी बाँधी गयी थी! बारात में लाल ध्वजा आगे थी व सफ़ेद पीछे! राजेन्द्र के बाजगी समाज की पीली पगड़ी थी जबकि दुल्हन पक्ष के सफेद पगड़ी में थे! यह सचमुच बेहद अप्रितम था!

ढोल, नगाड़ा और बिजैसार (लकड़ी के ढोल) में बजने वाले इस बाजे की इस अद्भुत भाषा को हिमालयी राज्यों में एक ही समानता से बजता देख सचमच सुखद लगता है! इसी को माध्यम बनाकर यहाँ के राजाओं के हथियारबंद दस्तों ने गोपनीय युद्ध कला में इसका प्रयोग किया जिसे गढ़वाल में सरौं नृत्य (सरैs नृत्य) तो कुमाऊं में …नृत्य के रूप में विकसित किया गया! बाद में यह नृत्य कला यहाँ की संस्कृति में रच बस गयी! कहा तो यह भी जाता है कि यही वाद्य कला महाभारत में चक्रव्यूह संरचना से जोड़ी गयी थी!

बचपन में हमने कई बार अपने बाजगी समाज के प्रबुद्ध गुनीजनों को इसे तब भी बजाते देखा है जब बारात या तो दुल्हन के घर से रवानगी भरने को तैयार हो या फिर सुबह नाश्ते समय खुछखंडी खुलते हुए! तब बाजगी जमीन पर अपना रुमाल बिछा देते थे व ऐसा ही बाजा बजाते थे! हमारे बुजुर्ग तब अपनी पिठाई के रूपये का आधा हिस्सा इसमें डाल देते थे! वहीँ फिर्ती वाले लोग जिस दिन बारात जानी होती थी उस दिन ..या फिर जिस दिन दुल्हन घर पहुँचती थी उसकी अगली सुबह ढोलक के साथ पहुँचते हुए कहते थे..बड़े सरकार बड़ा दरबार! राज मुसद्दी राज परिवार! फिर परिवार की वृदावली सुनाकर अपना पैसरा लगाते थे! जिसमें बद्दी ढोलक पर ताल देते थे व बादिण अपनी नृत्य कला के साथ गीत गाकर पुरस्कार पाते थे!

यह अद्भुत था कि सामाजिक संरचना में यह परम्परा आगे बढती रही लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे धन्नासेठों ने हमारे इस वृत्ति व फिर्ती समाज की उपेक्षाएं की व उन्हें समुचित स्थान न देकर हेय दृष्टि से देखा! इससे यह समाज धीरे धीरे पार्श्व को चला गया और अब धुंधली यादों का सफर काट रहा है! उम्मीद की जा सकती है कि हम वर्तमान में जब समानता की बात करते हैं तो सामजिक स्तर पर इस समाज की अगुवाई में आगे आयें व प्रोत्साहन के तौर पर अब भी हमारे पास समय है कि हम उन लोगों की जमात इकठ्ठा करें जिसमें कला तो है लेकिन उसे आगे बढाने के लिए धनाभाव है!

धारचूला उत्तराखंड/दार्चुला नेपाल में पैन्सारा –

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