शायद इसी दिन के लिए थी चारु चंद चंदोला की यह कविता "उगने दो दूब"।
(मनोज इष्टवाल)
साहित्यकार व पत्रकार चारु चंद चंदोला आज हमसे सैकड़ों मील दूर अनन्त में कहीं विलीन हैं लेकिन फिर भी उनका लेखन हमें उनके बेहद नजदीक महसूस कराता है। कोरोना महामारी के इस वैश्विक संक्रमण ने अमीर गरीब, बड़ा-छोटा, शक्तिशाली-कमजोर सबको एक कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। जहां न हथियारों की ताकत काम कर रही है न दौलत ही काम आ रही है।

ऐसे में प्रबुद्ध साहित्यकार चारु चंद चंदोला जी की पुत्री साहित्या चंदोला ने जाने कब अपने पिता के लिखे आखरों के मर्म में अपनी संवेदनाएं घोली व उन्हें जीवंत करने के लिए शब्दों का आवरण पहनाकर सोशल साइट्स पर डाल दिया।
साहित्या चंदोला अपने उद्गगारों को अपने पिता से जोड़कर लिखती हैं कि पिताजी वरिष्ठ पत्रकार एवम साहित्यकार श्री चारु चंद्र चंदोला जी की एक महत्वपूर्ण कविता। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक हमें अपनी कविताएं सुनाते रहे जो हम बड़े चाव से सुनते थे। बीच-बीच में हास्य-विनोद भी चलता रहता था। हम उन्हें बब्बर-शेर कहते थे क्योंकि वे निर्भीक थे। इसी निर्भीकता के साथ उन्होंने मृत्यु को भी गले लगाया। स्वाभिमान का जीवन जीने के लिए केवल धनवान होने की आवश्यकता नहीं, वो जिस भी हाल में रहे, स्वाभिमान से रहे! कभी किसी बात के लिए उन्होंने शिकायत नहीं की हमसे। कुछ लोग सोचते हैं कि वे लोभी थे।
क्या लोभ था उनमें? वे चाहते तो पुरस्कारों के पीछे भाग सकते थे, धन का लोभ भी नहीं था उन्हें। और थोड़ा लोभ किया भी तो वो भी अपने बच्चों के लिए। उनसे बड़े-बड़े लोभी हमने अपने आस-पास ही देखे हैं। जिनको कमी किसी बात की नहीं है, फिर भी हमसे मांग ही रहे हैं। ये सब संस्कारगत बातें होती हैं। किसी को मांगने की ही आदत पड़ जाती है, और किसी के पास कुछ नहीं है फिर भी देता है। देना क्या है, यह भी आना चाहिए। देने के लिए हृदय होना चाहिए। और हम नहीं मानते कि इस संसार में किसी के पास देने को कुछ नहीं। कोई आशीष दे सकता है, कोई मार्गदर्शन,कोई अच्छी राय,कोई धन,कोई प्रोत्साहन,कोई समझ, कोई मीठे बोल,कोई स्नेह।
चन्दोलाजी, अंतिम समय तक लेखन कार्य में व्यस्त रहे। घूमने जाते थे। प्रतिदिन हमारा विचार-विमर्श होता था। वे विद्वान थे। उत्तराखंड के इतिहास, भूगोल, यहां के वीर सपूतों, साहित्यकारों के बारे में बताते थे। शासन-प्रशासन, राजनीति पर उनकी अच्छी पकड़ थी। एक बार मोदी जी का भाषण आ रहा था, हमने अज्ञानवश ध्यान नहीं दिया, तो डांट कर कहने लगे,ये व्यक्ति ‘जीनियस’ है, अनमोल रत्न है! तू देखना !तू देखना! एक दिन यह देश का प्रधानमंत्री बनेगा!
उन्होंने ज़ोर देकर कहा तो हमने भी मोदीजी को सुनना आरंभ किया। राजनीति में पुरुष दक्ष होते हैं, तो वे राजनीतिक विषयों पर जो भी बोलते थे, हम ध्यानावस्थित होकर सुनते थे। एक बार हम किसी कार्यवश प्रिंटिंग प्रेस गए। वहां आदरणीय अचलानंद जखमोला जी पधारे तो पिताजी ने हमे सजग किया कि ये महान विभूति हैं! इनके पांव छुओ। उन्हें लोगों से मेल-जोल बहुत प्रिय था। युवाओं को सदैव प्रोत्साहित किया। सबसे अच्छा गुण उनका यह कि सबकी बात बहुत ध्यान से सुनते थे। वे संस्कृति कर्मी थे। बहुत हंसमुख और मित्रवत थे। वे सदैव प्रसन्न रहते थे,चाहे समय अनुकूल हो या प्रतिकूल। वात्सल्य से परिपूर्ण थे। हमारे परिवार,पड़ोस में जितने भी मनुष्य,रहते हैं, सब पिताजी की नकल करते हैं,उन्हीं के जैसा बनना चाहते हैं। हमें गर्व की अनुभूति होती है।बतब लगता है कि सच में वे विराट व्यक्तित्व थे,सद्गुणों से परिपूर्ण!अनुकरणीय थे। जितनी उनकी क्षमता थी,उसके अनुरूप उन्होंने समाज और देश-हित में कार्य किये। उनमें धार्मिक कट्टरवाद नहीं था, केवल अपने धर्म से गहरा प्रेम और मातृभूमि से लगाव था।
प्रस्तुत है उनकी यह कविता,जिसको उन्हौने अपने अंतिम कविता-संग्रह ‘उगने दो दूब’ के केंद्र में रखा।कविता का शीर्षक है ‘उगने दो दूब’।?
कविता नहीं
खुली चिट्ठी है यह
उनके नाम
धर्म और ईश्वर के नाम पर
लड़ाई लड़ना है
जिनका
काम
आवश्यक नहीं, अपनी पृथ्वी
पटक,
दूसरी पृथ्वी की
खोज
बम, मिसाइल या
बड़े-बड़े परीक्षण
महत्वपूर्ण है,
वैज्ञानिकों के मस्तिष्कों के बीच
लड़ाई
पता करने के लिए-
ईश्वर है भी या नहीं
धरा पुत्रो !
पता नहीं हो जाता
जब तक उसका
पता
उसके नाम पर लड़ी जाने वाली
लड़ाइयों के मैदान में
उगने दो दूब ।
???
?