विगत सदी में 60 के दशक में देहरादून में थे वैश्यालय!

(मनोज इष्टवाल)
आज के समय अगर आप देहरादून शहर में रंडीखाना ढूंढने निकलेंगे तो सब हंसी उड़ाएंगे क्योंकि यहां धंधा करने वाली औरतें तो कई मिल जाएंगी लेकिन रजिस्टर्ड रंडीखाना या वैश्यालय कहीं नहीं मिलेगा।

अखिल गढ़वाल सभा द्वारा आज ही लोकार्पित की गई पुस्तक कौथिग में देहरादून शहर को अपनी यादों में समेटने वाला 12 बर्ष का एक बालक जब विभाजन के बाद लाहौर से देहरादून आता है उसने तब के दून को अपनी यादों के संस्मरण में उकेरते हुए लिखा है कि एक समय 1955 के आस पास गुडंई इस सीमा तक बढ़ गयी थी कि पैजामा कुर्ता दाढ़ी मोंछ व गोल टोपी पहने कुछ गैंग इतने सक्रिय हो गए थे कि वे बिना चाकु जेब में लिए बाहर नहीं निकलते थे लेकिन सरकार ने गुंडा एक्ट क्या लगाया एक हफ्ते में पैजामा पैंट में बदल गया और दाड़ी मोंछ गोल टोपी सफाचट हो गयी।
अब यह बालक उम्रदराज हो गए हैं और इनका नाम है मदन शर्मा। वे लिखते हैं कि बन्नू गंज व मनु गंज दोनों ही वैश्यालयों के लिए प्रसिद्ध थे जहां कम दाम पर सुंदर वैश्याएं मिल जाया करती थी जो अक्सर रेलवे स्टेशन से पलटन बाजार निकलने वाले रास्ते के भवनों की छज्जों में खड़ी होकर ग्राहकों को लुभाया करती थी।
जहां वर्तमान में कोतवाली है कभी उसके आस पास शाम होते ही हारमोनियम ढोलक की गमक व घुंघुरुओ  की खनक सुनाई देती थी।
तब बाईयों के गीतों में पान की गिलौरियां रही होंगी कि नहीं यह बात उन्होंने स्पष्ट नहीं की क्योंकि इस से यह आइडिया मिल जाता कि मदन शर्मा जी कभी वहां गए कि नहीं लेकिन यह सत्य था कि तब मैदानी भू-भाग के लोगों का यह शहर ऐशगाह हुआ करता था जो यहां रंडीखाने में आकर नोट लुटाने व मुजरा सुनने आया करते थे। इनमें व्यापारी नेता और अधिकारी प्रमुख हुआ करते थे।
भले ही आज न वो वैश्यालय यहां दिखाई देते हों लेकिन कुछ भवनों की सजावट आज भी उन दिनों की याद दिलाती है जो विगत सदी में 60 की दशक में रही होगी। वैश्यालय तो बन्द हुए लेकिन बढ़ती आबादी के साथ यहां आज भी सड़कों पर घूमती कई धंधा करने वाली वैश्याएं आपको अवश्य मिल जाएंगी।

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