हम अपने गांव को यूं ही मर जाने नहीं देंगे। नैल गांव के युवाओं ने पेश की अदभुत मिशाल।

*हम अपने गांव को यूं ही मर जाने नहीं देंगे।*

 *माना कि बहुत; गहरे हैं अंधेरे,
हौसलों की रौशनी अभी बाकी है।
* 15 वर्षों के बाद नैल गांव के खेतों में फिर से हल चलने लगा।
(मनोधर नैनवाल)
जनपद पौडी के कल्जीखाल विकास खँड का नैल गांव।
कभी सेरे-घेरे और साग-सग्वाड़ी के लिए प्रसिद्ध इस गांव पर पलायन का ऐसा प्रकोप हुआ कि 25 वर्षों के अंतराल में देखते ही देखते 82+5(दास परिवार) मवासों वाले इस गांव में केवल 15 परिवार रह गए। गाँव के मूल वासिंदों की संख्या 830 से भी अधिक है किंतु गांव में कुल जमा 34 लोग शेष रह गए।

खेत-खलिहान, घर-मकान देखते ही देखते उजाड़-वीरान होने लगे।गांव के 6 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैले हजारों खेत देखते ही देखते बंजर हो गये। उनपर घनी झाडियों का कब्जा हो गया। गांव की बाहरी सीमाओं पर सीमित जंगल साल दर साल गया गांव के चारागाहों, सेरों, खेतों को घेरता हुआ समूचे गांव को निगलने को मुंह बाये आगे बढ़ने लगा। गांव में बचे खुचे लोगों द्वारा जो थोड़ी बहुत खेती-सब्जी उगाई जा रही थी वह गूणी-बांदर और सौली-सुंगर का ग्रास बनने लगी। गांव इंसानी बस्ती कम और भूतों का डेरा अधिक नजर आने लगा।

ऐसी विकट स्थितियों में भी गांव में बचे-खुचे लोगों ने हौसला नहीं छोड़ा। गांव से बाहर बस चुके लोगों से संवाद कायम किया। गाँव के प्रति अप्रवासियों को जोड़ने के लिये गांव में कुलदेवियों का मंदिर निर्मित करने की योजना बनी। सभी अप्रवासियों ने बढ़ चढ़ कर मंदिर निर्माण में सहयोग किया। लगभग 40 लाख रुपये की लागत से मंदिर के साथ ही दो विशाल और भव्य धर्मशालाऐं भी निर्मित की गई। इसके साथ ही मंदिर में प्रतिवर्ष ग्रामोत्सव एवं धार्मिक आयोजन किया जाने लगा। सैकड़ों की संख्या में अप्रवासी प्रत्येक वर्ष गर्मियों एवं अवकाश काल में गांव की ओर लौटने लगे। लगभग सभी उजाड़-वीरान हो चुके मकानों की मरम्मत होने लगी। लेकिन बंजर पड़ चुकी खेती को फिर से आबाद करने की कोई राह नहीं बन पाई। क्योंकि उस पर बड़े-बड़े पेड़ और घनी झाड़ियां उड आई थी। बंजर जमीन पर वृक्षारोपण भी असफल रहा। गांव में रह गये अधिकाँश लोग बुजुर्ग हैं इसलिए गौड़ी-बाछी, हल-जोल की बात तो बेमानी हो गई। वर्षों से बंजर हो गये खेतों को फिर से आबाद करना नामुमकिन सा लगने लगा। लेकिन गांव में रह रहे लोगों के हौसले अब भी मजबूत थे, कि अपने बाप-दादा के बसाये गाँव को यूं ही नहीं मर जाने देंगे।
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फिर नये सिरे से कोशिशें शुरू हुई। प्रयोग के तौर पर दो शिक्षकों ने 5-5 हजार रुपए की धनराशि मिलाकर दो बड़े खेतों से झाड़ियां साफ करवाई और उसपर हल चलवाकर सरसों और मसूर की फसल तैयार की। फिर तोर लहलहाई। दो खेतों को फिर से फसलों से लहलहाता देख अन्य सभी के हौसले बुलंद हो गए।
इस वर्ष सभी ग्रामीणों ने मिलकर नैल गांव के चमेड़ा तोक को आबाद करने का बीड़ा उठा लिया है। एक सहकारी समिति का गठन किया गया है। सिंचाई के लिये मनरेगा के अंतर्गत एक हौज भी निर्मित कर लिया गया है। पूरे तोक की झाड़ियों और कुकाट पेड़ों को काटकर खेतों में हल चलाया जा रहा है। इस पूरी जमीन पर चन्द्रप्रकाश(चंदू) और चंद्रशेखर(चुन्ना) के नेतृत्व में सब्जी एवं नकदी फसलों की खेती करना तय किया गया है। सभी ग्रामवासी इस कार्य में निस्वार्थ भाव से सहयोग और श्रमदान कर रहे हैं। यह भी तय किया गया है कि इसी प्रकार प्रतिवर्ष गांव के निकटवर्ती सभी तोकों को एक-एक कर आबाद किया जायेगा।

यद्यपि इस कार्य में अत्यधिक लागत और मेहनत लग रही है और इस कार्य में लगे लोगों का मानना है कि यदि मंदिर निर्माण की ही भांति ग्राम-निर्माण के इस पुनीत कार्य में भी अप्रवासियों का भरपूर सहयोग मिलता है, तो वह दिन दूर नहीं जब यह गांव आसपास के गांव को भी रोजगार देने में सक्षम हो सकेगा। साथ ही गांव के जो युवा शहरों में कठिन हालात में जीवन यापन कर रहे हैं वे भी वापस गांव आकर स्वरोजगार को प्ररित होंगे।
गांव में भले ही गिनती के लोग बचे हैं, उनकी उम्र भले ही बहुत अधिक हो चुकी है, लेकिन उनके हौसले देखकर ये यकीन होता है कि ये गांव इतनी आसान मौत मरने वाला नहीं। यहां एक बार फिर से रौनक जरूर लौटेगी।

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