वाह…फिर से खुशहाल होने लगे हैं पौड़ी गढ़वाल के गांव। गूंजने लगे हैं थड़िया/चौंफला के बोल।
(मनोज इष्टवाल)
जब खंडहर खंडहर गांव और खंडित खंडित होता लोकसमाज बंजर होती धरती अपनी अंतिम सांसे गईं रही हो तब तब अचानक तरुणाई की ड्रिप में ऑक्सीजन की हरियाली जहां खेत खलिहानों के फूंस में नए अंकुर पैदा करने लगे। जब तरुणाई की सुबकाई किसी तरुणा के सुहाग की चूड़ी के साथ आह ले तो समझो फिर से इन खंडहरों की तरफ बसन्त लौटने लगा है। और वह बसन्त जब आपके गांव के आंगन से अंकुरित हो पुष्पित और पल्लवित हो तब आप ही सोचिए आपका मन कैसे बाग बाग हो झूम उठेगा।
ऐसी ही शुरुआत मेरे गांव मेरे खेत मेरे खलिहान मेरे पंचायती आंगन से शुरू हुई है। उस पंचायती आंगन में जहां मेरे बचपन के फुदकते पैरों ने उन चिकनी फटालों का स्पर्श पाया है जहां लगभग 40 बर्ष पूर्व मेरी आँखों ने मेरी माँ मेरी ताई मेरी चाची मेरी बौजी मेरी दीदी मेरी भुली मेरे पिता मेरे चाचा मेरे ताऊ मेरी दादी दादा फूफू मामा सबके पैरों के छत्तों, अंगुलियों तलवों की हर घमक के साथ थिरकन की। आज भी पंचायती आंगन में थरपी माँ बालकुँवारी देवी मेरी तरह उस स्पर्श का अहसास कर रही होगी जो कालांतर में इन 40 बर्षों से गुमनामी के अंधेरों में खो गयी थी।
मैंने उन 108 मृत शरीरों के पैरों की गठजोड़, हाथों की जुगलबंदी, पिण्डलियों की थिरकन, कमर की लचक, दांतों की चमक , हिलते झुकते सिरों व चेहरे की भाव भंगिमा व मुंह से फूटते लोकगीतों के साथ नृत्य के साथ झूमते समूहों के साथ इस आंगन की फटालों को व उड़ती धूल को बहुत करीब से नृत्य करते देखा है ।
आज परिवेश बदल चुका है। स्थान वही पंचायती आंगन है लेकिन फटालें सीमेंट से लेप दी गयी हैं। माँ बालकुंवारी का थान पहले बांयी ओर था अब दायीं तरफ पंचायत घर के समक्ष आ गया है। पहले बहुत सुरीले सुर के बीच बाजूबंद चौंफला थड़िया सहित बहुत सारे गीत व वार्ताएं आंगन में गूंजती थी अब मुट्ठी भर लोग कायदे के परिधानों में उसी परम्परा का निर्वहन करने की जद्दोजहद में हैं जो विरासत में हमारे वो लोग छोड़ गए हैं जिनमें 108 मेरे देखते देखते स्वर्ग सिधार गए। फर्क इतना आया कि तब पंचायती आंगन में थिरकने वाले पैरों में चप्पलें भी होती रही होंगी ऐसा संभव नहीं लगता, गुंदमैले कपड़ों व चंद आभूषणों की बड़ी कतार होती थी। महिलाएं पुरुष युगल नृत्य करते थे। बीच बीच में शत्रु दास भैजी के ढोल की घमक के बीच वार्ताएं चलती थी। ऐसी वार्ताएं मेरे पिताजी भी सुनाया करते थे और तब सैकड़ों लोग बिना शोर उस वार्ता का अनुशरण करते थे। अब वक्त बदलते न लोकगीत बचे न वार्ताकार या वृदावली। मात्र प्रेम सिंह नेगी भाई को ही अब ऐसी वार्ता आती है लेकिन अब सुनने वाला समाज है कहाँ? हां…मेरे गांव के सेवानिवृत्त कैप्टन सर्वेश्वर प्रसाद शैली, जगदीश प्रसाद इष्टवाल, मदन सिंह नेगी सहित चंद अन्य लोगों को साधुवाद जिन्होंने अपने लोक समाज लोक संस्कृति के शंखनाद के लिए जाखाल नामक स्थान में हर बर्ष के अंतिम दिन आस पड़ोस के गांवों को जुटाकर फौजियों की सेवानिवृत्ति के बाद एक टीम जोड़ी है जो हर बर्ष यहां सांस्कृतिक मेले का विगत तीन बर्षों से आयोजन करते आ रहे हैं। आज आलम यह है कि मेरे गांव की नौनिहाल बेटियों को भी यह भान हो गया है कि कौन सा लोकनृत्य लोकगीत क्या है व उसके कदम कैसे चलाये जाते हैं। बहुएं इतनी शिक्षित हो गयी हैं कि वह स्वांग रचकर अपनी लोककला का प्रदर्शन कर सकते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है। मोहन शैली की श्रीमती व मुकेश कंडारी की श्रीमती स्वांग रचकर सबको अपनी कला की ओर आकर्षित कर रही हैं। गांव की माँ बहनें चाची ताई बौजी ब्वारी सब कंधों में हाथों की जुगलबंदी में थड़िया/झुमैलो/चौंफला गाती हुई प्रकृति व अपने खेत खलिहानों की खुशहाली के गीत गा रही हैं जैसे-छवटा भुला बर्मी तामा ढुल डिंगतालो।
ग्राम प्रधान भूपेंद्र सिंह रावत व मोहन शैली ने बताया कि साल के अंतिम दिन जाखाल में जुड़ने वाले इस सांस्कृतिक मेले में पट्टी कफोलस्ययूँ की ग्राम सभा कोलडी, अगरोड़ा, डांग व नौली के अलावा धारकोट ग्राम सभा शिरकत कर रही है। अन्य ग्राम सभाओं से भी लोक सँस्कृति का हुजूम मेले में जुटने वाला है तब सचमुच लग रहा है कि पलायन की मार झेल रहे पौड़ी जिले के फिर से बसागत वे बसासत की बयार लौटने लगी है।
देखिये लोकसंस्कृति की यह बानगी:-