सांपों के भय से मुक्त करती है बसन्त पंचमी की पिंगली पिठाई। क्यों छेदे जाते है महिलाओं के नाक-कान..!

सांपों के भय से मुक्त करती है बसन्त पंचमी की पिंगली पिठाई। क्यों छेदे जाते है महिलाओं के नाक-कान..!
(मनोज इष्टवाल)
पहाड़ के लोक समाज में प्रचलित कई ऐसे टोटके हैं जिन्हें हमने गौण बना दिया है और उसकी निरंतर अवहेलना के साथ हम सिर्फ अपने लोक समाज के रंगों को नहीं खो रहे हैं अपितु उन बेहद जरूरी लक्ष्मण रेखाओं को भी अपनी लोक संस्कृति से दूर कर रहे हैं जिनका होना पहाड़ को सम्पन्नता का प्रतीक होना कहा जा सकता है।

आज पहाड़ के खेत खलिहान गांव सब वीरान हो रहे हैं उसमें सबका एक ही तुर्रा है। बंदर, जंगली सुअर, भालू और तेंदुवे गांव तक पहुंच रहे हैं। कुछ बोया क्या वह शाम तक सुअर खोद देते हैं कुछ उगा तो बन्दर खा लेते है। भालू नष्ट कर देते हैं। बाघ तेंदुवे आदमखोर हो रहे हैं।
आखिर यह सब डर कैसा और क्यों? विकट प्रश्न है..!
इसकी आम वजह है हमने अपने लोक समाज व लोक संस्कृति के तमाम वे सिद्धान्त नष्ट भ्रष्ट कर दिए हैं जो पहाड़ में जीने के अनुशासन कहे जा सकते हैं। हमारे गांव में बर्षों तक बंदर गांव की सीमा में नहीं घुसते थे कारण यह था कि किसी साधु ने गांव की सीमाएं बांध दी थी। हमारे गांव में एक समय हर दूसरे बच्चे पर भूत चिपक जाता था जो रोटी मांगता था या फिर अपनी मांगे मनवाता था। गांव ने सामूहिक रूप से भूमि के भूमिया व गांव की कुलदेवी (पंचायती) बालकुंवारी की पूजा की दिशाएं कीली तो सब समाप्त।
ऐसे ही कई वर्जनाएं थी जो ग्रामीण समाज को सुखद बनाये रखने के लिए थी। ओले पड़ते थे तो उसके लिए डल्या समाज था अतिवृष्टि होती थी या अकाल की नौबत आती तो गंदर्भ समाज था। बारिश नहीं होती तो आउजी समाज था। या जंगली जानवरों की दहशत होती तो बाणविक अनुष्ठानों से उसे पंडित साधु संत या विभिन्न पूजाएं दूर करती थी।
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बसन्त पंचमी को पीले परिधान धारण करने के पीछे क्या वैज्ञानिक तथ्य रहा होगा शायद हम इस सम्बंध में कभी शोध नहीं करते। लोग इस दिन पीले मीठे चावल, पूड़ी, उड़द की दाल की पकोड़ियां, गाय बैलों के लिए पीन्डा पकवान, कुत्ते कौवे के लिए पकवान ही नहीं बनाते बल्कि हलजोत में बैल हल और खेतों की पूजा करते हैं। यह सब दिखने में तो आम सी बात लगती थी लेकिन यह आम बात नहीं बल्कि खास हुआ करती थी।
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बसन्त पंचमी के अवसर पर पिंगली पिठाई का एक अलग ही महत्व हुआ करता था जो इन बंधनों की अनदेखी कर जिद्द पूर्वक अपनी मन मर्जी करता है या करता था उसे पशु धन हानि ही नहीं बल्कि जमीनी रेंगते सांपों के कहर से भी पीड़ित होना पड़ता था। जहां दूध देने वाली गाय के थन से दूध में खून निकलना, गाय पर कोढ़ उपजना। बैलों व हल के फल पर सांप लिपटना जैसी घटनाएं घटित होती थी। यही नहीं उसके बाद भी पूजा नहीं दी तो धन जन हानि हुआ करती थी।
पुराणों में वर्णित या जन मानस किंवदन्तियों में इस प्रसंग को कृष्ण भगवान व गंगू रमोला से जोड़कर देखा जाता रहा है। कहते हैं सबके पहले गंगु रमोला ने यह दृढ़ता की थी जिसे कृष्ण भगवान ने अपनी विभिन्न क्रीड़ाओं के साथ दंड दिया और फिर भी न सम्भलने पर ये सारी क्रियाएं गंगू रमोला पर की। तब से यह पहाड़ की धरती पर निरन्तर जारी रही।
बसन्त पंचमी के दिन बैलों के नाक छेदने की ही परंपरा नहीं रही है बल्कि देवितुल्य कुंवारी बेटियों के भी इसी दिन नाक छेदने की एक परम्परा थी।
“ढोल गंवार पशु अरु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी” यह कहावत इसलिए नहीं है कि इन पर जुल्म ढाए जाए बल्कि यह कहावत इसलिए है कि इन सब में अपार शक्तियां व्याप्त हैं जिन्हें अनुशासित करने के लिए इन्हें साधा जाता रहा है। जैसे बैलों के नाको में नाथण, गले घण्टियाँ, वैसे ही नारी के नाक कान छेड़ना, बिंदी, चूड़ी, कंगन और पैरों में पाजेब या झंवरियाँ डाली जाती रही हैं। यही उनकी ताड़ना होती है जिसे सोलह श्रृंगार कह जाता है।
अगर इसे साधारण शब्दों में ताड़न से जोड़ा जाय तो कई सामाजिक संगठन आवाज बुलंद करेंगे लेकिन सच्चाई यह है कि ये सोलह श्रृंगार ही “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरिष्यते” का सम्मान हमारी मातृशक्ति को देती है। कहतें हैं माँ काली द्वारा दैत्य संहार में लिए उग्र रूप की शांति के बाद ही देवताओं द्वारा यह परिक्रिया अपनाई गई थी।
बसन्त पंचमी में तिल गुड़ से मुंह मिष्ठान करने की भी परम्परा है। गृहणियां प्रातः काल चार बजे उठकर अपनी रसोई की गोबर मिट्ठी से लिपाई कर उसमें तैका (कड़ाई में तेल गरम कर पकवान बनाने की तैयारी) चढ़ाती हैं। पहली पूड़ी व पकवान पंचनामा देवताओं व अग्नि को समर्पित कर जब बच्चों को परोसने की नौबत आती है तब उन्हें हल्दी अक्षत का टीका लगाया जाता है। कहा जाता है कि यह टीका सालभर तक सांप के डर से भयमुक्त रखता है व सांप पूरे साल आपको नुकसान नहीं पहुंचाते। पूर्व में इन दिवस पीताम्बर पहनने का भी चलन था ताकि कृष्ण की उनपर कृपा रहे। पीताम्बर बिष्णु भगवान का भी आवरण कहलाता है इसलिये इन दिन उन्हें “जले बिष्णु थले बिष्णु विष्णु बिष्णु हरिर्हरे” कहकर अभिमंत्रित किया जाता है।
इसी दिन एक महत्वपूर्ण रस्म यह निभाई जाती थी कि कुंवारी कन्याओं के नाक कान छिदवाए जाते थे जो बेहद शुभ माना जाता था। उन्हें गुड़ व तिल खिलाये जाते थे ताकि नाक कान पके नहीं।
तदोपरांत हलजोत की परंपरा है। घर की गृहणियां पशुधन के लिए बने पीन्डा पकवान पशुओं को तिलक लगाकर खिलाती हैं तो पुरुष बैलों के श्रृंगार के लिए उनके गले में घण्टियाँ, खांकर डालकर उनके सींगो पर तेल लगाते हैं। फिर हल बैल अपने अपने खेत में लेजाकर हल जोता जाता है लेकिन उस दिन पूरा खेत नहीं जोता जाता बल्कि दो चार लाइन हल लगाकर यहां बैलों हल फल की पूजा होती है। गृहणियां जहाँ पूजा होती है वहां गोबर का भरा एक टोकरा (भिट्ठलू) डालती हैं जो इस बात का सूचक है कि हे धरती माँ हम तुझे यूँहीं खाद देते रहेंगे तेरा श्रृंगार करते रहेंगें तू भी मेरे परिवार की समृद्धि में अपना सहयोग देना। फिर बैल खोल दिये जाते हैं जो मदमस्त हो दौड़ लगाते हैं जैसे उन्हें पता चल गया हो कि आज से उनकी परीक्षा शुरू है।
अंत में जौ की हरियाली को ताजे गोबर के साथ घर के द्वार मोर पर सजाया जाता है और इस तरह बसन्ती पंचमी का समापन होता है। इसी दिन से कभी फ्योंली के फूल भी फूला करते थे।

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