हर की दून….जहाँ के परीलोक में आज भी सुनाई देता है ओसला के हरपु का ढ़ोल.

हर की दून….!
जहाँ के परीलोक में आज भी सुनाई देता है ओसला के हरपु का ढ़ोल. (कारुणिक और मार्मिक गाथा)

(मनोज इष्टवाल)
हर की दून यानि प्राकृतिक सौन्दर्य का अकूत खजाना ! आप इसे पृथ्वी का स्वर्ग भी कह सकते हैं. पृथ्वी के इस स्वर्ग यानी हर कि दून तक पहुँचने के लिए आप सबसे उपयुक्त उत्तराखंड कि राजधानी देहरादून का मार्ग चुने, क्योंकि यहाँ से आप विकास नगर, कट्टा-पत्थर,जमुनापुल होकर नैनबाग या फिर मसूरी, कैम्पटी फाल होकर नैनबाग होते हुए डामटा, बर्निगाड, नौगॉव, पुरोला, मोरी, नैटवाड, सांकरी होते हुए तालुका तक मोटर मार्ग से जा सकते हैं।

तालुका से शुरू होता है आपका पैदल मार्ग का बेहद सुन्दर सफ़र…? प्रकृति का आनंद लेते हुए सुपिन नदी के बायीं ओर से आप अखरोट, मोरू, कैल, देवदार, रई, पुनेर, खर्सों के वृक्षों के बीच से गुजरते हुए कलकल छलछल करती सुपिन नदी के समांतर चलते हुए अपना पहाड़ी सफ़र शुरू करते हैं। रास्ते भर मोनाल, तीत्तर, बटेर, मैना, कोयल,और जंगली मुर्गियों के अलावा गोबिंद वन्य पशु राष्ट्रीय पार्क के कई अदभुत वन्य जीवों के भी आपको दर्शन होते रहेंगे। हर-की-दून पहुँचने के लिए आप कोताही मत कीजिये। प्राकृतिक नैसर्गिकता का भरपूर आनंद लेते हुए यहाँ की यात्रा का लुत्फ़ उठाते हुए आगे बढें। सांकरी से आपको ट्रैकिंग सम्बन्धी सारी जानकारियाँ देने के लिए जहाँ वहां ट्रैकिंग के व्यवसायिक जानकार मिल जायेंगे वहीँ आप गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के कर्मचारियों से भी इस सम्बन्ध में जानकारी ले सकते हैं. क्योंकि सांकरी में ही रेंज कार्यालय भी है। यात्रा शुरू करने से पूर्व आप सांकरी या तालुका में भी रुक सकते है। गोबिंद वन्य पशु विहार राष्ट्रीय पार्क के अधीन तालुका तक सड़क मार्ग के अंत में एक खूबसूरत सा बंगला निर्मित है जिस पर वर्तमान मैं विभाग कुछ मूल-भूत अन्य सुविधायें जुटाकर उसे और खूबसूरत बना रहा है। यहाँ आपको चौकीदार का भरपूर सानिध्य मिलेगा एवं विभागीय कर्मियों का शिष्ट व्यवहार आप महसूस करेंगे।दोनों जगह सरकारी बंगलों के अलावा व्यावसायिक होटल भी हैं। हो सके तो सांकरी से ही अपने खाने पीने का छोटा मोटा सामान साथ लेकर चले. यहाँ आपको लोकल पोर्टर मिल जायेंगे।

यहाँ तक पहुँचने के लिए यूँ तो आप अगर तालुका से सुबह 5 या 6बजे पोर्टर के साथ निकले तो शांयकाल तक थके मांधे आप हर की दून पहुँच जायेंगे लेकिन ऐसा ठीक नहीं रहेगा आप गंगाड गॉव जोकि तालुका से लगभग 12 किमी. दूरी पर है वहां तक 4 या 5घंटे पैदल ट्रेक के बाद पहुँचते हैं. आप यहाँ भी रुक सकते हैं और अगर थकान नहीं है तो लगभग 3किमी. आगे सीमा नामक स्थान पर वन विभाग के गेस्ट हाउस में आप रात्री विश्राम कर सकते हैं. या फिर आधा किमी. और ऊपर जाकर चीन सीमा से जुड़े भारत के अंतिम गॉव ओसला में भी आप विश्राम कर सकते हैं.

अगली सुबह खडी चढाई आपके स्वागत को तैयार रहती है. क्योंकि सीमा के निकट बहने वाली सुपिन नदी को पार कर चढ़ाई नापना शुरू कर देते हैं जो बदस्तूर कंडारा खड्ड,उपला खड्ड पार कर आप बिनाई पहुँचते हैं.जहाँ ओसला के ग्रामीण आपको अपने अंतिम खेतों में ओगल व फाफरा बोते मिल जायेंगे बशर्ते कि आप मई माह में वहां जाएँ. रींडू गाड़ पार कर आप अलछयूँ तोक पहुँचते हैं जहाँ आबादी का अंतिम छोर हुआ इसके बाद का क्षेत्र गोबिंद वन्य पशु विहार का माना जाता है. यहाँ से आप कालिंदी पर्वत की उतुंगशिखर व सुपिन नदी के पार रुइनसेरा ताल के लिए जाने वाले पैदल ट्रेक के नयनाभिराम दर्शन कर सकते हैं. कलकत्तिधार तक पहुँचते पहुँचते आपके पाँव डगमगाने लगते हैं लेकिन जब यहाँ से हर की दून के दिव्य दर्शन होते हैं तो आप भाव-विभोर हो उठते हैं व आपकी थकान काफूर हो जाती है. बिस्तार से लिखूंगा तो लेख विस्तृत हो जाएगा और हरपु गौण? इसलिए सीधे हरपु पर आता हूँ.

ओसला का हरपु –
जब हम हर की दून के बिशाल वैभवपूर्व प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच पहुँच जाते हैं तो आपको मीलों फैले लम्बे बुग्याल, मानिंदा ग्लेशियर से निकलकर कलरव करती चपल चंचल मानिंदा नदी, व बांयी ओर आटा पर्वत जिसके पार चीन हैं तो ठीक बीच में परियों का डांडा व बंदरपूंछ की उतुंग शिखर व दांयी हाथ में स्वर्गारोहिणी की उतुंग शिखरें दिखाई देंगी. रात्री बिश्राम के लिए यहाँ दो आप्शन हैं एक गढ़वाल मंडल विकास निगम का बदहाल सा बंगला (उम्मीद है अब ब्य्वस्थायें चाक-चौबंद हो गयी होंगी वहीँ दूसरी ओर फारेस्ट गेस्ट हाउस आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण! अगली सुबह आप मानिंदा ग्लेशियर या ब्दासु पास (जहाँ हमारी सेना सीमा रक्षा में तैनात है) जा सकते हैं यहीं से हिमाचल भी निकला जाता है. वहीँ इन हरे बुग्यालों का मीलों लम्बा सफ़र कर आप बन्दरपूंछ की श्रृंखलाओं के पादप क्षेत्र से गुजरकर जौंधार (ज्युन्धार) ग्लेशियर भी जा सकते हैं जिसका रास्ता स्वर्गारोहिणी की विपरीत दिशा से आगे बढ़ता है. यहाँ क्षेत्रीय लोग अप्रैल मई व जून तक नागछत्री नामक जड़ी की तलाश में रहते हैं जो कीड़ा जड़ी जैसी ही कीमती है.

हर की दून को आज भी स्थानीय लोग हरपु के नाम से जानते हैं. हर की दून का नामकरण कब हुआ यह भविष्य की गर्त में है लेकिन हरपु क्यों यहाँ का नाम पड़ा उसके पीछे की कारुणिक कहानी कुछ यूँ है.
एक ढ़ोल वादक जिसे आज भी लोग परियों के साथ ऊपर काली छोटी जोकि बन्दरपूंछ की ही है विराजमान समझते हैं. जिसकी सबसे कारुणिक कहानी यहाँ ओसला के हरपु नामक बाजगी (ढोल वादक) की है। दरअसल वन विश्राम गृह में रात्री विश्राम कर रहे मैं और मेरे सहयोगी उस समय अजीबोगरीब स्थिति में थे जब हमें प्रात: ४ बजे अचानक ढोल की आवाज में नौबत बजने के सुर सुनाई दिए। मुझे लगा मेरा बहम है क्योंकि पहले ऐसा लगा मानों गेस्ट हाउस के पास बह रही मानिंदा नदी के कलरव के ही ये सुर हैं. बड़ी मुश्किल से अपने सहयोगियों को झकझोर कर मैंने उठाया था. आखिर इतनी थकान के बाद भला कौन ऐसे कडाके की सर्दी में उठ खड़ा होता. ढ़ोल के सुर तेज थे उन्हें भी लगा कि कोई ढ़ोल बजा रहा है. उनींदी आँखों से उनमें से एक बोल पड़ा, सोने दो यार हम गॉव क्षेत्र में हैं यहाँ ढ़ोल नहीं बजेंगे तो क्या होगा. फिर वे सो गए लेकिन मैं नहीं सो पाया क्योंकि यहाँ से मीलों दूर तक गॉव नजर नहीं आते फिर यह कैसा ढ़ोल? मैंने टोर्च उठाई और कडाके की सर्दी के कारण रजाई छोड़ते ही पूरे बदन में ठंड की सिहरन दौड़ पड़ी. मैं कांपते हुए बाहर निकला तो देखा ढ़ोल कभी आटा पीक की ओर बज रहा है तो कभी बंदरपूंछ में स्थित काली पर्वत शिखर पर तो कभी स्वर्गारोहिणी की ओर तो कभी ठीक मेरे पीछे मनिन्दा नदी के पार बुग्यालों में ! मैं असमंजस में था कि आखिर यह अदृश्य ढ़ोल बज कहाँ रहा है! कुछ देर खड़ा रहने के बाद मुझे मानव प्रकृति अनुसार डर लगने लगा मैं भागकर कमरे में घुसा रजाई ओड़ी तो देर तक ठंड की सिहरन से रजाई और मैं कांपते रहे. कब नींद आई पता तक न चला.

अगली सुबह जब मैंने बंगले के चौकीदार चंदराम से जानकारी चाही तो पहले वह टालने लगे लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था। उनके पास वहां के भेडाल और पोर्टर हुक्का पीने के लिए बैठे हुए थे। जब वन रक्षक अमी चन्द राणा ने उन्हें उनकी भाषा में हरपु की कहानी को बताने की बात कही तो चंदराम बोल ही पड़े- साब मैं इसलिए नहीं बताता कि कहीं लोग ये न कहें कि पागल है कपोल कल्पित बातों से हमें बहलाने की कोशिश कर रहा है। मैंने कई बार लोगों से पूछा भी कि क्या तुमने भी ढोल की आवाज़ सुनी तब सबने मेरा मजाक ही बनाया। अब तक मेरे सहयोगी संजय चैहान, प्रशांत नैथानी, गौरव इष्ट्वाल भी चाय की चुश्कियाँ लेते पहुँच गए थे।
हरपु की जो कहानी सामने आई वह यह थी कि हरपु नामक बाजगी हर वर्ष भेडालों से ऊँन मांगने यहाँ आया करता था क्योंकि सारे भेडाल एक नियत तिथि पर ही भेड़ों के बाल काटा करते थे। जिसे स्थानीय भाषा में नुणाई पर्व कहा जाता है. उस वर्ष भी हरपु ढोल लेकर आया और नौबत बजाकर भेडालों के पुरखों का गुणगान करता रहा !

हंसी ठिठोली में भेडाल भी उस गरीब को कहने लगे जितना ढ़ोल बजायेगा उतना ज्यादा ऊँन तुझे देंगे. हरपु की आँखें ख़ुशी के मारे छलकने लगी क्योंकि वह ढ़ोल बजाता हुआ यह भी सोचता कि चलो इस बार कम से कम ज्यादा ऊँन तो मिलने वाली है जिस से वह अपने बच्चों के लिए ज्यादा कपडे बना पायेगा (आज भी यहाँ खुद ऊँन से निर्मित कपडे ज्यादा पहने जाते हैं) वह ढोल सागर की धुन में ऐसे उलझा कि उसने अपना सारा ज्ञान उसी में झोंक दिया। कहा जाता है कि मात्रियों (पर्वत में निवास करने वाली अप्सराओं/परियों) को हरपु का ढोल इतना पसंद आया कि वे उसे ढोल सहित उड़ाकर बन्दरपूँछ पर्वत की काली चोटी पर ले गयी तब से हरपु का सिर्फ ढोल ही सुनाई देता है वह भी किसी किसी को। इसीलिए हर-की-दून को यहाँ के स्थानीय लोग हरपु नाम से पुकारते हैं। हम भाग्यशाली थे कि हमें हरपु के ढोल की नौबत सुनाई दी वरना हम भी इस कहानी से महफूज रह जाते। कहते हैं हरपु का ढ़ोल भी किसी भाग्यशाली को ही सुनाई देता है. मैंने सूर्य की किरणों के साथ सभी उतुंग शिखरों के रैबासी देवी देवताओं परियों अप्सराओं को नमस्कार किया. वह जमीन छुई जिसने हरपु जैसे ढ़ोल सागर के ज्ञाता को इस धरा में अमर बनाया. हरपु के लिए श्रधासुमन चढ़ाए एवं उनके वंशजों के हित की कामना की. यहाँ हर शीला खंड के नीचे कोई न कोई कथा कहानी या किंवदंती छुपी हुई है शायद इसलिए इसे देव लोक या पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है। हर-की-दून का यह लेख बहुत विस्तृत हो जाएगा अगर मैं यहाँ की जानकारी देने लगूं। हरपु के जिन्दा देव लोक जाने की गवाह जहां बन्दरपूँछ के दायीं ओर की आटा पीक की पहाड़ियां हैं जिसके दूसरी ओर चीन का लाल साम्राज्य है वहीँ बायीं ओर पांडवों को जिन्दा स्वर्ग पहुंचाने की गवाह स्वर्गारोहिणी की पर्वत श्रृंखलाएं भी हैं।
बुग्याल धरा पर बिखरे प्रकृति के रत्न स्वरूपी सैकड़ों पुष्पों की प्रजातियाँ जिनमें नागछत्री, लेसर, फ़र, जयाण, ब्रह्मकमल, भेड-फूलुड़ी, भेड़गदा, जयरी, बुरांस, सिमरु, सफ़ेद कमल, विश्कंदारी, सुन्फुलुदी इत्यादि सैकड़ो पुष्प हैं जो नित देवताओं और प्रकृति का श्रृंगार कर पर्यटकों से कहते नजर आते हैं. ‘‘श्रद्धापूर्णरू सर्वधर्मारू मनोरथफलप्रदारू।श्रद्दयाम साध्यते सर्वश्रद्दया तुष्यते हरिरू‘‘।। अर्थात् श्रद्धा पूर्वक सभी धर्मों के आचरण करने वाले मनुष्यों को मनोरथ प्रदान हो,यही श्रद्धा सबके प्रेम में बसी हो तो उससे श्री हरि प्रसन्न रहते हैं.

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