विश्व के एक मात्र मंदिर में होती है धृतकमल पूजा।
(मनोज इष्टवाल)
यों तो हर बर्ष भगवान बद्रीश के कपाट खुलने पर माणा गांव की महिलाओं द्वारा उन्हें घी से साथ बुना गया ऊनि वस्त्र जिसे धृतकम्बल कहते हैं पहनाया जाता है लेकिन यह कोई नहीं जानता कि ऐसी ही एक सतत प्रक्रिया के तहत आदिदेव महादेव को धृत कमल चढ़ाया जाता है।
आपको ज्ञात हो कि रावण वध के बाद ब्राह्मण को मारने की पाप मुक्ति के लिए पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी ने गढ़वाल जनपद के श्रीनगर स्थित कमलेश्वर महादेव में एक हजार ब्रह्म कमल चढ़ाए थे।
हो न हो यह धृतकमल चढ़ाने की प्रक्रिया का विधान तभी यानि त्रेता युग से ही शुरू हुई हो। आपको बता दें कि हर बर्ष माघ महीने कि सप्तमी को कमलेेेश्वर मंदिर में विशेष ” घृतकमल” पूजा होती है , रात्रि पूजा में 50 किलो से ज्यादा घी शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है और इसे मालू के पत्तों से ढक कर रात भर के लिये छोड़ दिया जाता है जिसे प्रसाद के रूप में अगले दिन भक्तों में बांटा जाता है। इस पूजा के मन्त्र भी बेहद विशेष होते है। इस घी को कमलपुष्प के साथ लेपकर शिबलिंग में चढ़ाया जाता है जिसे “धृतकमल” पूजा नाम से जाना जाता है।
यह विशेष पूजा धरती पर सिर्फ ” कमलेश्वर महादेव ” में ही होती है, मान्यता है कि शिवलिंग पर रात भर चढ़े घी में अमृत समान गुण उत्पन्न हो जाते हैं । वहीं इसके वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या हैं इस पर अभी शोध होना बाकी है क्योंकि यह प्रमाणिकता तो है कि धृतकमल की पूजा के बाद अगली सुबह बंटे इस धृतकमल प्रसाद में कई ऐसे तत्व दिखाई देते हैं जो जीवन अमृत कहे जा सकते हैं और इस प्रसाद का आचमन करने वाले अधिकांश लोग रोग ब्याधि मुक्त हो जाते हैं लेकिन यह भी सच है कि यह पूजा क्यों होती है इस रहस्य का किसी भी भक्त को अभी तक ज्ञान नहीं है।
माघ सप्तमी के रात्रि पहर की यह विशेष पूजा संसार की सबसे अद्भुत पूजा में एक मानी जाती है । इसे सार्वजनिक शायद इसलिए भी नहीं किया जाता क्योंकि इसका पता लगने के बाद हर साल माघ सप्तमी को मंदिर में हजारों लोगों के इकट्ठा होने का डर रहा हो। और क्योंकि धृतकमल प्रसाद को संजीविनी माना जाता है इसलिए यह मानव स्वार्थ भी हो कि यह कम ही लोगों को बंटे।
बहरहाल कारण जो भी रहे हों लेकिन यह प्रसाद अमृत्व लिए है यह तय मानिये। अब धृतकमल की पूजा में इस्तेमाल ब्रह्मकमल के बारे में भी जानकारी ले लेते हैं कि आखिर ऐसा क्या है जो धृत और कमल के लेप से यह अमरत्व प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्म कमल सुंदर, सुगंधित और दिव्य फूल है। देवताओं का प्रिय यह फूल, आधी रात को खिलता है। वनस्पति शास्त्र में ब्रह्म कमल की 31 प्रजातियां बताई गईं हैं। यह फूल हिमालय पर खिलता है।
चीन में भी ब्रह्म कमल खिलता है जिसे यहां ‘तानहुआयिझियान’ कहते हैं जिसका अर्थ है प्रभावशाली लेकिन कम समय तक ख्याति रखने वाला। इसका वानस्पतिक नाम ‘साउसुरिया ओबुवालाटा’ है।
वर्ष में केवल जुलाई-सितंबर के बीच खिलने वाला यह फूल मध्य रात्रि में बंद हो जाता है। ब्रह्म कमल औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे सुखाकर कैंसर रोग की दवा में उपयोग किया जाता है।
तो वहीं, इससे निकलने वाले पानी को पीने से थकान मिट जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्म कमल देवी नंदा का प्रिय पुष्प है, इसलिए इसे नंदाष्टमी के समय में तोड़ा जाता है और इसके तोडने के भी सख्त नियम होते है।
ब्रह्मकमल को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे उत्तरखंड में ब्रह्मकमल, हिमाचल में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर-पश्चिमी भारत में बरगनडटोगेस।
उत्तराखंड और हिमालय पर पाया जाने वाले ब्रह्म कमल को हिमाचल प्रदेश में ‘दूधाफूल’, कश्मीर में ‘गलगल’, श्रीलंका में ‘कदुफूल’ और जापान में ‘गेक्का विजन’ कहते हैं। ब्रह्म कमल का पौधा पानी में नहीं, बल्कि जमीन पर ही होता है।
यदि आम कमल की बात हो तो कमल को पद्म, पंकज, पंकरुह, सरसिज, सरोज, सरोरुह, सरसीरुह, जलज, जलजात, नीरज, वारिज, अंभोरुह, अंबुज, अंभोज, अब्ज, अरविंद, नलिन, उत्पल, पुंडरीक, तामरस, इंदीवर, कुवलय, वनज आदि नामों से भी जाना जाता है। फ़ारसी भाषा में कमल को ‘नीलोफ़र’ कहते हैं और अंग्रेजी में इंडियन लोटस या सैक्रेड लोटस, चाइनीज़ वाटर-लिली, ईजिप्शियन या पाइथागोरियन इत्यादि नामों से जाना जाता है।
कमल का पौधा (कमलिनी, नलिनी, पद्मिनी) पानी में ही उत्पन्न होता है और भारत के सभी उष्ण भागों में तथा ईरान से लेकर आस्ट्रेलिया तक पाया जाता है। कमल का फूल सफेद या गुलाबी रंग का होता है और पत्ते लगभग गोल, ढाल जैसे, होते हैं। पत्तों की लंबी डंडियों और नसों से एक तरह का रेशा निकाला जाता है जिससे मंदिरों के दीपों की बत्तियाँ बनाई जाती हैं। कहते हैं, इस रेशे से तैयार किया हुआ कपड़ा पहनने से अनेक रोग दूर हो जाते हैं। कमल के तने लंबे, सीधे और खोखले होते हैं तथा पानी के नीचे कीचड़ में चारों ओर फैलते हैं। तनों की गाँठों पर से जड़ें निकलती हैं।
अब बात आती है कि माघ सप्तमी को ही इसकी पूजा क्यों होती है। एक अध्ययन के अनुसार माघ मास मेँ खिलने वाले कमल या ब्रह्म कमल में अद्वीतीय शक्तियां ब्याप्त होती हैं। चूंकि ब्रह्मकमल रात्रि पहर में ही चन्द्रमा की ऊर्जा प्राप्त कर खिलने वाला एक मात्र ऐसा पुष्प है जिसे देवताओं में चढ़ाया तो जाता है लेकिन इसकी पूजा भी देवताओं की भांति होती है क्योंकि इसमें देवता स्वरूप सभी औषधि पादप विधमान हैं। इसकी सबसे बड़ी पूजा फूलों की घाटी के नजदीक भ्यूंडार घाटी में होती है जहां त्रेतायुगीन लक्ष्मण मन्दिर है जो अधिकतर गुरुद्वारे में तब्दील हो गया है। यह भी माना जाता है कि द्रोणागिरी पर्वत की संजीविनी भी इसी कमल में विधमान थी जिसे सुषैण वैध ने लक्ष्मण को पिलाकर उनकी जान बचाई थी।
क्योंकि कमलेश्वर श्रीराम से जुड़ा है ऐसे में हो न हो यह धृतकमल पूजा कहीं न कहीं त्रेता काल से जुड़ी हो और यह मृत संजीवनी हो। बाकी यह तय है कि इस पर वृहद शोध की आवश्यकता है।
(फोटो- उदित घिल्डियाल)