हम होंगे सिनला पार एक दिन…! देहरादून से थल तक…!

(ट्रेवलाग 5-6 सितंबर 2007…केशव भट्ट)

वर्ष 2001 में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से एडवांस कोर्स करने के बाद प्रातःकालीन भ्रमण का एक नियम सा बन गया था. तब सुबह के साथी मित्र पंकज पांडे हुआ करते थे. सुबह के वक्त पहाड़ी रास्तों में गपशप करते हुए हम दसेक किलोमीटर का चक्कर लगा लेते थे। मन करता था ये रास्ते और सफ़र कभी ख़त्म न हों। हर सुबह किस्से-कहानियों और अनदेखे रास्तों-दर्रों की ही फसक रहती। नए गंतव्यों तक ट्रैकिंग की कल्पनाएं बनती-बिगड़तीं।

‘पहाड़’ के तब के अंक में गंगोत्री गर्ब्याल का यात्रा वृतांत ‘मायके की ओर’ पढ़ा तो मन ब्यास घाटी के लिए तड़पने लगा। तब 2006 में बागेश्वर में करन सिंह नागन्याल पुलिस अधीक्षक के पद पर थे. उनका गांव दारमा घाटी के नागलिंग गांव में है। दारमा और व्यास की घाटियों के ढेरों किस्से वह बड़े मजेदार ढंग से सुनाया करते थे। उनकी बातों से मन दारमा-व्यास की रहस्यमयी घाटियों में भटकने लगता। वह व्यास से सिनला पास होते हुए दारमा ट्रैक करने पर जोर देते थे. “अरे! जब दातु गांव में पहुंचोगो न.. तब सामने पंचाचूली और उसके ग्लेशियर को देखते ही रह जाओगे… और ज्यौलिंकांग में पार्वती ताल में आदि कैलाश का प्रतिबिंब के तो कहने की क्या…! और उस वक्त हवाएं रूकी हों तो फिर समझो आपके भाग खुल गए और सिनला पास से तो चारों ओर हिमालय दिखता है… समझ में नहीं आता है कि चारों दिशाओं में हिमालय कैसे फैल गया है…! एक बार जाओ तो सही वहां… बहुत आनंद आएगा…!”

वर्ष 2007 में मैंने उन्हें बताया कि हम पांच दोस्त सितंबर में इस यात्रा पर जा रहे हैं तो वह बहुत खुश हुए। उन्होंने हमें धारचूला से परमिट बनाते वक्त नोटिफाइड एरिया के परिचित लोगों के कॉलम में उनका नाम और पता लिखने की सलाह दी। हमारी यात्रा से वापस आने तक उनका तबादला देहरादून हो चुका था और अभी वह उंचे ओहदे में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
इस साहसिक यात्रा में मेरे साथ महेश जोशी, पूरन जोशी, पंकज पांडे और संजय पांडे शामिल हुए। 5 सितंबर 2007 को जाना तय हुवा। व्यास घाटी में ऊं पर्वत, आदि कैलाश, सिनला दर्रा पार कर दारमा से परिक्रमा करने के लिए दो टैंट, रुकसेक, रोप, स्लीपिंग बैग, मेट्रेस, किचन का सामान, जरूरी दवाइयों समेत अन्य जरूरी सामान के बोझ तैयार कर लिए गए।

नैनीताल से महेश दा पहुंच चुके थे। इस बीच पंकज के बड़े भाई के एक मित्र का एक्सीडेंट हो गया, तो वह मित्र को लेकर हल्द्वानी चले गए। उन्होंने आश्वस्त किया कि वह 5 को पहुंच जाएंगे। यात्रा एक दिन टल गई. पंकज के बड़े भाई 5 को नहीं पहुंचे तो तय हुआ कि मैं, महेश दा और पूरन 6 तारिख को निकल पड़ेंगे और आगे गर्ब्यांग में रूककर पंकज और संजय का इंतजार करेंगे. गर्ब्यांग में मित्र हीरा परिहार ‘कैलाश मानसरोवर’ यात्रा ड्यूटी में था तो उस के पास इंतजार करने की बात तय हो गई।

6 सितम्बर 2007 की वह मीठी सुबह थी, जब हम तीनों तैयार होकर सामान सहित चौक बाजार राज दा की दुकान के बाहर पहुंचे। थल के लिए गाड़ी मिलने में देर में थी तो ससुराल की वैन से उड्यारी बैंड तक जाने का निश्चय किया. मेरे ककिया ससुर हमें छोड़ने को तैयार हो गए। कुछ देर में राज दा आए और उन्होंने एक पोटली में खट्टी-मीठी टॉफी, नमकीन, चॉकलेट के साथ-साथ ‘हिमालियन मांउटेनियरर्स’ संस्था का बैनर हमें थमाया। पिंकू और संजय पहले पहुंच चुके थे. गाड़ी के आगे क्लब का बैनर लगाकर फोटो सेशन से यात्रा का आगाज़ हुआ। पिंकू और संजू कातर नजरों से हमें जाते हुए देख रहे थे। गनीमत थी कि वस दहाड़ें मार के रोये नहीं!
(ज़ारी…)

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