विश्व रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयार हैं उत्तराखंड के आवजी गुनिजन! लेकिन क्या संस्कृति विभाग सम्मानित कर पायेगा इन महिला कलावन्तों को!
विश्व रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयार हैं उत्तराखंड के आवजी गुनिजन! लेकिन क्या संस्कृति विभाग सम्मानित कर पायेगा इन महिला कलावन्तों को!
(मनोज इष्टवाल)
ढोल के शब्द जब धीमी गति से बढ़ते हैं तब कोई बिरला ही ऐसा व्यक्ति होगा जो आवजी गुनिजन के मुंह से निकल रहे ब्रह्मवेद के उन व्याख्यानों को सुनता होगा जिसमें वे समस्त श्रृष्टि के मंगलगान के बाद उस घर के लिए मंगल कामनाएं करते हैं जिसकी देहरी पर ढोल के बोल गुंजायमान हैं! ऐसे हि ढोल के बोल जब आप पूरे प्रदेश की इकलौती महिला युगल ढोल वादकों के मुंह से सुनेंगे तो क्या कहेंगे! ढोल की धुन्याल या शबद के साथ जब इनके मुंह से ये बोल फूटते हैं तब सचमुच तन बदन के रोंये खड़े हो जाते हैं! एक का नाम श्रीमती मकानी देवी तो दूसरी का नाम श्रीमती सुन्द्ली देवी! आईये सुनते हैं क्या बोलती हैं ये :-
(फोटो साभार- सुरेन्द्र सिंह कंडारी (दैनिक जागरण)
यूँको राज रखो देवता,
माथा भाग दे देवता!
यूँका बेटी बेटा राजी रखो देवता,
यूँका कुल की जोत जगै देवता!
यूँकी डांडी-कांठयूँ मा,
फूली रौं फ्योंली फुलाड़ी!
राजी रौं यूँकी साग सगवाडी
भीतरी-डन्डयाली देवता.
राउंन रोज जलबली,
धरती माता सोनों बर्खौ
नाज का कोठार दे,
धन का भंडार दे!!
फिर द्रुत गति से ढोल के साथ दमाऊ बजता है! और शुभकार्य आरम्भ हो जाता है. लेकिन ढोल के बोलों के साथ इनके हृदय की पीड़ा का बखान इनकी मुखमुद्रा पर साफ़ दिखाई देता है! सन 2013 में ये दोनों तब प्रकाश में आई जब दैनिक जागरण के पत्रकार सुरेन्द्र सिंह कंडारी द्वारा आगराखाल से इनकी कथा-ब्यथा का लेख प्रकाशित हुआ!
श्रीमती मकानी देवी ग्राम – कुमाली गाँव व श्रीमती संदली देवी ग्राम आमपाटा दोनों ही निरक्षर हैं. श्रीमती मकानी देवी मात्र 21 बर्ष की उम्र में हि विधवा हो गयी थी तब से कभी किसी के खेतों में काम तो कभी कहीं ध्याड़ी करके जैसे तैसे गुजर बसर कर रही थी लेकिन जब देखा इससे पूरा होने वाला नहीं तब उन्होंने अपने पति का ढोल काँधें पर टांग दिया. टालें बजाना वह सीख हि गयी थी व अनपढ़ होने के बाबजूद मुंह जुबानी ढोल सागर के आखर भी!
वही कहानी श्रीमती संदली देवी की भी है. पति के देहांत के बाद जैसे घर संसार हि उजड़ गया हो! कहते हैं कि बेटी का न आप घर न बाप घर वाली जब स्थिति हो तब उसके धैर्य की परीक्षा होती है. आखिर कुछ न सूझा तो संदली देवी ने अपने पति का पेशा अपनाना ही वाजिब समझा. उन्होंने तीज त्यौहारों के दौर में अपने गाँव में दमाऊ से पंचायती आँगन में नौबत बजानी शुरू की! फिर एक दिन ऐसा आया कि दोनों की मुलाक़ात हुई और दोनों ने तय कर दिया कि अपनी अपनी बिरादरी में हम दोनों मिलकर इस पेशे को जीवित रखेंगे व जहाँ भी कारिज होंगे दोनों साथ जायेंगे!
श्रीमती मकानी देवी बताती हैं कि जब वो दोनों पहली बार ढोल टांगकर गाँव के शुभ कार्य में शिरकत करने पहुंचे तब पुरुषबर्ग को जरा अटपटा लगा लेकिन ढोल वादन सुनने के बाद अब हमें हर प्रकार का सम्मान दिया जाता है.
ज्ञात हो कि ये दोनों हि गढ़वाल सभा दिल्ली व महिला समाख्या के अलावा कई अन्य स्थानों में भी सम्मानित हो चुकी हैं लेकिन प्रश्न अब ये उठता है कि प्रदेश की पहली इन महिला कलावन्तों का क्या प्रदेश का संस्कृति विभाग सम्मान करेगा या इनके लिए प्रदेश सरकार कोई ऐसा धरातल प्रस्तुत करेगी जिस से महिला सशक्तिकरण के रूप में प्रदेश की महिलाओं के लिए एक नजीर साबित हो सकेगी.
हमारे पास आज भी कई ऐसे उदाहरण है जिनमें सिर्फ ढोली समाज ही नहीं बल्कि बादी समाज ने आर्थिक बोझ के चलते इस पेशे से मुंह मोड़ लिया और हमारी एक लोक संस्कृति लगभग समाप्त ही हो गयी.
भले ही वर्तमान में संस्कृति विभाग इन कलावन्तों की कलाओं को जीवित रखने के लिए हर सम्भव प्रयत्न कर रहा है और जागर गायक प्रीतम भरतवाण के ढोल काँधे पर डालने के बाद ये कलावंत एक उजाले की किरण के रूप में पुन: अपने पेशे के प्रति सजग हुए हैं लेकिन हम कितने सजग इस समाज के प्रति हुए हैं या होंगे यह हमें देखना होगा. क्योंकि ढोल को तुच्छ और ढोली को गरीब समझने वाले समाज को इस समाज के लिए सुगमता के द्वार खोलने होंगे. तभी यह कला व कलावंत आर्थिक व समाजिक रूप से सबलता की सीढ़ी चढ़ते दिखाई देंगे.
संस्कृति विभाग द्वारा जहाँ प्रेमाश्रम हरिद्वार में पूरे उत्तराखंड के इन गुनीजनों को इकट्ठा कर एक अद्भुत कार्यशाला का आयोजन किया गया है जिसमें हम विश्व रिकॉर्ड बनाने को तैयार हैं वहीँ सोशल साईट पर ढोल काँधे में टांग पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व शिक्षा मंत्री व वर्तमान संस्कृति मंत्री पर जैसे व्यंग्य बाण चलाये जा रहे हैं वह कायदे से नेताओं को चुभते होंगे या नहीं लेकिन इन कलावन्तों को अवश्य चुभते हैं जो आपके घर आँगन में शगुन के बोलों से आपके अनिष्ट को टालने के लिए काँधे पर ढोल ढो रहे हैं. आईये हम इस समाज के इस परिश्रम का मूल्यांकन करें व ऐसी मातृशक्ति को नमन करें जिसने विपत्ति के समय बिखरना नहीं बल्कि सम्भलना सीखा है!