वृत्ति व फिर्ती (औजी और बादी) लोक समाज के अमूल्य अंग- प्रीतम भरतवाण!

वृत्ति व फिर्ती (औजी और बादी) लोक समाज के अमूल्य अंग- प्रीतम भरतवाण!

(मनोज इष्टवाल)
कुछ लोग जन्म ही इसलिए लेते हैं ताकि वे समाज का ध्वज वाहक बनकर उसका डंका चहुँ दिशा में बजा सकें! लेकिन कुछ ऐसे विलक्षण भी होते हैं जिनका जन्म मृत हो चुकी लोक धरोहरों को चरणामृत नहीं बल्कि मृत संजीवनी को घोटकर संजीवनी बन जाना होता है जो लोक समाज के कल्याण के लिए सिर्फ अपने आप ही जागृत नहीं होते बल्कि पूरे अपने समाज की अगुवाई कर उन में जन चेतना का संचार करते हैं! उन्ही में से एक ऐसे सुशेनवैध ऐसे हैं जिन्होंने जब काँधे में ढोल उठाया तो उसकी घमक पूरे विश्व भर में सुनाई दी!

यकीन मानिए जब भी कहीं जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण के साथ चाय या कॉफ़ी जैसी छोटी मुलाकातें हुई उन्होंने अपने अंदर भरा ज्ञान भंडार यूँ उड़ेला कि कलम मचलती हुई कागज़ से मुहब्बत कर बैठती है और इनके संभोग से जन्म लेने वाले शब्द इस अनूठे लोक के लिए नई निर्माण सामग्री छोड़ जाते हैं! विगत दिवस भी विश्व प्रसिद्ध इस लोक कलाकार से जब कॉफ़ी पर मुलाक़ात हुई तो उनके मुखार्बिंदु वृत्ति और फिर्ती ने शमां बाँध दी! विगत कई दिनों से मैं उन्हें इसलिए ढूंढ रहा था क्योंकि मुझे अपनी डाकुमेंटरी फिल्म “द किंग ऑफ़ जस्टिस…गोलज्यू देवता..!” पर उनका साक्षात्कार चाहिए था जिसमें उन्होंने मंडोला घुघूती की जागर ही नहीं सुनाई बल्कि गोलज्यू देवता की 22 पीढ़ियों की वंशावली सुना डाली!

जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण के चेहरे पर खिलती मुस्कान, सादगी व बेहद नम्र व्यवहार उनकी जीवन शैली का ऐसा गहना है जिसे कोई विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व जब धारण करता है तो उसके  जयगान की गूँज चारों दिशा में सुनाई देती है! 14 देशों में विभिन्न विश्वविद्यालयों में ढोल सागर से सम्बन्धी ज्ञान बाँट रहे प्रीतम भरतवाण से जब मैंने कहा- आप ने जब काँधे में ढोल टांगा तब ऐसा काल था कि आपकी जाति-बिरादरी के भाईबंध ढोल को काँधे से उतार चुके थे? और तो और यह शोषित समाज ध्याड़ी करना पसंद करने लगा था नकि ऐसी वृत्ति जिसमें समाज की उपेक्षा झेलनी पड़ रही हों और रोटी के लाले पड़े हों! उन्होंने मुस्कराकर जबाब दिया व बोले- मेरी शिक्षा मसूरी के एक ठीक ठाक कहे जाने वाले इंग्लिश स्कूल से हुई है! मेरे बाप दादाओं ने विरासत में जो ग्रहण किया था ईश्वर ने वह मेरे दिलो-दिमाग में ही नहीं उतारा बल्कि माँ सरस्वती की ऐसी कृपा हुई कि वह कंठों को भी रास आ गयी! मैं जब अपने लोक के जागर लेकर समाज के बीच आया तब पाया कि पूरे समाज ने मुझे हाथों हाथ लिया ! खूब प्रशंसा यश-कीर्ति मिली! तब मुझे लगा कि यह ढोल यूँहीं श्रृष्टि संरचना का माध्यम नहीं बना! बस मैंने तब ढोल का परिचय सार्वजनिक मंचों में करना शुरू कर दिया! .ढोल काँधे पर होता तो कई विरादरी के लोग कहते भी कि अरे इतनी ख्याति प्राप्त होने के बाद भी आप ढोल को खुलेआम गले में टांगते घूम लेते हो! अब आपको यह नहीं करना चाहिए! तब मेरी जिव्हा पर एक ही प्रश्न होता कि ढोल तो पृथ्वी की उत्पत्ति का अंश है ! अरे तबले को देखों जो कोठों का जाना माना बदनाम साज था जब उस्ताद जाकिर हुसैन के हाथ लगा तो वह तबला अब रामलीला में पुरुषोत्तम श्रीराम के श्रीचरणों का मुख्य वाद्ययंत्र बन गया!
प्रीतम बोलते हैं –इष्टवाल जी, मैं चाहता तो प्रतिभा से कहीं भी ठीक ठाक नौकरी पा लेता लेकिन तब प्रीतम कहाँ होता? आज मेरे लोक ने मुझे आप जैसे लोगों के बीच नयी पहचान दी! अब देखिये हम गोलज्यू देवता के दास हैं ! मेरी जाने कौन सी पुश्त कुमाऊं से आकर टिहरी बसी लेकिन मेरे जागरों ने आपको मुझ तक पहुँचने के लिए मजबूर कर दिया! प्रीतम कहते हैं यह मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि सार्वजनिक मंचों में जब भी मैं ढोल पर हाथ की थाप देता हूँ या गजाबल मारता हूँ प्रकृति के मुरझाये फूल खुद-ब-खुद खिलने लगते हैं! तालियों के साथ कई कदम मचलने लगते हैं! उस लोक के देवतागण आकर इस धरा का मान बढाने लगते हैं! अब इस से अधिक चाहिए भी क्या!
मैंने प्रश्न किया- क्या ढोल बजाना ही ढोल सागर हुआ ? उनका जवाब सुनकर हैरत में पड़ गया! वो कहते हैं हमारे समाज के कई पारंगत लोग ढोल के हर बोल को कभी भी ढोल में नहीं उतारते शायद यही कारण है कि हम उनका मूल्यांकन नहीं कर पाते! उन्होंने ओंकार दास जैसे ढोली व ढोल सागर ज्ञाता के असमय चले जाने को बड़ी क्षति बताते हुए कहा – ढोल की देवसार को सामान्य रूप से कोई भी औजी बजाता नहीं है क्योंकि उसके लिए एक अनुष्ठान की आवश्यकता होती है! अब न सयाना पद्धति रही है और न ढोल के ऐसे कद्रदान! जब कद्रदान थे तब पैंसा नहीं था आज पैंसा है लेकिन ढोल समझने समझाने वाले नहीं बचे हैं! मुझे यही चिंता है कि अब इस कला के गिने चुने लोग ही ज़िंदा हैं अगर इसका विजुअलाइजेश्न नहीं हुआ तो यह तय मानिए हम एक ऐसे लोक से वंचित हो जायेंगे जिसके लिए हमारी आगामी पीढियां हमें कोसती रहेंगी! रही ढोल सागर की बात तो सच्चाई यह है कि कोई भी औजी, बाजगी, दास नौछोप की नौबत्त नहीं बजाता और जिसने बजाई या तो उसने एड़ी, आंछरी, डागिनी, सागिनियों व यमराज को खुश कर दिया वरना वह ढोल सहित यमलोक पहुँच गया! यह छोप बजाना हर किसी के वश का नहीं है ! सच कहूँ तो बड़े से बड़ा ढोल सागर का ज्ञाता कभी भी इस छोप को नहीं बजाएगा क्योंकि इसकी बात सुनते ही तन बदन के रोंवें उठ खड़े होते हैं!
संदर्भवश आई बात को जब मैंने औजी और बादी समाज को साथ जोड़ने की कोशिश की तो उन्होंने कहा हम दोनों ही दो समांतर धाराएं हैं एक ने वृत्ति सम्भाली तो दूसरे ने फिर्ती! औजी अपनी वृत्तिबाड़ी से भरण पोषण करता रहा है जबकि बादी के लिए कोई सीमाएं निहित नहीं थी वह कहीं भी आ जाकर अपने ढोलक और घुन्घुरुओं से अपना भरण पोषण कर सकता है लेकिन मुझे तब पीड़ा होती है जब आजकल के गायक वृत्ति और फिर्ती के लोकजीवन के गीतों को तोड़ मरोड़ कर ऑडियो के माध्यम से उसका स्वरूप बिगाड़ देते हैं! ऐसा नहीं है कि राधाखंडी या पैंसर सहित कई अन्य शैली के बोलों में बादी समाज ही पारंगत होता है! हमारे दोनों ही समाज जब इन बोलों के साथ आज भी अपने घरों में बैठते हैं और जब गीतों की बयार बहती है तो लगता है जैसे माँ गंगा में बहती सरस्वती पूरे संसार को इस रस का अमृत पिलाने निकली हो!
प्रीतम भरतवाण पर लिखना उतना ही मुश्किल कार्य है जितने मुश्किल उनके ये मुख से निकले शब्द होते हैं! साधारणत: हम उन अमूल्यवान शब्दों को एक बात के रूप में ही लेते हैं उन्हें संजोने की कोशिश नहीं करते लेकिन प्रीतम की इस पीड़ा को कौन पडेगा जिसे वह यूँ बयाँ करते हैं- इष्टवाल जी, काश…मेरा पूरा समाज जागृत हो उठता काश …वृत्ति का ब्रह्मनाद देवभूमि के हर आँगन में गूंजता ! काश…फिर्ती की धर्मधाद हर कान को सुनाई देती और हमारा वह खंडहर होता लोक फिर से इमारत में तब्दील होता जिसे लेकर पूरा विश्व नतमस्तक हो जाता है!
उनका यह संदेश न सिर्फ सवर्ण समाज के लिए था बल्कि उसकी गूढता में उनका वह समाज भी था जिसने सामाजिक उपेक्षाओं और तृस्कार के चलते यह सब छोड़-छाड़ दिया है! और यही कारण भी रहा कि प्रीतम जैसे बिरले व्यक्तित्व ने ढोल काँधे पर डालकर एक यलगार/ललकार दी जिससे उनका वृत्ति समाज काफी हद तक उठ खडा भी हुआ लेकिन फिर्ती में अभी भी जोश की आवश्यकता दिखाई देती है! उनके भाव तब सचमुच जुदा-जुदा थे जब मैंने प्रश किया- प्रीतम भाई, वो पद्मश्री आपको कब मिलेगा जिसके आप हकदार हैं!
 
 

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