सुगौली संधि….! अंत तक संघर्ष किया गोरखाली सेना ने! इतना आसान काम नहीं था यह ब्रिटिश एम्पायर के लिए!
(मनोज इष्टवाल)

यह तो तय है कि हर अति किसी भी साम्राज्य, सम्राट या सेना की अच्छी नहीं होती! बेजुबान लाठी की ताकत ऐसी होती है कि आवाज तक नहीं आती! और…जब आवाज आती है तो उसका पतन इतनी तेजी से शुरू होता है कि उसे पानी पूछने वाला भी नहीं होता! कुमाऊं में 18 व गढवाल-हिमाचल में लगभग 11 बर्ष राज करने वाली गोरखाली सेना के दुर्दांत वृत्तांत इतिहास में कई जगह दर्ज हैं लेकिन यह भी आश्चर्यजनक सत्य है कि गोरखा सेना द्वारा अपनी सेना में भर्ती गढ़-कुमाऊं सैनिकों को अपना सा सम्मान दिया व उनके घर परिवार से रोटी-बेटी के रिश्ते कायम किये! यही कारण भी रहा कि जब कुंवर बलभद्र नालापानी छोड़कर भागा तब उसके साथ गढ़वाली सैनिक भी थे जो पंजाब के राजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हो गए थे!
सुगौली संधि से पूर्व तक यही गोरखा सेना लगातार 25 बर्ष तक पूर्व में भारत के सिक्किम से लेकर पश्चिम में कुमाऊं, गढ़वाल व हिमाचल के सतलुज कांगड़ा तक अपना राज्य विस्तार करती चली गयी! गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा द्वारा कांगड़ा फतह करने के लिए जब राजा संसार चंद पर आक्रमण किया तब सन 1809 में राजा रणजीत सिंह की बिशाल सेना ने उन्हें वहां से खदेड़ बहार किया! इतिहास में यह सेनापति अमर सिंह थापा की सबसे बड़ी हार बताई जाती है!
सबसे बड़ा दुस्वप्न गोरखा राज्यकाल को गढवाल ही बना! क्योंकि यहाँ से हार के बाद वे लगातार हारते और भागते गए! बमशाह व अमर सिंह थापा द्वारा कुमाऊं व मलाऊ हारने के पश्चात समझौते पर हस्ताक्षर तो कर दिए थे लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी को उन पर विश्वास नहीं था! इधर विलियम फ्रेजर ने कियारदादून, देहरादून और श्रीनगर गढवाल तथा एडवर्ड गार्डनर ने कुमाऊं की आरंभिक व्यवस्था संभाल ली थी!
यहाँ तत्कालीन गवर्नर जनरल इतने से ही संतुष्ट नहीं थे क्योंकि एक मात्र गोरखा सेना ही ऐसी थी जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी को लड़ाई के हर क्षेत्र में नाकों-चने चबवाये थे इसलिए वह नेपाल को सिर्फ एक बफर जोंन तक सीमित कर देना चाहता था! उधर नेपाल नरेश रणबहादुर भी इस बात को भले से समझ चुका था कि कुमाऊ के साथ मलाऊ पर भी अब ब्रिटिश सेना का अधिकार हो गया है तो अब काठमांडो भी ज्यादा दिन तक सुरक्षित नहीं रह सकता, क्योंकि लगातार युद्धों के कारण उनकी आर्थिकी बेहद कमजोर हो गयी थी ऐसे में उन्होंने अपने गुरु गजराज मिश्र जो उन दिनों बनारस में एकांतवास पर थे, की ढूंढ की व उन्हें ब्रिटिश एम्पायर से मध्यस्तता करने का अनुरोध किया! नेपाल के राजा व भीमसेन थापा के अनुरोध पर गजराज मिश्र, चन्द्रशेखर उपाध्याय को लेकर काठमांडो पहुंचा और एक ही हल निकाला कि किसी तरह ब्रिटिश सेना से संधि कर ली जाय!
नेपाल नरेश से अधिकार पत्र व लाल मुहर लेकर गुरु गजराज मिश्र व उपाध्याय ने 28 मई 1815 को सुगौली नामक स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के ले. कर्नल ब्रॉडशौ से भेंट की! ब्रॉडशौ द्वारा गवर्नर जनरल की शर्ते सामने रखते हुए कहा गया कि इस संधि में भारत का समस्त विवादित क्षेत्र जो सतलुज से लेकर सिक्किम तक है, के अलावा काली नदी से लेकर तीस्ता तक की सारी तराई, तथा कालिनदी से पश्चिम के सारे प्रदेश ब्रिटिश सरकार के लिए व नगरी तथा नगरकोट के प्रदेश सिक्किम के राजा के लिए छोड़ने होंगे!
इस पर गजराज मिश्र ने स्पष्ट रूप से इनकार करते हुए कहा कि दरवार ने मुझे इतने विस्तृत प्रदेश को त्याग देने के लिए अधिकृत नहीं किया है और न ही काठमांडो में कोई भी दल इतने विस्तृत प्रदेश को छोड़ देने के पक्ष में है! गवर्नर जनरल हेस्टिंग द्वारा इस संधि वार्ता को बंद कर एडवर्ड गार्डनर को आदेश दिया गया कि वह इस मामले में आगे की वार्ता बमशाह से करें!
4 जुलाई 1815 को नेपाल राजा द्वारा बमशाह को संधिवार्ता के लिए अधिकृत किया! स्वास्थ्य ठीक न होने से बमशाह द्वारा अपने भाई सल्याण के सुब्बा रुद्र्वीरशाह को गार्डनर के साथ संधिवार्ता के लिए अधिकृत किया! गार्डनर की शर्ते सुन सुब्बा रूद्रवीर भड़क गया व संधिवार्ता विफल हुई!
जब यह बात पश्चिम के सेनापति अमर सिंह थापा व रणजोर सिंह था व अन्य सरदारों को पता चली तब उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया व ब्रिटिश सेना को युद्ध क्षेत्र में देख लेने की ललकार लगाईं! इस सबको देखते हुए 22 जुलाई 1815 को गवर्नर जनरल ने नेपाल नरेश को धमकी भरा पत्र भेजा! इधर अमर सिंह थापा द्वारा राजा को विश्वास दिलाया गया कि अंग्रेजो के विरुद्ध उन्हें चीन के राजा व तिब्बत के लामाओं सहयोग मिलने की आशा है! दरवार को यह भी खबर मिली कि उनकी सहायता के लिए चीन की सेना ने डिगार्डी के लिए प्रस्थान कर दिया है! यह खुफिया जानकारी गवनर जनरल तक पहुँच गयी थी अत: उन्होंने अख्तरलोनी को तुरंत आदेश जारी किया कि वे नेपाल पर युद्ध की तैयारी करें!
मेजर जनरल जौन वुड 5000 सैनिको व तोपों के साथ गोरखपुर के उत्तर में स्थित तराई होते हुए पाल्पा, तेनजिंग और नेपाल उत्पयका से पश्चिमी प्रांत, ले. कर्नल जेस्पर निकोलस 6500 सैनिकों व 20 तोपों के साथ पीलीभीत होकर डोटी, कैप्टिन लैटर तितलिया में सीमा की सुरक्षा का जिम्मा देखते हुए सिक्किमवासियों को नेपालियों द्वारा अधिकृत दुर्ग का घेरा डलवाने व मुख्य सेना को लेकर अख्तरलोनी मकवानपुर पर अधिकार करेगा और अगर तब भी नेपाल नरेश संधि को तैयार नहीं हुआ तो चारों दिशाओं से आक्रमण कर काठमांडो पर अधिकार किया जाएगा! इधर एडवर्ड गार्डनर को कूटनीति के तहत कहा गया कि वह बमशाह व सुब्बा रूद्रवीर को डोटी का स्वत्रंत राजा बनाने का प्रलोभन भी दे!
इस अभियान में 35 हजार सैनिक व 100 से अधिक छोटी बड़ी तोपें शामिल थी जबकि नेपाली सेना के पास मात्र 12000 सैनिकों के होने व थोड़ी सी जंजाल तोपें थी, जिनके गोले दो छटांग से बड़े नहीं होते थे! गवर्नर जनरल हेस्टिंग्ज सैन्य शक्ति से ही नेपाली सेना को डराना चाहता था ताकि बिना युद्ध के ही मनचाही संधि पर हस्ताक्षर हो जाएँ! लेकिन भला गोरखा यह कहाँ मानने वाला था! नवम्बर 1815 में सारन के सीमान्त स्थित बलवी नामक स्थान से अख्तरलोनी ने सैनिको को तीन भागों में विभक्त कर चूडिया पहाड़ी से भिछाखोरी घाटे पर अधिकार की योजना बनाई! गोरखा सेना ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाते हुए ब्रिटिश सेना के इस धावे को नष्ट करने की योजना बनाई थी! वहीँ 30 मील पश्चिम की ओर ले. कर्नल निकोलस ने पांच हजार सैनिकों के साथ राप्ती घाटी से महाजोगी मार्ग पर अख्तरलोनी से मिल जाना था! अख्तरलोनी के दाहिनी ओर 35 मील दूरी से 4000 जवानों के साथ कर्नल लाखन्द नाले से हरिहरपुर ओर बढ़ा!
3 फरवरी 1816 को को अख्तरलोनी की यह सेना तीसरे दिन भिछाखोरी घाटे के पादप्रदेश में पहुंचा जहाँ उसने पांच दिन तक इन्तजार किया लेकिन गोरखा सेना कहीं नहीं दिखी! आखिर अफीम के एक बेईमान बनिए से उसे सूचना मिली कि मकवानपुर के लिए एक मार्ग बालूवाटर से जाता है! जो सीधी चढ़ाई व संकट वाला है! अख्तरलोनी की सेना काँटों भरे इस दुर्गम मार्ग के कष्ट झेलते हुए मकवानपुर पहुंचा तो भिछाखोरी में घात लगाए बैठे सैनिकों को भागकर मकवानपुर पहुंचना पड़ा! 27 अप्रैल को आखिर गोरखा सेना को हराकर अख्तरलोनी की सेना ने भिछाखोरी पर अधिकार जमा लिया! हथोरा पर भी अधिकार कर 29 अप्रैल को ब्रिटिश सेना ने मकवानपुर में प्रवेश किया जिन पर 3000 गोरखा सैनिकों ने घात लगाकर हमला किया व गोले बरसाए! सूर्य छिपने से पहले युद्ध समाप्त हो गया क्योंकि गोरखा सेना ब्रिटिश सेना के सामने ज्यादा देर न टिक सकी व अपने हथियार गोलाबारूद छोड़कर रणभूमि से भाग खड़ी हुई! लगभग 800 गोरखा सैनिक मारे गए जबकि ब्रिटिश सेना के 45 जवान मारे गए व 175 घायल हुए!
कर्नल केलि की सेना का मुकाबला हरिहर पहुँचने पर जैथोक के साका के लिए ख्यातिप्राप्त रणजोर सिंह थापा ने उनका 1000 सैनिकों के साथ रास्ता रोका! लेकिन टॉप गोलों से सैकड़ों सैनिकों के मारे जाने के बाद रणजोर सिंह थापा को भी रणभूमि छोड़कर भागना पड़ा!
उधर गोरखाली स्रोतों का कहना है कि युद्ध में ब्रिटिश सेना को आसानी से विजय नहीं मिली बल्कि युद्ध की बात सुनकर जहाँ जो नेपाली ग्रामीण था वह भी देश के आन-बान-शान के लिए रणभूमि में बिना हथियारों के ही उतर आते! जिसके कारण कई बार फिरंगी सेना को मुंह की खानी पड़ी व भारी क्षति उठानी पड़ी! बताया जाता है कि काजी भीमसेन की सैन्य टुकड़ी के छापामार दस्ते अख्तरलोनी की सेना के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थे! फिरंगी इन चंद बचे हुए गोरखा सैनिकों से युद्ध करते करते थक चुके थे इसलिए अंत में उन्हें मजबूरी में संधि करनी पड़ी!
सन्दर्भ- नेपाल को ऐतिहासिक विवेचना (तुंडीराज भंडारी), जनरल भीमसेन थापा र तत्कालीन नेपाल (चितरंजन नेपाली), नेपाल को ऐतिहासिक रूपरेखा (बाल चंद शर्मा), नेपाल-दिग्दर्शन (रामजी उपाध्याय खतिबड़ा) , गुलद्स्त तवारीख़ (मियाँ प्रेम सिंह), उत्तराखंड का इतिहास (डॉ. शिब प्रसाद डबराल चारण) महाराज संसार चंद (नारायण सिंह), कुमाऊं का इतिहास (बद्रीदत्त पांडे), नेपाल का इतिहास (बलदेव प्रसाद मिश्र) म्युटिनी रिकार्ड्स कुमाऊं, टिहरी गढवाल स्टेट्स रिकार्ड्स, द हिमालयन डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ एन.डब्ल्यू. पी. ऑफ़ इंडिया (अटकिन्सन), अग्लो-नेपालीज रिलेशंस फ्रॉम द अर्लीएस्ट टाइम ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया टिल द गोरखा वार (के.सी. चौधरी), इवसिअन ऑफ़ नेपाल, जॉन कम्पनी अट वार (जॉन प्रेम्बल) इंडो नेपाली रिलेशनशिप -1816-1877(रमाकांत) नेपाल एंड ईस्ट इंडिया कम्पनी (एस.डी. सनवाल), गोर्ख्याणी-2 पराजित होकर प्रत्यावर्तन (सन 1815-1816 ई.)- डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण”!
सुगौली संधि,
ईस्ट इंडिया कम्पनी और नेपाल के राजा के बीच हुई एक संधि है, जिसे 1814-16 के दौरान हुये ब्रिटिश नेपाली युद्ध के बाद अस्तित्व में लाया गया था। इस संधि पर 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्ष्रर किये गये और 4 मार्च 1816 का इसका अनुमोदन किया गया। नेपाल की ओर से इस पर राज गुरु गजराज मिश्र (जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे) और कंपनी ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये थे। इस संधि के अनुसार नेपाल के कुछ हिस्सों को ब्रिटिश भारत में शामिल करने, काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति और ब्रिटेन की सैन्य सेवा में गोरखाओं को भर्ती करने की अनुमति दी गयी थी, साथ ही इसके द्वारा नेपाल ने अपनी किसी भी सेवा में किसी अमेरिकी या यूरोपीय कर्मचारी को नियुक्त करने का अधिकार भी खो दिया। (पहले कई फ्रांसीसी कमांडरों को नेपाली सेना को प्रशिक्षित करने के लिए तैनात किया गया था!
तराई भूमि का कुछ हिस्सा 1816 में ही नेपाल को लौटा दिया गया। 1860 में तराई भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सहायता करने की एवज में पुन: लौटाया गया।मार्च 1816 में नेपाल ने अपनी कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी और काठमांडू में अंग्रेजी रेजीडेंसी की स्थापना हो गई। 1857 के भारतीय ‘सिपाही विद्रोह‘ में नेपालके तत्कालीन प्रधान मंत्री जंगबहादुर ने अंग्रेजी सेना की सहायता के लिए 12000 सैनिक भेजे। (विकपीडिया से लिया गया छोटा सा अंश)