वीर भड़ माधौ सिंह भंडारी नाटक ने फिर से जीवित की सरौं/सरैं नृत्य की रण भेरी।

*वीर भड़ माधौ सिंह गीत नाट्य (पर्वतीय नाट्य मंच) ने एक अभूतपूर्व प्रयोग कर लुप्तप्रायः हो रही एक युद्ध कला को जीवंत करने का प्रयास किया । पूरी टीम को साधुवाद !
(मनोज इष्टवाल)
पौराणिक सरै नृत्य मुख्यत: बारात के लिए नहीं बल्कि युद्ध के लिए तैयार किया गया गूढ़ वाद्य था जिस की धुन और लहरों के आधार पर ढाल तलवार प्रशिक्षण दिया जाता था। कुमाऊँ मंडल का छोलिया नृत्य भी ऐसी ही युद्ध कला का बाजा कहा जा सकता है ताकि दुश्मन बाजे के गूढ़ संकेतों व भँकोरों के वादन को न समझ सके।
महाभारत काल की चक्रव्यूह संरचना का बाजा आज भी हमारे ढोल सागर का अभिन्न अंग है जो सरै/सरों नृत्य कला से काफी मेल खाता है। इस से साफ जाहिर होता है कि यह नृत्य कला बेहद पौराणिक है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि हमारी विरासतों के जंक ने इसके अंजर पंजर खत्म कर दिए हैं।

अब आप ही देखिये पहाड़ को लोकोत्सव में भले ही छोलिया नृत्य कला आपको दिखने को मिल जाएगी लेकिन पहाड़ी युद्ध बाजा या राजसी वाद्य युद्ध कला के रूप में प्रचलित सरौं या सरै नृत्य विलुप्ति के कगार पर है। सच मानिए तो जितने भी मूर्धन्य संस्कृति कर्मियों ने जब इस बाजे का वादन मंच से अपने कानों में घुलते सुना तो कई कह पड़े अहा…सरै/सरौं है ये तो। लेकिन उनमें से किसी के पास भी यह जवाब नहीं था कि यह सिर्फ शादी विवाह या शुभकार्यों में बजाया जाने वाला बाजा नहीं है बल्कि यह युद्ध कौशल का वह रण बाजा है जो राज परिवार में जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न उत्सवों में विभिन्न प्रकार से बजाया जाता है। इस बाजे में साथ अलग अलग तरह के वादन हैं जिन्हें सात जन्मों के बंधन भी माना गया है और जन्म से लेकर मृत्यु तक के सात सूत्र भी।

जहां तक मेरा शोध कहता है कि हो न हो यह महाभारत में कौरवों द्वारा रचित व्यूह संरचना के लिए बनाया गया ध्वन्ध वाद्य हो। जिसे चक्रव्यूह संरचना का नाम दिया गया है। क्योंकि इसके भी छ: छोप बजते हैं सातवें छोप को विघटन बताया जाता है। जैसे ढोल सागर में नवें छोप को नहीं बजाया जाता है क्योंकि वे नौ बहनें एड़ी, आँछरी, भराड़ी, रणसैणी, रण पिचासिनी इत्यादि को अवतरित करने की ताल है जिसे शिब दैत्य संग्राम में बजाया गया था। ढोल सागर ज्ञाता उसे जानते हैं लेकिन उसे बजाने का साहस नहीं करते।
वही सरौं/सरै नृत्य का सातवां छोप भी होता है जब भी बजता है तभी संग्राम छिड़ जाता है। सरौं नृत्य करते जिस भी बारात के सरौं वादक बारात में जाते थे तो जानकार उन्हें सख्त हिदायत दे देते थे कि खबरदार बाजे में खोकर कहीं गलती से भी सातवीं छोप न बजा देना। जरूरत हमें इन सिद्धांतों को समझने की है व इन तालों पर अध्ययन करने की। दरअसल पहाड़ी समाज के सवर्णों ने कभी भी बाजगी समाज के करीब जाकर इन गूढ़ रहस्यों पर या तालों पर चर्चा करने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि दबे कुचले इस समाज को हीन भाव से देखने वाले हमारे सवर्ण समाज ने सामाजिक परम्पराओं को देखते हुए इसे सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन का साधन मात्र समझा है।
सरौं/सरैं मुख्यत: गढ़ कुमाऊँ सीमा से लगे क्षेत्रों से ज्यादा जुड़े रहे। वहीं कुमाऊँ में भी छोलिया का प्रयोग गढ़ कुमाऊ सीमा पर ही हुआ है। यह सच है कि घातिया नगाड़ा सिर्फ अंतरराष्ट्रीय युद्ध सीमा का वाद्य यंत्र रहा है व यह किरातों व कत्यूरियों के प्रचलन में ज्यादा रहा है। सरौं/सरैं मूलतः रण बाजा ही कहा गया है जिसके वादकों को युद्ध में मारना बड़ा पाप समझा जाता था व ऐसे यौद्धा को सबसे बड़ा पापी। नगाड़ों का युद्ध पैटर्न आपने जोधा अकबर नाम फ़िल्म के गीत ” अजीमोशान शहंशाह मरहबा…!” में सुना होगा। यह भी युद्ध कला का ही एक वेटर्न कहरूवा पैटर्न है जो बाहर मुल्कों से आयातित है।इसे इंडियन पैटर्न नहीं कहा जाता बल्कि इसे इस्लामिक व यूरोपियन पैटर्न के नाम से भी जाना जाता है। वहीं उत्तराखण्ड व हिमाचल सीमा पर टोंस नदी के आर पार यही कहरूवा में नाटी पैटर्न में नगाड़ों के सुर सुनाई देते हैं जो ऊंचे धीमे बोलों को तेजी में बदलते हैं यह भी युद्ध कला का ही एक अंश कहा जाता है।
बहरहाल बहुत समय बाद पर्वतीय नाट्य मंच मुम्बई के माधौ सिंह भंडारी गीत नाट्य मंचन के दौरान जब यह बजा मंच पर बजा तो सच कहें दिल के सारे तार झनझना गए। लगा हमारा समाज स्वप्न से जाग गया है। लगा अब लोक संस्कृति का पुराना दौर फिर से शुरू होने वाला है। हम पुनः अपनी जड़ों को हरा करने लगे हैं। यह तय है कि जिस लोक समाज की लोक संस्कृति जीवित रही वह समाज लंबे काल तक जीता जागता दिखाई देता है। पर्वतीय नाट्य मंच के इस अथक प्रयास के लिए नाट्यकर्मी व अभिनेता बलदेव राणा व उनकी 108 सदस्यों की टीम को ढेरों शुभकामनाएं।

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