सुशील बहुगुणा की यह टिप्पणी पत्रकारिता जगत के उन लोगों को जरूर पढनी चाहिए

लगातार तीसरी बार प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड हासिल करने वाले एनडीटीवी के पत्रकार सुशील बहुगुणा ने सोशल साईट पर ट्वीट किया:-

नाचीज़ के नए साल की शुरुआत इस प्रतिष्ठित सम्मान से. इससे ज़्यादा क्या चाहिए. रामनाथ गोयनका अवॉर्ड पाकर अभिभूत हूं. स्वभाव में संकोच कहीं रचा बसा है तो दोस्तों की ढेर सारी शुभकामनाओं के बीच कुछ समझ नहीं आया कि अभिवादन की शुरुआत कैसे करूं. आप सबका प्यार और समय-समाज-पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव बना रहे, यही कामना है. न्यूज़ डेस्क से बाहर निकलकर थोड़ी बहुत कोशिश करता हूं कुछ करने की और उसे जब सम्मान और स्वीकार्यता मिलती है तो बहुत संतोष होता है. 
ये सम्मान टीवी के परदे के पीछे डेस्क, एडिटिंग, कैमरा, ग्राफिक्स और प्रोडक्शन के उन नायक-नायिकाओं को समर्पित है जो बिना किसी पहचान और सम्मान के मोह के स्क्रीन को बनाने-सजाने में अपनी जी जान लगा देते हैं. आपकी काबिलियत परदे के आगे के लोगों की कामयाबी बनती है. आप जैसे साथी हैं तो टीवी है, फिल्म है. आप लोग हैं तो हम हैं. आपको दिल से सलाम.
(वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास की कलम से)
बेशक पत्रकारिता में आए कुछ लोगों ने इस पेशे को ताकत, ग्लैमर और सपन्नता से जोड़ लिया हो , लेकिन अगर आप सुशील बहुगुणा के पत्रकारिय जीवन को देखें तो महसूस करेंगे कि वास्तव में यह पेशा आपसे यही अपेक्षा करता है कि कहीं न कहीं सुशील बहुगुणा जैसे व्यक्तित्वों की तरह नजर आएं। चाहे फिर आप राजनीति , पर्यावरण, खेल, अर्थ कला साहित्य, समसामयिक किसी भी विषय पर अपना काम करते हों।
पत्रकारिता में एक विद्रुप यह देखने को मिला है कि केवल उसे भारी भरकम पत्रकार मान लिया जाता है जो राजनीति या प्रशासन पुलिस आदि पर काम करता हो। इसका असर यह है कि नया नया जोश में भरा पत्रकार नौकरी लगने के बाद पहले दिन राज्य के गृहमंत्री कीबाइट चाहता है। उसकी इच्छा होती है कि वह जल्दी मुख्यमंत्री या पुलिस महानिदेशक से मुलाकात कर ले। उसे या तो मुखयमंत्री से मिलना है या मुंबई जाकर शाहरूख खान से। या राज्य के पुलिस महानिदेशक से। नया या पुराना खुर्राट, जिन लोगों को यह सौभाग्य मिलता है उनमें 80 प्रतिशत फिर जमीन पर चल नहीं पाते। सामान्य लोगों से मिलने जुलने में उन्हें गर्दन में अकडन होने लगती है। वे केवल डीएम कमीश्नरों से ही बात कर पाते हैं। बांज खडीक देवदार , सरु ताल या कोडईकनाल, गंगोत्री ग्लैशियर, सामुदायिक रेडियो, झूम खेती सहकारिता पर बात करना उन्हें समय गंवाने जैसा लगता है।
इस नजरिए ने पत्रकार बनने वाले युवाओं को इस दिशा में रोका है कि वह पर्यावरण , कृषि, साहित्य कला जैसे विषयों पर पत्रकारिता कर सकें। कुछ नहीं तो टीवी पर्दे की चाहत ऐसी है कि नए पत्रकारों को लगता है कि पत्रकारिता में जो कुछ हुआ है वह कुछ टीवी चेहरों या समाचार सुनाने वालों या बहस कराने वालों की वजह से हुआ है।
सुशील बहुगुणा को लगातार तीसरी बार प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड हासिल हुआ है। पर्यावरण पर यह असाधारण उपलब्धि है। इस मायने में कि उल्लेखनीय योगदान के लिए दिए जाने वाले इस अवार्ड की कसौटी बहुत कठिन है। लेकिन क्या बात है कि उनकी हैट्रिक बनी है।

पहाडों में रहने वाले व्यक्ति का ऊंचे ऊंचे पर्वतों नदी सरोवरों से एक लगाव होना स्वाभाविक है। प्रकृति को उसके सौंदर्य , रहस्य में देखने वाले कवियों लेखकों ने उसकी चिंता भी की है। और मानवीय जीवन को समय समय पर सजग भी किया है। सुशील बहुगुणा की पत्रकारिता केवल पर्यावरण की ही नहीं रही। अपने टीवी संस्थान में वह ऐसे दायित्वों को निभाते रहे हैं जिसमें हर तरफ गंभीरता से चौकसी करनी होती है। हर पहलू को आंकना होता है। लेकिन जिस तरह सुर का रसिया जब मौका मिले हारमोनियम बाजे की ओर लपक लेता है उसी तरह सुशील बहुगुणा को भी जब थोडा भी समय मिला वे ऊंचे पहाडों की ओर निकल गए। चोटियों ग्लेशियरों को निहारा , उसका गहन अध्ययन किया, उनकी दशा को समझा जाना और अपने विवेकशील चिंतन से समाज को जागृत किया। फिर चाहे ऊंचे पिघलते ग्लेशियर हों, हिमालय की ऊंची श्रेणियां हों , जास्कर श्रेणी या फिर केदारनाथ की आपदा, मंडराते पंचेश्वर बांध से जुडे पहलू। सुशील बहुगुणा ने अपने काम को पूरी संजीदगी से किया है।

उनकी उपलब्धियों का महत्व इसलिए भी है कि वे उस उत्तराखंड से हैं जहां इन दिनों पत्रकारिता को रसूख का क्षेत्र मान लिया गया है। जहां पत्रकारिता में आना सामाजिक दायित्व और सरोकार से ज्यादा इस बात का प्रतीक बन गया है कि शासन नौकरशाही से करीबी हो। पत्रकारिता आपको तंत्र पर मजबूत घुसपैठ करवा दे। सत्ता या विपक्ष से आपकी ऐसी दोस्ती हो कि आपके निजि हित फलते फूलते रहें।
लेकिन ऐसी अपेक्षा सुशील बहुगुणा ने नहीं की। उन्हें अगर प्रसिद्ध रामनाथ गोयनका अवार्ड से नहीं भी मिलता तो वह प्रकृति की सेवा इसी तरह करते रहते। और हर बार की तरह किसी अनजान सी बनी दिशा की ओर निकल पडते। आगे भी वह यही करते रहेंगे। शासन सत्ता की जगह प्रकृति उन्हें पुकारती है। 
पत्रकार होने के बावजूद वह बहुत विनम्र हैं। यह बात लोगों को चौंकाती है। ऐसे समय में जब न जाने किन किन ने देश भर अपने फोलोवर ग्रुप बनाकर हौवा बनाने का काम किया है, सुशील बहुगुणा अपनी उपलब्धियों को अपने साथियों को बांट रहे हैं। 
कभी दादा साहब फाल्के अवार्ड मिलने पर राजकपूर ने यही कहा था मैं कही नहीं होता अगर ये गाने वाले , ये फिल्मी कैमरे वाले ,ये लिखने वाले ये कलाकार नहीं होते। यही शब्द राजकपूर को राजकपूर बनाते हैं।
सुशील बहुगुणा ने इस प्रतिष्ठित अवार्ड के बाद लगभग यही शब्द कहे हैं कि अवार्ड उन्हें मिला है लेकिन सहयोगियों का साथ महत्व रखता है। सुशील बहुगुणा की यह टिप्पणी पत्रकारिता जगत के उन लोगों को जरूर पढनी चाहिए जो अपनी पत्रकारिता के जरिए इन दिनों सत्ता को लाने या बदलने या कायम रखने का दंभ पाले हुए हैं। जिन्होंने ब्रांड बनकर इन दिनों पत्रकारिता की रंग बिरंगी दुकानें सजाई हुई हैं। पत्रकारिता में चुपचाप अच्छे काम भी हो रहे हैं और खूब हो रहे हैं सुशील बहुगुणा की उपलब्धि उसकी एक अच्छी झलक है।

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