हम होंगे सिनला पार एक दिन…(पार्ट -1) थल से धारचूला बरम गांव तक सफर। जहां भूस्खलन से 19 मौतें हुई थी।
(ट्रेवलाग… केशव भट्ट)
वैन आगे बढ़ी तो मन में दारमा-व्यास की रहस्यमयी घाटियों की अनदेखी तस्वीरें हिलोरें लेने लगीं। इरादा था कि दोपहर तक हम धारचूला पहुंच जाएंगे और वहां नोटिफाइड एरिया का पास बनाकर दूसरे दिन आगे बढ़ेंगे। हल्का उजाला होने लगा था और अब सड़क साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी थी. सड़क के किनारों को टेलीफोन लाइन डालने वालों ने खोदकर भयानक बना दिया था। हर बरसात सड़कों के भ्रष्टाचार की परतें कई जगहों पर उधड़कर बाहर आ जाती हैं. लेकिन बेशर्म व्यवस्था इससे बहुत खुश होती है। इन आपदाओं में उन्हें कुबेर के खजाने के दर्शन जो होने वाले हुए।

अभी कांडा ही पहुंचे थे तो वहां का दिलकश नज़ारा देख थोड़ी देर रूक गए। नीचे कांडा पड़ाव से आगे के दर्जनों गांव घने कोहरे के आगोश में गायब हो गए थे। मीलों तक जैसे कोहरे का समुद्र पसरा हुआ था। आगे बढ़े और ओड्यारी बैंड में पहुंचकर नाश्ता निपटाया ही था कि थल जाने वाली एक मैक्स जीप पहुंच गई। चाचा जी को यहां तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद दिया और हम मैक्स में सामान सहित लद लिए। घंटे भर में जीप ने हमें थल की बाज़ार में पटक दिया। यहां पता चला कि आगे डीडीहाट के रास्ते में हुई झमाझम बरसात में धरती ने भी खूब कत्थक किया है। इस कत्थक में सड़क भी कुछ उसी लय में बह गई है। कई जीपें बीच में फंसी हुई हैं। इस बीच कुछेक जीपें आई। हमारे पूछताछ करने तक भीतर व छत में आदमजात कुछ इस तरह चिपक गए जैसे पृथ्वी में जलजला आ गया हो और सुरक्षित ग्रह में ले जाने वाला एकमात्र साधन यही हो।
आधे घंटे तक यही चलता रहा तो आखिरकार हमने भी उन्हीं की तर्ज पर जीप में कब्जा करने की ठान ली। एक जीप आई तो छत में रुकसैक रखने तक वह ठस्स हो गई। महेश दा और मैं बमुश्किल एक-दूसरे की गोद में बैठ पाए। पूरन का नसीब अच्छा था, उसे पीछे लटकने के लिए थोड़ी जगह मिल गई। बीसेक मिनट बाद ही जीप पमतोड़ी नाम की जगह में रूक गई। माजरा समझ में नहीं आया. पता चला कि आगे सड़क को गधेरे का रूप पसंद आ गया है तो उसने अपना रूप त्याग दिया है। पीडब्लूडी के बूढ़े ‘जवान’ किनारे से सड़क को काट रास्ता बनाने की कोशिश में लगे थे। सवारियां उतारकर खाली जीप पहाड़ के किनारों से चिपकते हुए किसी तरह पार हो ही गई। सड़क-गधेरा पारकर सवारियां फिर से जीप में सवार हो गईं। करीब सात किमी चलकर जीप रूकी और बाकायदा बैक होकर उसने अपना मुंह वापस घुमा लिया. हमारे नीचे उतरते ही आगे डीडीहाट से आ रही सवारियों ने जीप पर हमला बोल दिया। किसी के पास कुछ सुनने-बताने का वक्त नहीं था. जल्दबाजी और हड़बड़ी मची हुई थी। जीप चालक को किराया-भाड़ा चुकाकर हम सामान कांधों में लादकर पैदल आगे बढ़ चले किलोमीटर भर चलने के बाद एक जीप दिखी तो फिर उसमें लद लिए। दो किलोमीटर चलने के बाद ही इस जीप ने भी अपनी पलटी मार ली। पायलट महोदय चालीस रूपये लेने के बाद ही माने। रुकसैक फिर से हमारे कांधों में आ गए. मुश्किल से आधा किलोमीटर चलकर घोरपट्टा पहुंचे। यहां से डीडीहाट करीब तीन किलोमीटर रह जाता है।
जीपें आपदाग्रस्तों के बीच किसी बचाव दल की तरह आतीं और और मुड़ने से पहले ही वो भर जाती थीं. हर किसी को जल्दी थी. सभ्यता और अनुशासन का मौसम नहीं था। यद्यपि हर कोई आश्चर्य व्यक्त कर रहा था- ऐसा तो उसने कभी नहीं देखा…! हमारे साइड को तो संस्कृति कभी आई ही नहीं…!! वैसे भी मैदानी क्षेत्रों की कई चीजें यहां पहाड़ में पहुंच ही नहीं पाती हैं। आप हाल तो देख ही रहे हो न पहाड़ों के यहां…!!!
चुप रहना ही सबसे अच्छा रास्ता है- इस सूत्र को पकड़कर हम तीनों बाज जैसी तेजी से आती हुई जीप पर झपट पड़े और लटकते हुए डीडीहाट पहुंच गए। यहां भी जगह-जगह सड़कें टूटी हुई थीं, खेत व मकान धँसे-बगे हुए थे। चारों ओर मायूसी व दहशत का माहौल था. सड़कों के जगह-जगह बंद होने से बीच में फंसे वाहन चालकों की मौज थी। मजबूरी में यात्री इन वाहनों में ठूँसकर तीन-चार गुना किराया देने पर मजबूर थे. डीडीहाट से फिर एक जीप ने हमें ओगला पहुंचाया। यहां भी काफी देर इंतज़ार करना पड़ा और फिर एक जीप मिली और हम धारचूला को रवाना हुए।
रास्ते में रड़ने-बगने का सिलसिला कई जगहों पर दिखा लेकिन सड़क बंद नहीं थीं। अस्कोट और फिर जौलजीबी को पीछे छोड़ जीप सरपट भाग रही थी। रास्ते भर उफनते हुए गाड़-गधेरे, काली और गोरी नदियों से मिलने को जैसे दौड़े चले जा रहे थे. दोपहर ढाई बजे के करीब धारचूला तहसील के पास चालक ने जीप रोकी हमने भी राहत की सांस ली। पहाड़ के कठिन रास्तों में पैदल चलने में जो आंनद और कौतूहल है, वह इन टूटी-फूटी खतरनाक सड़कों में अपने शरीर को दूसरे के हवाले करने वाला बखूबी समझ पाता है।
इनर लाइन पास बनाने के लिए धारचूला तहसील में पहुंचे तो वहां तमाम कर्मचारी नदारद थे। एकाध जो थे भी उन्होंने अपनी टेबल को ही तकिया मानकर मीठे सपनों में दौड़ लगाई हुई थी। पिछली रात इस इलाके के बरम गांव में भूस्खलन से उन्नीस लोग दब गए थे। लिहाजा पूरी प्रशासनिक मशीन वहीं जमी थी। काफी देर के बाद इनर लाइन पास बनाने वाली महिला कर्मचारी ने हमारी फाइल देखी। बेहद बारीकी से पन्ने पलटने के बाद भी उसे आपत्तिजनक जैसा कुछ नहीं मिला तो लगा कि जैसे ताज्जुब कर रही हो कि कैसे इन्होंने फाइल में एक-एक चीज़ परफेक्ट कर रखी है. ऊपरी कमाई का कोई रास्ता न देख उसने अनमने ढंग से कहा, “कल या परसों तक हो पाएगा” और फाइल अंदर रख ली।
नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा स्थित काली नदी के पार वाले कस्बे को दारचूला और इस पार भारतीय कस्बे को धारचूला कहते हैं। कुमाऊं मंडल विकास निगम के टीआरसी में रहने का मन बनाकर हम उसी ओर चल पड़े। एक कमरे में चार बिस्तर वाला बेड दिखा तो उस पर हम सबने हामी भर ली. सुबह से सफ़र के अनुभवों से हम सब हैरान-परेशान थे।थकावट से निजात पाने के लिए नहाने की योजना बनाई तो पता चला बाथरूम में पानी नहीं है। इन्टरकॉम पर पानी के बारे में पूछताछ की और कुछ संतोषजनक जवाब न पाकर रिसेप्शन की ओर भागे। मैनेजर ने पाइप लाइन टूटी होने की बात बताते हुए मुझे पानी की बाल्टी पकड़ा दी। बाद में पता चला कि तत्कालीन पर्यटन मंत्री प्रकाश पंत भी टॉयलट में जाने के लिए पानी का मग लेकर यहां-वहां दौड़ रहे थे। उन दिनों वह ‘उत्तराखंड में पर्यटन को कैसे बढ़ाया जाए’ की ढूंढ-खोज में छोटा कैलाश की यात्रा पर थे। अब न पंत जी रहे और न ही आज तक पर्यटन के विस्तार का उनका सपना पूरा हो सका।
बाल्टी भर पानी से हाथ-मुंह धोने को ही हम सब ने स्नान तुल्य मान लिया और पेटपूजा के लिए बाज़ार के लिए निकल पड़े. एक होटल में बमुश्किल भोजन मिला और वह भी बिलकुल बेस्वाद। भूख की वजह से उसे गले से नीचे धकेल ही रहे थे की दारचुला में इफरात में मिलने वाली शराब के नशे में चूर कुछ सूरमाओं ने नेपाली-हिंदुस्तानी में आपस में भिड़ना शुरू कर दिया। उन्हें शांत कराने के वजाय दुकानदार भी कब युद्ध में शामिल हो गया, हमें पता ही नहीं चला। बमुश्किल बिल चुकाकर हम खाना छोड़ वहां से भाग खड़े हुए. (जारी…)