सालू-मालू के पत्तों का मोल पुरिया नैथानी हमें सौलहवीं सदी में समझा गए थे!

सालू-मालू के पत्तों का मोल पुरिया नैथानी हमें सौलहवीं सदी में समझा गए थे!

 
(मनोज इष्टवाल)
बावन गढ़ जीतने के बाद गढ़वाल नरेश अभी सुस्ताये भी नहीं थे कि पूरे गढ़वाल में अकाल पड़ गया।  महामारी फैलने लगी तब राजा ने अपने सेनापति गढ़ चाणक्य पुरिया नैथानी को अपना दूत बनाकार दिल्ली दरवार में आर्थिक मदद के लिए भेजा। लेकिन मुग़ल दरवार में इतने राजा सामंतों के मध्य एक छोटे से राज्य के राजा के बजीर की भला क्या हैसियत होगी. देश भर के राजा या राजदूत अपनी अपनी पैरवी लेकर आये थे.
पुरिया नैथानी को दिल्ली दरवार पहुंचे एक हफ्ता हो गया था लेकिन वे अभी तक बादशाह से नहीं मिल पाए थे. उन्हें लगा यही सब चलता रहा तो एक माह बाद भी मेरी राजा से मुलाकत नहीं होगी और हमारी प्रजा भूखों ही मर जाएगी।
उस दिन राजा ने राजभोज सभी पधारे राजाओं व दूतों के साथ करने की घोषणा की। पुरिया नैथानी की तो मानों मन की मुराद ही पूरी हो गयी हो. राजभोज चांदी की थाली व सोने की कटोरियों पर परोसा गया. गढ़वाल राजा के बजीर पुरिया नैथानी ने खाना खाने के बाद जान बूझकर थाली व कटोरी राजदरवारियों की मौजूदगी में राजा के समक्ष  जोर से जमीन पर पटक दी। राजा की सामने इतनी बेअदबी करने वाले के प्राण लेने को कई आतुर दिखाई दिए जबकि दूत पुरिया नैथानी ने हाथ जोड़कर थर्र-थर्र कांपने का अभिनय करते कहा- गुस्ताखी माफ़ हो जहाँपनाह! आखिर मुझे भी तो मालुम हो कि मैंने ऐसी क्या गुस्ताखी कर दी जो मेरी गर्दन पर एक साथ कई तलवारें लटक रही हैं.
राजा ने इशारे से तलवारें हटवाई और पूछा कि तुम किस देश से आये हो? पुरिया ने जवाब दिया- साहब हिमालयी प्रदेश गढ़वाल से!
राजा ने कहा- तुमने खाना खाने के बाद इस बेअदबी से थाली क्यों पटक दी?  पुरिया बोले- जां की सलामत हो! हमारे यहाँ तो जिस थाली में एक बार खाते हैं उसमें दुबारा भोजन ग्रहण करने की परम्परा नहीं है।
राजा आश्चर्य चकित होता हुआ बोला- बड़े आश्चर्य की बात है, तब भी तुम फ़रियाद लेके आये हो!
पुरिया बोले- जहाँपनाह, हमारे यहाँ थालियाँ सालू और मालू के होते हैं जिन्हें एक बार इस्तेमाल किया जाता है फिर उसे फैंक दिया जाता है, लेकिन जहाँपनाह हमारे राज में अकाल पड़ा है अन्न के दाने -दाने को प्रजा तरस रही है।नाज नहीं है खाने को!
उस काल में बादशाह अकबर थे या शाहजहाँ या फिर औरंगजेब यह कहना इतिहास पलटने जैसा है लेकिन किंवदंतियों पर आधारित इस घटना को जब भी गाँव के बूढ़े बुजुर्ग सुनाते हैं तो उनका कहना यही होता है कि तब दिल्ली में बादशाह अकबर हुआ करते थे जो न्यायप्रिय थे। लेकिन अगर पुरिया नैथानी के जन्मकाल से लेकर मृत्यु काल देखा जाय तब यह तय है कि उनके काल में सन 1659 से लेकर 1712 तक तीन मुगल शासकों ने दिल्ली सल्तनत पर राज किया जिनमें औरंगजेब, शाह आलम व बहादुरशाह जफर मुख्य हुए, चूंकि  यह घटना जजिया कर के दौरान की है तब यह तय माना जा सकता है कि यह घटना दिल्ली सम्राट औरंगजेब के काल की है क्योंकि उन्हीं के द्वारा सन 1679 में जजिया कर पुनः लागू किया गया।
औरंगजेब ने आदेश दिया कि पुरिया नैथानी की आवभगत में कोई कमी न रहे लेकिन इन्हें तब तक वापस न भेज जाय जब तक सम्पूर्ण सच्चाई सामने न आ जाय, और साथ ही यह आदेश भी जारी कर दिया कि खुफिया जानकारी से मालुम हो कि पुरिया सत्य कह रहे हैं या नहीं! शाही गुप्तचर जब तक गढ़वाल पहुंचते उससे पूर्व ही पुरिया के गुप्तचर बादशाह के गुप्तचरों से पहले गढ़वाल पहुँच गए और उन्होंने आदेश जारी कर दिया कि कोई भी व्यक्ति ताम्बे कांसे इत्यादि के बर्तनों में तब तक खाना नहीं खायेगा जब तक पुन: राजाज्ञा प्राप्त न हो।जंगलों से सालू-मालू के पत्ते तोड़कर उनमें खाना खाया जाए ताकि हमें दिल्ली सरकार से इमदाद मिल सके।
सालू मालू के पत्तलों में खाना खा रहे लोगों की दशा देखकर गुप्तचर दिल्ली पहुंचे और उन्होंने बताया कि वास्तव में गढ़वाल नरेश के राज्य की हालत बेहद खराब है तब बादशाह द्वारा न सिर्फ पुरिया को बाइज्जत बरी कर दिया गया बल्कि राज्य की स्थिति सुधारने के लिए यथोचित धन भी मुहैय्या करवाया व तीन बर्ष का लगान भी माफ़ कर दिया। तब से ही सालू-मालू के पत्तों का प्रचलन गढ़वाल कुमाऊ में अधिकाधिक आधिकारिक तौर पर होना माना जाता है, जबकि यह परम्परा इस से भी कई सौ साल पुरातन मानी जाती है.
(किंवदन्तियों पर आधारित आलेख)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *