सरकारों को साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, लोककलाकारों, बोली-भाषा के सिपाहियों से नहीं रहा कोई सरोकार!
सरकारों को साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, लोककलाकारों, बोली-भाषा के सिपाहियों से नहीं रहा कोई सरोकार!
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!
(17 साल का उत्तराखंड)
अलग राज्य बने 17 साल बीत जाने को है। इन 17 सालों में यहां की सरकारों को साहित्यकारों, बोली-भाषा के सिपाहियों, संस्कृतिकर्मियों, लोककलाकारों से कोई सरोकार नहीं रहा। किसी भी सरकार नें इनकी कभी भी सुध नहीं ली, ना हीं किसी स्तर पर सहयोग किया गया। सरकारों की उपेक्षा से हर कोई आहत नजर आता है। जबकि इन्होंने खुद के प्रयासों से देश ही नहीं विश्व में उत्तराखंड को नई पहचान दिलाई है। अलग राज्य बनने के बाद जरूर हर किसी को आशा थी कि अब अपने प्रदेश में साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मीयों, बोली-भाषा के सिपाहीयों, लोककलाकारों से लेकर लोक के लिए निस्वार्थ कार्य करने वाले व्यक्ति को हर स्तर पर सहयोग और प्रोत्साहन मिलेगा। जिससे वे अपने कार्यों को बेहतर रूप से क्रियान्वयन कर सके। लेकिन इन 17 सालों में सबसे ज्यादा उपेक्षित यही तबका रहा।
उत्तराखंड की पहली लोक गायिका बेहद आर्थिक तंगी से जीवन यापन कर रही है। 70 वर्ष से भी ज्यादा आयु की कबूतरी देवी पिथौरागढ़ जिले के क्वीतड़ गांव में रहती हैं। बेहद ग़रीब इस लोकगायिका को सरकार से मिलने वाली मामूली पेंशन की रकम का ही आसरा है। 70-80 के दशक में आकाशवाणी के नजीबाबाद और लखनऊ केंद्र से कबूतरी देवी गढ़वाली लोक गीतों को घर-घर तक पहुंचाती रही। लोकविरासत की सेवा करने वाली कबूतरी देवी की सुध लेने के लिए 17 सालों में सरकारों को समय नहीं मिला।
वीरान होते पहाड़ के दर्द को उकेरने वाले, कुमाऊँ की लोकसंस्कृति को गीतो के जरिये देश दुनिया तक पहुँचाने वाले ग्राम डंडोली, मानिला, सल्ट निवासी 75 लोकगायक हीरा सिंह राणा विगत दिनों बाथरूम में पैर फिसल जाने से गंभीर रूप से घायल हो गये थे। इससे उनकी कूल्हे की हड्टी टूट गई। परिजनों ने गंभीर हालत में उन्हें रामनगर निजी अस्पताल में भर्ती कराया। रिश्तेदारों से उधार रुपये लेकर उन्होंने अपना उपचार कराया। लेकिन सरकार नें इनकी सुध लेने की जहमत तक नहीं उठाई। जब सोशियल मीडिया से लेकर अन्य मीडिया में इसको जोर शोर से उठाया गया तब जाकर सरकार नींद से जागी। और हीरा सिंह राणा जी के इलाज का खर्च वहन करने का भरोसा दिलाया।
मूल रूप से गगवाड़ा गांव (पौड़ी) के रहने वाले प्रसिद्ध हास्य कलाकार घनानंद वर्तमान समय में रायपुर (देहरादून) के किद्दूवाला में परिवार के साथ रह रहे हैं। घन्ना को विगत 7 अगस्त को मॉर्निंग वॉक के दौरान सीने में दर्द की शिकायत हुई थी, जिसके बाद लोगों ने उन्हें घर पहुंचाया। बाद में सीएमआइ में उनका प्राथमिक उपचार हुआ। खास लाभ न होने पर परिजनों ने 17 अगस्त को उन्हें एशियन हार्ट हॉस्पिटल फरीदाबाद में भर्ती कराया, जहां उनका आपरेशन किया गया। 40 दिन बाद भी सरकार ने उनकी कुशलक्षेम नहीं ली। बाद मे जब खबर मीडिया मे आई तो सरकार नें इलाज का खर्च वहन करने का भरोसा दिलाया।
उत्तराखंड के जाने-माने फोटोग्राफर और वरिष्ठ पत्रकार कमल जोशी आज हमारे बीच नहीं है। जुलाई 2017 में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई थी। वे करीब 63 वर्ष के थे। उन्होंने जीवनभर पहाड़ की सैर की। उत्तराखंड का हर कोना छान मारा था। अस्कोट से आराकोट, मद्महेश्वर से जौनसार तक। उन्होंने अपने कैमरे से उत्तराखंड के अनछुये जगहों से रूबरू करवाया, पहाड़ की लोकसंस्कृति, लोकजीवन को देश दुनिया के सामने रखा। उनकी फोटोग्राफी व रचनाएं आने वाली पीढीयों के लिए एक सांस्कृतिक धरोहर है। फोटोग्राफी में मानवीयता का पुट अधिक रहता था, जो दिल को छू लेती थी। लेकिन बहुत दुःख होता है कि हमारी सरकारों के पास कभी भी उनके अनुभवों को जानने और नयी पीढ़ी तक उसे पहुँचाने का समय नहीं मिला। सरकार चाहती तो उनके सभी फोटो को एक संग्रहालय का आकार देकर स्वर्गीय कमल जोशी जी को एक श्रद्धांजलि दे सकती थी ताकि आने वाली पीढ़ी उनके बारे में और उनके खींचे फोटो से पहाड़ के बारे में अवगत हो सके। परंतु सरकार के पास समय ही नही हैं।
उत्तराखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. शेर सिंह पांगती भी अब हमारे बीच नहीं रहे। विगत दिनों 81 वर्ष को आयु में देहरादून में उनका निधन हो गया। पांगती के निधन के बाद रह गर्इ हैं तो सिर्फ उनकी यादें और उनके लिखे हुए वह शब्द जिन्होंने उत्तराखंड की सभ्यता और संस्कृति को जीवंत रखने में अहम भूमिका निभार्इ। शेर सिंह पांगती ने साल 2000 में अपने नानासेम के शान्तिकुंज स्थित घर पर ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम की स्थापना की। जो पूरी तरह से निजी संस्कृतिक का म्यूजियम है। इस म्यूजियम में उन्होंने कुमाऊं और गढ़वाल के उच्च हिमालयी क्षेत्र में रहने वाली भोटिया जनजाति की संस्कृति, परम्पराएं और रहन-सहन पर आधारित इतिहास, यंत्र, बर्तन, हस्तशिल्प, पहनावे, खाद्यान्न को सहेजकर रखा। शेर सिंह पांगती संस्कृति, सभ्यता को समझने के लिए 18 पुस्तकें लिखी।उन्होंने जोहार घाटी और भोटिया जनजाति पर पीएचडी की। शेर सिंह पांगती का मानना था कि जो जड़ों से कट जाता है, उसको आने वाला कल और समाज भी भुला देता है और जो जड़ों को नहीं छोड़ता उसे सदियों तक लोग याद रखते हैं। कलम के धनी मुनस्यारी के डॉ. शेर सिंह पांगती ने देश की चीन सीमा से लगे क्षेत्र से पलायन करने वाले लोगों को यह संदेश ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें उनकी संस्कृति से भी परिचित कराया। लोगों को उनकी बात समझ में आ गई और धीरे-धीरे पलायन पर विराम लगने लगा। पांगती जी के ये प्रयास खुद के थे। सरकार चाहे तो उनके ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम और उनकी पुस्तकों को अनुसंधान केंद्र या राज्य धरोहर घोषित कर नयी पीढ़ी के लिए संरक्षित कर सकती है। जिससे आने वाली पीढ़ी को इसका लाभ मिल सके। लेकिन सरकार मौनव्रत धारण किए हुए है।
कुछ दिन पहले उत्तराखंड के प्रख्यात रंगकर्मी, चित्रकार, साहित्यकार एवं कार्टूनिस्ट बी.मोहन नेगी जी का भी देहरादून के निजी अस्पताल में आकस्मिक निधन हो गया। पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक की मनियारस्यूं पटटी के पुंडोरी गांव निवासी बी.मोहन नेगी 66 वर्ष के थे। पौड़ी स्थित आवास पर उनके बनाए चित्र, कविता पोस्टर और कार्टून नेगी की जीवन शैली को बयां कर रहे हैं। पहाड़ से गायब हो रही चित्रकला को उन्होंने एक अध्याय के रूप में जोडऩे का महत्वपूर्ण कार्य किया
देश के कई शहरों में लगाई प्रदर्शनी। वे 1984 से कविता व कविता पोस्टर प्रदर्शनी के साथ ही चित्रों की प्रदर्शनियां विभिन्न शहरों में आयोजित करते आ रहे थे। उन्होंने उत्तराखंड के प्रमुख शहरों के साथ ही दिल्ली, लखनऊ, मुंबई आदि शहरों में भी कविता पोस्टर प्रदर्शनी लगाईं। इसके अलावा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय व विभिन्न क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र, रेखाचित्र, कार्टून व कविताओं का प्रकाशन निरंतर होता रहा। प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की लगभग सौ कविताओं पर भी उन्होंने पोस्टर तैयार किए। कला के पुरोधा बी.मोहन नेगी ने जीवनपर्यंत गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, रंवाल्टी, नेपाली, पंजाबी, हिंदी व अंग्रेजी भाषा के लगभग 700 कविता पोस्टर बनाए। उनके उकेरे गए चित्र लोकजीवन की जीवटता को प्रदर्शित करते हैं। खास बात यह कि जो भी चित्र नेगी ने बनाए, वे पर्वतीय जीवन की संजीदगी से भरे हुए हैं। आजीवन लोक की सेवा करने वाले बीमोहन नेगी की 17 सालों में किसी भी सरकारों नें सुध नहीं ली और ना ही प्रोत्साहित किया। उन्होंने अकेले ही अपना ये सफर तय किया। इससे बड़ी दुःख की बात क्या होगी की उनके अंतिम यात्रा में बमुश्किल से 50 लोग भी शामिल नहीं हो पाए और ना ही कोई सरकारी प्रतिनिधि। जबकि वे उस जनपद से ताल्लुकात रखते हैं जहाँ से सूबे के 5 मुख्यमंत्री बने और वर्तमान में संस्कृति मंत्री भी वहीं से है।
बीमोहन नेगी जी की एक ख्वाहिश थी की पौडी में एक सांस्कृतिक संग्रहालय खोला जाय। यदि सरकार उनके कविता पोस्टर को राज्य सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर पौडी मे एक सांस्कृतिक संग्रहालय खोले तो कविता पोस्टर विधा के पुरोधा को एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेकिन सरकारों के पास समय ही नही ऐसे लोगों के लिए।
वास्तव मे यदि देखा जाय तो राज्य बनने के 17 सालों में राज्य में सर्वाधिक उपेक्षा हुई है तो वो है साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मीयों, लोककलाकारों और बोली भाषा के सिपाहीयों की। ये तो एक छोटी सी फेहरिस्त है। हकीकत बेहद दुखदाई है। इन 17 सालों में इनके सहयोग, प्रोत्साहन के लिए न तो कोई नीति बनी ना ही सरकारों नें सुध लेने की कोशिश की। ये लोग किस हाल में जीवनयापन कर रहे हैं कभी ये जानने की कोशिश तक नहीं की। लोक की विरासत को संभाले अधिकांश लोग बेहद आर्थिक तंगी और गुरबत में जीवनयापन कर रहे हैं। किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। जो एक कड़वी सच्चाई है। एक एक करके लोक के पैरोकार रूखसत होते जा रहे हैं। यदि हम इनकी विरासत को संजोने में सफल नहीं हुए तो हम बहुत कुछ खो देंगे।
सरकारों को चाहिए की ऐसे लोगों को चिन्हित कर हर प्रकार का सहयोग और प्रोत्साहन दिया जाय। क्योंकि जब हमारी कला, संस्कृति, बोली भाषा बचेगी तभी हमारी पहचान भी। जहाँ सरकारें हर साल अपने चेहतों को पानी की तरह आर्थिक सहायता दिलाती हैं वहीं लोक की सेवा करने वाले लोगों के लिए एक ढेला तक नहीं। ऐसी परिपाटी से बचना होगा और कला का सम्मान करना होगा। तभी हम अपनी विरासत बचा पायेंगे।