सोना उगलती उत्तरकाशी की रवांई घाटी के रामा व कमल सिराई माटी!

(मनोज इष्टवाल)

बचपन में अक्सर पढ़ा करते थे कि मिस्र को नील नदी का वरदान प्राप्त है लेकिन यह कभी किसी लेखक ने नहीं लिखा कि रवाई घाटी को कमल नदी का वरदान है! आप उत्तराखंड के परिदृश्य में जब भी यहाँ की घाटियों वादियों का भ्रमण करते हैं तब आपका मन इसी धरा पर घर बनाकर रहने का होता है क्योंकि इसकी अकूत प्राकृतिक सौन्दर्य व भोला-भाला जनमानस आपको अपने सम्मोहन में बाँध लेता है लेकिन इसका दूसरा और सबसे कमजोर पक्ष से आपका सामना तब होता है जब आप यहाँ के रैबासी हो जाते हैं क्योंकि तब आपकी दैनिक दिनचर्याओं में सम्मिलित ऐशो-आराम समाप्त हो जाता है लेकिन एक चीज आपको आनन्दित जरुर करती है और वह है आपका स्वास्थ्य लाभ!

कमलसिराई के बीचोबीच बहती कमल नदी!

आइये आज आपको रवाई घाटी के उस दिव्य लोक में ले जाऊं जहाँ का समाज सिर्फ अपनी कृषि व्यवस्था पर बर्षों से टिका रहा और पूरे गढ़वाल मंडल का ही ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश व हिमाचल के कई जिलों का अन्नदाता कहलाता है! यही नहीं इस घाटी के लाल चावल विश्व भर के कई देशों में निर्यातित किये जाते हैं! रामासिराई पुरोला बाजार का उपरी क्षेत्र व कमलसिराई निचला क्षेत्र कहा जा सकता है! यहाँ हिमनदों से निकलने वाली केदार गाड़ के अलावा कई छोटे बड़े गाड़ गदेरे आगे चलकर कमल नदी के रूप में पुकारी जाती है! यह नदी अपने उद्गम स्थल से 30 किमी. चलकर रामा सिराई व कमल सिराई के दोनों छोरों पर स्थिति लगभग 4600 हैक्टेअर भूमि को सिंचित करती है! जिसमें सचमुच अन्न रुपी सोना उगता है!

कालान्तर में यह क्षेत्र कई छोटी बड़ी ठकुराई में बंटता बढ़ता रहा ! इनमें रामा सिराई के मूल का ठाकुर या थोकदार शिबदयालु हुए, जराम (रामा) की धरती या थाती का मालिक रामासुर राजा कहलाया! थोड़ा सा नीचे आकर आप जब गुन्दियाट गाँव पहुँचते हैं तब यहाँ के मडचु गुन्दियाटी का जिक्र आप यहाँ के लोक पारम्परिक गीतों में सुनेंगे! थोड़ा सा और नीचे की ओर आने पर कंडियाल गाँव की सरहद को बाजा बड़ेरी (बाजा बडियारी) का क्षेत्र माना जाता है! इस तरह क्रमशः मरगाँव में मौरा थोकदार, दूनागिरी के हाट में राजा कवरिपाल, तेगडा गढ़ का गढ़पति तंगनियाँ राऊ (रावत) हुए, सुनाल्या गढ़ का गढ़पति सुनाल्या दामणु का क्षेत्र बताया जाता है! गुन्याडा की थाती माती को परवंश यानि पंवार वंशी राजा की भूमि माना जाता है जबकि घुल्याटू के उस पार का इलाका घोटालू के पारु यानि परी का या परियों के वंशजों से जोड़कर देखा जाता है!

बांये से दांयें समाजसेवी राधा बहन, वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी, वरिष्ठ पत्रकार दिनेश कंडवाल के साथ कमलसिराई घाटी में !

साटी और पान्शाई का जिक्र हमेशा देवलांग त्यौहार में होता आया है ! रवाई के इस क्षेत्र में ढन्ढारि (ढकारी) को पांसई रौतेली यहाँ के लोकगीतों में बताया जाता रहा है! अब यह पांसई क्या पान्शाई कबीले की थाती है या कुछ और इस पर अभी अध्ययन करना जरुरी है! यहाँ कुछ शब्द जो राऊ कहकर कहे जा रहे हैं वह रावत या राजा से समतुल्य कहे जा सकते हैं क्योंकि कुमोला क्षेत्र अंगडिया राऊ या राजा का बताया जाता रहा है! वहीँ करडा भन्तारु नामक राजा, थोकदार, ठाकुर या फिर काबिला सरदार को करड की थाती का स्वामी माना जाता है जबकि नेत्री की जमीन को राजा चंदीसुर की थाती के रूप में यहाँ का जनमानस पुकारता है!

इसके अतिरिक्त भी इस क्षेत्र के अलग अलग भू-भागों पर छोटे बड़े थोकदार या कबीलाई लोगों की कालान्तर में बसासत रही है जिनमें खलाड़ी क्षेत्र में घुघुतिया राजा, ड़ोलाडी का डोलू सुंग (सुंडड), व सिमाली गढ़ सात भाई द्युराळ के नाम से जाना जाता रहा है! यह सब इतिहास में कहीं दर्ज हो या न हो लेकिन यहाँ की हारुलों में ये सब नाम वर्तमान तक जीवित हैं! इन सबके अपने अपने खुंद थे लेकिन इनकी दिनचर्या में शिकार करना, कृषि करना व भेड़-बकरी व गौ पालना मुख्य पेशे के रूप में जाना जाता था! अगर यह कहा जाय कि यहाँ के लोग काफी श्रमजीवी रहे तो कोई गलत नहीं है !

पुरोला तहसील के रामासिराई क्षेत्र के गुंदियाट गाँव, नागझाला, डिकाल गाँव, कंडियाल गाँव, पोरा, बसंत नगर, रामा, बेस्टी, महर गाँव, कंडिया, रेवड़ी आदि गाँव हैं जहाँ लाल चावल बड़ी मात्रा में उगाया जाता है व यहाँ से यह चावल हिमाचल में सबसे अधिक मात्रा में बेचा जाने लगा है। प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में भी लाल चावल का उल्लेख पाया जाता है जिसमें लाल चावल को रोग प्रतिरोधक के साथ-साथ पोष्टिक बताया गया है। 


पश्चिमी गढ़वाल के पट्टी फतेपर्वत,. पंचगाईं, सिंगतूर, बंगाण, बनाल-ठकराल, गीत-बजरी,. और रामासिराई तथा कमलसिराई में चीड़, देवदार, बाँज, बुराँस, कैल, मोरू, रैई, मुरण्डों आदि के अनकों घने वन हैं।  मार्च-अप्रैल से अगस्त-सितम्बर तक ब्रह्मकमल, फेण कमल, लेशर, जंयाण, सौसुरिया, प्रिमुला, प्रिमरोज, एलियम फिटिलेरिया, पौपी, लिली, रैननकुलस आदि सैकड़ों किस्म के फूल खिलते रहते हैं। हरी-भरी दूब पर विषकण्डार, सूरजकमल, जंगली गुलाब आदि अनेकों पुष्प किसी रत्नजटिल आभूषण के समान सुशोभित होते हैं। यहाँ पर नाग आदि के प्राचीन मन्दिर हैं। सुक्खी-धराली की फूल घाटियाँ मीलों तक फैली हैं।


रवाई के रामा सिराई, कमल सिराई के 130 गांव की सैकड़ों नाली भूमि पर लाल चावल की फसल लहराने लगी है। कमलसिराई क्षेत्र में पत्तागोभी, फूलगोभी, बैंगन, गाजर, सेम, खीरा, भिन्डी, प्याज
मटर, आलू , टमाटर का सबसे अधिक उत्पादन होता है और यही कारण भी है कि यहाँ की कृषि यहाँ की दैनिक दिनचर्या का सबसे बड़ा साधन समझा जाता रहा है ! वर्तमान में भले ही रवाई घाटी के ज्यादात्तर लोग सरकारी व अर्द्धसरकारी व गैर सरकारी क्षेत्रों में भी नौकरियां करने लगे हैं लेकिन यहाँ पलायन का रेशो अन्य क्षेत्रों से ना मात्र कहा जा सकता है! यहाँ के लोग कमल नदी को इस क्षेत्र का वरदान मानते हैं और कहते हैं कि इसी नदी के कारण उनके लगभग 130 गाँव अपना जीविकोपार्जन करते आ रहे हैं! इसी माटी में एक लाल ऐसे भी जिन्होंने अपनी बागवानी से उत्तराखंड ही नहीं बल्कि हिमाचल राज्य में भी अपने को कृषि बिशेषज्ञ के रूप में पहचान अर्जित की! कृषक युद्धवीर सिंह के यहाँ हर सीजन में कोई न कोई फल व तरकारी आपको मिल जायेगी! इनकी देखादेखी में यहाँ का जनमानस अब बागवानी की ओर भी आकर्षित हो रहा है जो इस घाटी के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तराखंड के लिए एक अच्छी शुरुआत कही जा सकती है!


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