“सर्ग तारा जुन्याळई राता, को सूणलो,तेरी मेरी बाता! सर्ग ताराsss……!” आज भी तारे की तरह टिमटिमाते हैं चन्द्र सिंह राही!

“सर्ग तारा जुन्याळई राता, को सूणलो,तेरी मेरी बाता! सर्ग ताराsss……!” आज भी तारे की तरह टिमटिमाते हैं चन्द्र सिंह राही!

(मनोज इष्टवाल)

कुछ बात याद आती हैं तो दूर तक चली जाती हैं…! कुछ क्षण ऐसे भी होते हैं जिन पर आप बर्षों बाद सोचते हैं तो खुद से नजर मिलाने की भी हिम्मत नहीं होती! तब मैं वह उनफ़ती नदी की धारा हुआ करता था जब ऐसा ही एक इत्तेफ़ाक राही जी को लेकर हुआ जिसकी पीड़ा आज भी मनमस्तिष्क को सालती है! बर्ष 1988-89 का होगा जब नीलम रिकॉर्डिंग स्टूडियो में सुप्रसिद्ध संगीतकार वीरेन्द्र नेगी से उस समय के गायक देवेश जुयाल ने मुलाक़ात करवाई थी और देवेश का गाया गीत “भाना देवी कौथीग व्वीर्युं चा, ऐजा स्याळई कुणजखाल बाजार” उस क्षेत्र में सुपर हिट हुआ था! तब मैं एक हिमाचली अलबम “सूलियां टंगोई गई जान” की रिकॉर्डिंग के सिलसिले में वीरेन्द्र नेगी से मिलने गया था!
कहते हैं वक्त से पहले व्यक्ति को कुछ ज्यादा मिल जाय तो उसके दिमाग खराब हो जाते हैं! ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ! मैं सातवें आसमान में था और जमीन मुझे छोटी लगती थी! तब सुप्रसिद्ध संगीतकार वीरेन्द्र नेगी ने एक प्रस्ताव रखा था कि क्यों न हम राही जी के गीतों का एक अनूठा संग्रह तैयार करें! मैंने उनसे कहा- जैसे! उनका जवाब था जैसे- सौळई घुर्रा-घुर्र दगडया..!  अभी वे कुछ और कह पाते मेरे मुंह से निकल गया कि ये भी कोई गीत है! चन्द्र सिंह राही भी जाने क्या गीत गाते हैं! देवेश जुयाल दबी आवाज में बोले- वीरेन्द्र नेगी जी, उन्ही के पुत्र हैं!

अब जुबान से जो शब्द बहने थे वे बह चुके थे वापस आने का मतलब ही नहीं होता था! वीरेन्द्र भाई ने मेरी तरफ देखा और मुस्करा दिए ! सिगरेट का लम्बा कश मारा और हारमोनियम पर कोई सरगम गाने लगे! दरअसल इसी को बहता गदेरा या उनफ़ती नदी कहते हैं! जो अहम मुझ में आ गया था उसकी थाह लेनी इतनी आसान बात नहीं थी! जिस जमाने में लोग साइकिल पर चलना मुश्किल समझते थे तब मैं कार की सवारी करने लगा था! मेरे इस रूप को देखकर मेरे पिता जी अक्सर बोला करते थे– “ तू आसमान में थूकने की कोशिश कर रहा है, देख लेना वह थूक जब तुझ पर गिरेगा तब तुझे आभास होगा!’ लेकिन तब न उम्र इन शब्दों को समझने की थी न समझना ही चाह रहा था!

दरअसल मेरी गलती भी इसमें मुझे इसलिए नहीं दिखती क्योंकि हमने तब यदाकदा राही जी को रेडिओ पर सुना होगा! बाल्यकाल से निकलकर अभी तो यौवन में कदम रखा ही था! कोई अच्छा गाना बजता तो सब कहते नरेंद्र सिंह नेगी का है! और यही सोच दिल में गाँठ बाँध गयी थी कि बस नरेंद्र सिंह नेगी ही गायक हैं बाकी सब बेकार..!
फिर अनुभव भी कुछ ऐसे ही हुए ! अपने युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों में एक जिन्होंने किताबें लिखी भी कि नहीं मैं नहीं जानता लेकिन दिल्ली के गढ़वाली साहित्य,संगीत के पनपते उस दौर के लोगों के लिए एक प्लेटफॉर्म तैयार कर जरुर किया! जिनमें  कन्हैयालाल डंडरियाल, गिरधारी लाल कंकाल, उमा शंकर थपलियाल, चन्द्र सिंह राही, सतीश पोखरियाल सहित कई ऐसे बड़े नाम हैं जो आज भी फलक पर चमक रहे हैं! वो शख्स और कोई नहीं बल्कि बद्रीश पोखरियाल हुआ करते थे! जिनकी लिखी नाटिका “ शकुंतला नृत्य नाटिका” का 70 के दशक  में दिल्ली में कई मंचों पर प्रदर्शन हुआ और बाद में मैंने लखनऊ दूरदर्शन के लिए उसे तैयार किया!
बद्रीश पोखरियाल तब कोटद्वार बावर के दुर्गापुर घमंडपुर आकर बस गए थे और उन्हीं के कहने पर मेरी पहली मुलाक़ात लोकगायक चन्द्र सिंह राही से उनके शक्करपुर/लक्ष्मीनगर आवास पर हुई थी! पहली मुलाक़ात में मुझे लगा कि बद्रीश पोखरियाल ने किस अक्खड़ मिजाज व्यक्ति के पास मुझे भेज दिया! मैं बेहद सम्मान से बात कर रहा हूँ और यह व्यक्ति तू ता करके बात कर रहा है! लेकिन इतना जरुर उस व्यक्ति में था कि वह जब भी बद्रीश पोखरियाल के नाम को दोहराते उसमें बद्रीश जी या गुरु जी जरुर लगाते! तब अक्ल नहीं थी इसलिए राही जी के बारे में विचारधारा यही बन गयी कि यह व्यक्ति हमेशा गुस्से में रहता है और बेहद अक्खड़ टाइप है इसलिए उनके बारे में सोचना समझना छोड़ दिया!
कभी कभी सोचता था कि क्या सचमुच वीरेन्द्र नेगी उन्हीं के पुत्र हैं! एक यह व्यक्ति जिसमें गुस्सा बिलकुल नहीं एक इनके पिता जिनकी बात सुनते ही लगता है कि ये गुस्से के लिए ही पैदा हुए हैं! खैर इतना सब होने के बावजूद भी वीरेंद्र नेगी ने मेरे लगभग 7-8 अलबम में संगीत दिया जिनमें एक हिमाचली व तीन जौनसारी हुए!
अब वह दौर भी आया जब एक बरसाती नाले की तरह उनफ़ती मेरे अंदर की नदी पहले गंगा जी में समाई और फिर सागर में! तब ज्ञान हुआ कि सचमुच मैं आकाश की तरफ मुंह करके थूकने वाला वह व्यक्ति हूँ जिसका थूक गिरकर वापस उसके मुंह में आ पड़ा है!  अब लोक की जहाँ भी बात होती तो जीत सिंह नेगी, चन्द्र सिंह राही और फिर नरेंद्र सिंह नेगी की बातें होती! मैंने फिर तीनों को सुनना शुरू कर दिया! जीत सिंह नेगी का ग्रामोफोन पर गायन भी और चन्द्र सिंह राही के लोकगीत भी! सबसे पहले “सौली घुर्रा-घुर्र” ही सुना तो शर्म से पसीने-पसीने हो गया क्योंकि वह तत्काल परिस्थितियों का एक ऐसा समसामयिक गीत था जैसे लोकगायक नरेंद्र सिंग नेगी का “बन्दुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे, निशाणु साधी दे..उत्तराखंड मा बाघ लग्युं बाघ मारी दे!’
फिर तो राही जी के गीतों की हर दिन पड़ताल करने लगा चाहे वह “सर्ग तारा जुन्याली राता…हो या हिल्मा चांदी को बटणा ! और फिर बहने लगी उस लोक की गंगा जिसमें स्नान करने से पितृ लोक  भी जीवित हो जाय!
रूप की खाज्यानी”,”भाना ए रंगीली भाना,दुर ऐजै बांज कटण, सर मुंगा पंथ्येणी मुंगा.. -व्हाई डिड यू नॉट कम टू मुंगा म्यारा प्वां बाघा रे, हिट बलदा सरासरी रे, ढांगा रे,ढांगा रे बै दे सरा फांगा,रुक जा नेसुड़ा तोड़ के जरा ठण्डु चला दी, जरा मठु चला दी, सतपुली का सैणा मेरी बौऊ सुरैला, भाना हे रंगीली भाना!, फ्युंलडिया त्वे देखिकी आंद मनैमा, तेरो मेरो साथ छायो पैला जनम मा! सहित जाने ऐसे कितने गीत लोक समाज के ताने बाने बुनते हृदय की तरंगों में शामिल होकर अनंत को छूते रहे! अब राही मेरे लिए एक ऐसे आदर्श हो गए थे जिन्हें सुन पाना कानों में भंवरें की रुणाट पैदा करने जैसा था! जब भी राही जी से मुलाक़ात होती उनके मुंह से यही शब्द निकलते – और भुला इष्टवाल, क्य छई अजक्याल कनु! और मैं हमेशा उसी दंड बोझ में दबा अपने को बौना महसूस करता रहा कि किस तरह मैंने वीरेन्द्र भाई के सामने सौली घुर्रा-घुर्र पर टिप्पणी की थी! यकीन मानिए राही जी जब भी सामने आये बस यही मन में रहता था कि कहीं वीरेंद्र भाई ने उनके पास बोल तो नहीं दिया होगा! लेकिन वह समय कभी नहीं आया कि राही जी ने मुझे इस बिषय में टोका हो!
चौन्दकोट में 28 मार्च 1942 को जन्में राही विगत दो बर्ष पूर्व यानि 10 जनवरी 2016 को सर्ग तारा (स्वर्ग के तारे) बन गये लेकिन उनकी गायन विधा में खनकती उनकी आवाज आज भी वैसी ही अजर अमर है जैसे मैंने सबसे पहले बचपन में आकाशवाणी से प्रसारित उनका वह गीत सुना था जो उस दौर के कृषि प्रदत्त समाज की बानगी प्रस्तुत करता था यानि- “ हिट बल्दा सरासरी रे..तिल हाळ म जाणा रे! या फिर शाबासी म्यारा मोती ढांगा…!  फिर उनकी इन पंक्तियों ने कालांतर से वर्तमान परिवेश में लौटती पीड़ा का जिस तरह बखान किया वह अद्वितीय है-
डांडी कांठी जन की तन च मनखी बदली ग्यायी
उत्तराखंडो रीति-रिवाज, चाल बदली ग्यायी
मोल माटू मनखी यखो उन्द बोगी ग्यायी ,
गौ गाला कुड़ी पुन्गडी,सब बांजा पोड़ी ग्यायी
पुंगड़्यों माँ गोणी, बांदर, सुन्गरों को राज
बीज को नसीब नि होणु द्वी माणी नाज

विगत दिनों यानि 10 जनवरी 2018 को दिल्ली हेबिटेट सेंटर में उनके चारों पुत्रों जिनमें वीरेन्द्र नेगी, अजय, सतीश व राकेश शामिल है द्वारा “राही घराना” नाम से एक नए युग की शुरुआत की गयी! डर इस बात का है कि क्या संगीत के महारथी ये सभी भाई राही के उस लोक की जीवंत कल्पना को यथावत रख पायेंगे?  वरिष्ठ पत्रकार व समाजसेवी सुनील नेगी (अध्यक्ष उत्तराखंड जर्नलिस्ट फॉर्म) का हृदय से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने इस सम्बन्ध में मुझे दिल्ली हेबिटेट सेंटर में आयोजित उनकी पुण्यतिथि का आमन्त्रण प्रेषित किया लेकिन व्यक्तिगत झंझावतों के कारण उसमें शामिल नहीं हो पाया! राही जी के लोक की परिकल्पना करने वाले उसके चारों पुत्रों व बेटी विधोत्तमा सभी संगीत के रचे बसे नाम हैं!  इसलिए यही कहूंगा कि इस राही की अनन्त राह के साथ यूँही कदम बढाते जाइए ताकि हम उन क़दमों पर हर बर्ष अपनी अतीत की यादों के साथ उन्हें उनके गीतों उनके अक्खड़ मिजाज व उनके तैरते सुरों की गंगा का हृदय दर्पण से अभिनन्दन कर सकें स्वागत कर सकें!

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