सिर्फ एक घटना ने बदल दिया बाबा मथुराप्रसाद बमराडा को।
वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल उनियाल की कलम से।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन की नींव रखने वालों में शुमार बाबा बमराड़ा के जीवन के आखरी दिनों के बारे में यही कहा जाता रहा कि उत्तराखंड बनने के बाद उन जैसे आंदोलनकारी की घोर उपेक्षा हुई है। सच्चाई यही है कि उत्तराखंड बन जाने के बाद सत्ता में आई राजनीतिक पार्टियों ने तो उन्हें नजरअंदाज किया ही, उत्तराखंड क्रांति दल और आंदोलनकारी संगठनों के लिए भी उनकी कोई अहमियत नहीं रही।
बाबा बमराड़ा किस हाल में हैं, किस तरह जीवन यापन कर रहे हैं, उसकी सुध भाजपा या कांगे्रस की सरकारों ने तो दूर, उस उक्रांद के बैनर पर मंत्री बने नेताओं ने भी नहीं ली, जो उक्रांद खुद को इस राज्य के निमार्ण का सूत्रधार कहता है।
बाबा बमराड़ा उन नेताओं में थे जिन्होंने सत्तर के दशक से ही अलग राज्य की मांग के लिए अपना तन मन समर्पित कर दिया था। बाबा मथुरा प्रसाद बमराड़ा का बहुआयामी व्यक्तित्व था। 1941 में उनका जन्म ब्रिटिश गढ़वाल के इडवाल्स्यु पट्टी के ग्राम पडियां में हुआ था। मां परमेश्वरी का निधन होने पर पिता कुलानंद बमराड़ा ने उनका लालन पालन किया। बचपन में वह गांव के पास किशौली प्राथमिक स्कूल में पढे़। बाद में उनके पिता ने संस्कृत की पढाई के लिए मथुरा भेजा। लेकिन, पुरोहित कार्य में उनका रुझान नहीं था। वह फिल्मों में भाग्य आजमाना चाहते थे।
उनकी तमन्ना फिल्म में अभिनय और गीतकार के रूप में अपनी जगह बनाने की थी। लिहाजा, मुंबई में एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो घूमे, मगर बात नहीं बनी। आखिर पैसे भी खत्म हो गए। 1967 में उनके पिता ने उनके लिए फिर दिल्ली में चश्मे की दुकान खोली।
लेकिन यहां भी किस्मत ने साथ नहीं दिया। उनके चश्मे की दुकान में आग लग गई। 1969 में जिस समय वह दिल्ली आए उत्तराखंड की कई संस्थाएं संस्कृति और लोकमंचों पर काम कर रही थीं। इसी समय एक बार रेडियो में एक ऐसा रूपक आया था, जिसमें गहने चोरने वाले पात्र को गढ़वाल के एक जिले का बताया गया था।
इस पर दिल्ली में पहाड़ के बुद्धिजीवियों ने उस रूपक पर ऐतराज जताया और आंदोलन भी किया। तब इंदिरा गांधी ने इस रूपक पर नाराजगी जताते हुए, रेडियो को माफी मांगने के लिए कहा था। बाबा बमराडा के जीवन पर पिछले वर्ष ही वरिष्ठ पत्रकार ललित मोहन कोठियाल ने ‘संघर्षनामा: एक राज्य आंदोलनकारी’ शीर्षक से पुस्तक लिखी थी।
बकौल कोठियाल, इस घटना से ही बाबा बमराड़ा के मन में उत्तराखंड के सरोकारों के प्रति भावना जागी। वह सक्रिय होकर अलग राज्य की बात करने लगे थे। उन्हें लगा कि अलग राज्य की मांग को तेज करने के लिए दिल्ली नहीं, बल्कि पहाड़ों में अलख जगानी पड़ेगी। सो, वे पहाड़ों की ओर लौट आए और अपना पूरा जीवन उत्तराखंड के लिए समर्पित कर दिया। अपनी युवास्था के दौर में वे कुछ समय संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ से भी जुड़े।
उक्रांद के नेता सुनील ध्यानी और राज्य आंदोलनकारी मंच के महामंत्री रामलाल खंडूरी का कहना है कि बाबा बमराड़ा का जीवन बहुआयामी था। यह बेहद दुखद है कि उन्हें उम्र के आखिरी पड़ाव पर उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा। बाबा बमराड़ा जैसे आंदोलनकारियों के कारण ही उत्तराखंड आंदोलन धार पाया था। स्व. इंद्रमणि बडोनी के साथ वह कदम से कदम मिलाकर आंदोलन से जुड़े रहे।