वो आदमी जो मेरा सुपर हीरो था…।

(राहुल कोटियाल की कलम से)
90 के दशक में जो बच्चे बड़े हो रहे थे उन्हें मुल्ला नसरुद्दीन, तेनाली राम और बीरबल जैसे किरदारों के क़िस्से ख़ूब रोमांचित किया करते थे. मैं भी इन बच्चों में शामिल था लेकिन मुझे रोमांचित करने वालों में सबसे बड़ा नाम था – राजेन टोडरिया.
बचपन से मैंने राजेन टोडरिया से जुड़े क़िस्से ऐसे सुने थे मानो किवदंतियाँ हों. इन क़िस्सों के चलते मेरे दिमाग़ में उनकी छवि किसी काल्पनिक पात्र जैसी बन पड़ी थी. ऐसा क्यों था और वो कौन-से क़िस्से थे, ये बताने की शुरुआत उन ज़रूरी बातों से करता हूँ जो इन क़िस्सों की भूमिका भी तय करती हैं.

टोडरिया जी और मेरे पिता जी अपने स्कूल के दिनों से ही दोस्त रहे. देवप्रयाग के सरकारी इंटर कॉलेज में पढ़ने वाले इन लड़कों की तब एक विशेष मंडली हुआ करती थी जिसमें कुल सात लड़के थे. इंटर की परीक्षाओं में इन सात में से सिर्फ़ तीन ही लड़कों की नैय्या पार लगी थी जबकि चार लड़के फ़ेल हुए थे. दिलचस्प ये है कि फ़ेल होने वालों में टोडरिया जी भी शामिल थे और मेरे पिता जी भी. जबकि ये दोनों ही मेधावी छात्र रहे थे जिन्होंने दसवीं भी डिस्टिंक्शन से पास की थी और एक बार फ़ेल होने के बाद जब 12वीं भी पास की तो डिस्टिंक्शन से ही की.
स्कूली छात्रों की इस टोली के सबसे चर्चित सदस्य राजेन टोडरिया ही थे. उनका असल नाम राजेंद्र टोडरिया था और दोस्त उन्हें राजू बुलाते थे. इसी राजू की शैतानियों, होशियारी, विलक्षण प्रतिभा और मसखरी के क़िस्से मैंने बचपन से सुने. इस टोली में शामिल रहे लोग आगे चलकर जब कभी भी मिलते तो ‘राजू के क़िस्सों’ का ज़िक्र ज़रूर होता और पूरी शाम इन्हीं क़िस्सों को याद करने में निकल जाती. ऐसा ही एक क़िस्सा तब का है जब ये लड़के सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ते थे:
देवप्रयाग में तब एक लाला जी हुआ करते थे. गर्मियों की रातों में वो अक्सर अपनी दुकान के बाहर सड़क पर चारपाई बिछाकर सोते थे. एक रात टोडरिया जी यानी सातवीं-आठवीं में पढ़ने वाले राजू को ऐसी शरारत सूझी कि लाला जी की जान पर बन आई. हुआ यूँ कि राजू कहीं से एक आवारा साँड़ को फलों का लालच देते-देते ले आया और उसे लालाजी की चारपाई से बांध दिया. इसके बाद साँड़ की पूँछ पर टिन का एक ख़ाली कनस्तर बांध कर उस पर एक ज़ोरदार लात भी मार दी गई. सुनसान रात में कनस्तर के शोर से साँड़ ऐसा बिदका कि लालाजी की चारपाई लेकर दौड़ पड़ा. गहरी नींद में डूबे लालाजी जब तक अचानक आए इस भूचाल का कारण भाँप पाते तब तक साँड़ उन्हें कई मीटर घसीट चुका था. कुछ दूर जाकर लालाजी तो चारपाई से चिटक कर गिर पड़े लेकिन साँड़ तब तक दौड़ता रहा जब उसकी पूँछ से बंधा कनस्तर और चारपाई दोनों ही टूटकर गंगा में नहीं समा गई.
टोडरिया जी की शैतानियों के ऐसे क़िस्से जब भी दोहराए जाते तो किस्सागो यह जोड़ना कभी नहीं भूलते कि ‘राजू का दिमाग़ जितना शैतानियों में चलता था उससे कहीं ज़्यादा रचनात्मक कार्यों में चलता था. उसे पढ़ाई का इतना शौक़ था कि अक्सर रात को देवप्रयाग से अपने गाँव सौड़ लौटते हुए वो चाँद की रौशनी में ही किताब के कई-कई पन्ने पढ़ डालता.’ इस मंडली के छात्रों में से यदि कोई छात्र अपने पाठ्यक्रम से इतर भी किताबें खंगाल रहा था तो वह ‘सौड़ का राजू’ ही था.
दुनिया तमाम के साहित्य में रुचि लेने के साथ ही रचनात्मक लेखन का काम भी इस पूरी मंडली में सबसे पहले टोडरिया जी ने ही शुरू किया. कॉलेज के दिनों से ही वो ख़बरें लिखने के अलावा कई विचारोत्तेजक लेख लिखकर भी अपनी अलग पहचान बनाने लगे थे. यह पहचान आगे चलकर इतनी मज़बूत हुई कि राजेन टोडरिया पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रदेश के सबसे चर्चित लोगों में शामिल हुए. क्षेत्रीय मुद्दों से लेकर वैश्विक विमर्श तक पर उनकी कितनी गहरी पकड़ रही, यह उनके लेखों से हमेशा परिलक्षित भी होता रहा.
टोडरिया जी को बेहद क़रीब से जानने वाले बताते हैं कि अध्ययन उनकी लत थी और अपने विचारों को लगातार धार देना और बेहतर बनाना हमेशा उनका उद्देश्य रहता. लेकिन इसके साथ ही उनके स्वभाव में शरारत और बेफ़िक्री भी हमेशा से रही. उनकी शरारत का एक क़िस्सा ये भी है कि कॉलेज के दिनों में जब उन्हें अपने कपड़े ख़ुद धोने पड़ते थे तो उन्होंने इसकी भी एक कमाल तरकीब खोज निकाली थी. उनके दूर के रिश्ते के कोई चाचा उनके पड़ोस में रहा करते थे जिनका परिवार काफ़ी बड़ा था. परिवार वालों के सारे कपड़े अक्सर वो चाचाजी एकसाथ ही धोया करते थे. तो जिस दिन भी चाचाजी कपड़े धोने लगते, टोडरिया जी चुपके से अपने कपड़े भी उनके भीगे हुए कपड़ों में डाल आते. अपने ही परिवार के कपड़े समझ कर चाचाजी सभी कपड़े धोकर सुखा देते और टोडरिया जी काम चलता रहता.
उनकी शरारतों के साथ ही उनकी बेफ़िक्री के क़िस्से भी मैंने उनके दोस्तों से ख़ूब सुने. ऐसा ही एक क़िस्सा उनकी चारपाई का भी है. उनके दोस्त बताते हैं कि वो ऐसी चारपाई में सोया करते थे जिसकी ताँत इस क़दर ढीली हो चुकी थी कि लेटने वाले के सिर और पैर तो ऊपर रहते थे लेकिन कमर का हिस्सा नीचे ज़मीन छूने लगता था. चारपाई की यह दशा देख अगर कोई दोस्त उन्हें इसे सुधारने की सलाह देता तो उनका दो टूक जवाब होता कि ‘तुझे ज़्यादा दर्द नज़र आ रहा है तो तू ही चारपाई बांध दे.’
ऐसी कई छोटी-छोटी अव्यवस्थाओं के बीच ही अपनी व्यवस्था खोज लेना टोडरिया जी के व्यवहार में शामिल था. एक बार तो उनकी अव्यवस्ता सुधारने के फेर में उनके चपरासी को उनकी डाँट भी झेलनी पड़ गई थी. ये तब की बात है जब टोडरिया जी शिमला में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ़ हुआ करते थे. इसी दौरान उनके दफ़्तर में एक नया चपरासी आया. उसने देखा कि ब्यूरो चीफ़ साहब की मेज़ तो बेतरतीब फैली हुई है, काग़ज़ यहां-वहाँ फैले पड़े हैं और कुछ भी व्यवस्थित नहीं है. लिहाज़ा उसने फटाफट सब कुछ क़रीने से सम्भाल कर मेज़ साफ़ कर दी, काग़ज़ अलमारियों में सेट कर दिए और साहब से शाबाशी पाने का इंतज़ार करने लगा. लेकिन टोडरिया जी ने जैसे ही अपनी साफ़ मेज़ देखी वो बिफर पड़े. चपरासी को बुलाकर जमकर दपट लगाई कि अब मैं उन काग़ज़ों को कैसे खोज सकूँगा जो बिखरे नज़र आते मेज़ पर मैंने अपने अनुसार सम्भाले हुए थे. उन्होंने चपरासी को हिदायत दी कि आइंदा ऐसा कुछ न हो और समझाया कि ‘मेरी अव्यवस्थाओं में ही मेरी व्यवस्था है. उसे वैसा ही बना रहने दें.’
लेकिन इस बेफ़िक्री और दूसरों को अव्यवस्थित लगने वाली उनकी जीवन शैली के बीच भी वो अपने क्षेत्र में अद्वितीय रहे. उनके लेख बेहद धारदार और तर्क बिलकुल अकाट्य होते थे. उनकी लेखनी इतनी लोकप्रिय रही कि उन्होंने अपनी नई शुरू की गई पत्रिका को पहाड़ों में अख़बारों से भी ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया था. टोडरिया जी इस मामले में भी विलक्षण रहे कि उन्होंने सरकारी नौकरी में रहते हुए ही पत्रकारिता की और डंके की चोट पर की. राजेंद्र टोडरिया का एस राजेन टोडरिया हो जाने के पीछे भी यही कारण है. यहां एस का मतलब उनकी पत्नी स्मिता से है. उन्होंने ताउम्र अपनी पत्नी के नाम को अपने नाम में शामिल रखा और इसी नाम से अपनी पहचान भी बनाई.
टोडरिया जी के दिलचस्प व्यक्तित्व को मैंने मुख्यतः उन क़िस्सों के ज़रिए जाना जिन्हें मैं बचपन से सुनता आ रहा था. उनसे सीधा परिचय तब हुआ जब मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू की. हालाँकि पिता जी से दोस्ती के चलते वो पहले भी कई बार घर आते रहे थे लेकिन उन मुलाक़ातों में मेरा परिचय ‘सौड़ के राजू’ से ही हुआ करता था. राजेन टोडरिया को मैंने अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान ही पहचाना. इसी दौर में उनके कई पुराने लेख पढ़े, टिहरी बांध आंदोलन के दौरान की उनकी रिपोर्ट्स खोज-खोज कर पढ़ी, जनपक्ष पत्रिका के लगभग सारे संपादकीय पढ़े और उनके हर लेख को पढ़ने के साथ-साथ उनकी लेखनी का क़ायल होता गया.
यही वो दौर भी था जब टोडरिया जी ने उत्तराखंड जनमंच की शुरुआत की. इस शुरुआत में उन्होंने मुझे और मेरे कुछ साथियों को भी शामिल किया. वो पहाड़ से जुड़े मुद्दों को सिर्फ़ विमर्श तक सीमित न रखते हुए एक आंदोलन की शक्ल देना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने जगह-जगह जनसभाएँ भी शुरू की जिसमें से कुछ शुरुआती सभाओं में हम भी शामिल हुए. लेकिन हमारा ये साथ ज़्यादा लम्बा नहीं रहा. शुरुआती दौर में ही हम लोग उनसे वैचारिक साम्य नहीं बना पाए. क्योंकि जो राजेन टोडरिया उत्तराखंड जनमंच चला रहे थे वो वैचारिक तौर पर उस राजेन टोडरिया से बहुत दूर थे जिन्हें हमने लगातार पढ़ा था, जिनकी रिपोर्ट्स से पत्रकारिता सीखी थी और जिनके संपादकीयों से असल जनपक्ष समझा था.
राजेन टोडरिया अचानक उग्र क्षेत्रवाद की बातें करने लगे थे. उनकी बातों में पहाड़ का दर्द, जल-जंगल की चिंता थी लेकिन उनके तरीक़े बाल ठाकरे को आदर्श मानकर इससे पार पाने की वकालत कर रहे थे. यहां से हमारी वैचारिक असहमति शुरू हुई जो आगे जाकर तब और बढ़ गई जब टोडरिया जी खुलकर बाँधों के समर्थन में लिखने लगे. बल्कि सिर्फ़ लेखन ही नहीं, उत्तराखंड जनमंच ने बाँधो के समर्थन में सभाएँ भी की और बांध का विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों पर जिन लड़कों ने हमला किया, उन्हें सम्मानित भी किया.
टोडरिया जी में ये बदलाव देखना हमें हैरान कर रहा था. वे उस राजेन टोडरिया के ठीक विपरीत नज़र आ रहे थे जो वो ताउम्र रहे. हमारे लिए यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि वही राजेन टोडरिया आज बाँधों के पक्ष में खड़े हैं जिन्होंने बाँधों के विरोध में कभी लिखा था:
‘किसी शहर को डुबोने के लिए,
काफी नहीं होती है एक नदी,
सिक्कों के संगीत पर नाचते,
समझदार लोग हों,
भीड़ हो मगर बंटी हुई,
कायरों के पास हो तर्कों की तलवार,
तो यकीन मानिये,
शहर तो शहर,
यह काफी है,
देश को डुबोने के लिए.’
टोडरिया जी के विचारों में इन विरोधाभासों का क्या कारण रहा, ये सवाल मैं उनसे कभी नहीं कर पाया. कॉलेज की पढ़ाई के बाद नौकरी के लिए दिल्ली आना हो गया. सक्रीय पत्रकारिता में मुझे एक साल भी पूरा नहीं हुआ था जब टोडरिया जी हमारे मन के द्वन्द को अनुत्तरित ही छोड़ कर चले गए. इस द्वन्द को दूर करने के लिए अब कभी उनसे कोई सवाल मुमकिन भी नहीं. लेकिन इतना तय है कि वो कभी ‘सौड़ के राजू’ के क़िस्से बनकर, कभी जनपक्ष की मज़बूत आवाज़ बनकर, तो कभी पहाड़ के लिए धड़कती एस राजेन टोडरिया की कलम बनकर मुझे ताउम्र रोमांचित करते रहेंगे.