वरिष्ठ पत्रकार दिनेश कंडवाल के बाद पीएस भूपेंद्र बसेड़ा ने बनाया रिवर्स पलायन का मन।
(मनोज इष्टवाल)
मन में अगर कोई ठान ले तो क्या नहीं ही सकता। ऐसे ही उदाहरण अब उन लोगों में दिखने को मिल रहे हैं जिनके पास न धन की कमी है न किसी अन्य स्रोत की।
देहरादून डिस्कवर के संपादक दिनेश कंडवाल यूँ तो ओएनजीसी से बतौर साइंटिस्ट सेवानिवृत्त हैं और देहरादून स्थित उनकी करोड़ों की प्रॉपर्टी है। दोनों बेटे एक का खुद का अच्छा व्यवसाय जबकि दूसरा अच्छी नौकरी पर है। अगर महीने का टर्न ओवर देखा जाय तो लाखों में है। बेहद भौतिकवाद की जिंदगी जीने वाले इन शख्स का मन अचानक बदला और इन्होंने अपने पूर्वजों की विरासत अपनी जन्मभूमि छोटी विलायत की साकिलबाड़ी स्थित अपने बंजर खेत और जर्जर मकान को आबाद करने की मन में ठान ली।
दिनेश कंडवाल बताते हैं कि इस सम्बंध में जब उन्होंने अपनी श्रीमती जी से बात की तो वह भी सुख संसाधन से भरे परिवार के साथ अपनी ससुराल व अपने पति का अनुशरण करने में पल भर भी नहीं सोचा। उन्होंने उनकी हाँ में सिर्फ हामी ही नहीं भरी बल्कि उन्हें पुराने आवास में आमूलचूक परिवर्तन करने की भी सलाह दी।
आखिर यह साइंटिस्ट छोटी विलायत के नाम से मशहूर डांडा मंडल के अपने उस सदियों पुराने घर की तरफ चल पड़ा जहां वर्तमान में एक परिवार ही जीने की कोशिश कर रहा था। अपने खेतों की मेड़ों पर उगी झाड़ियां, बंजर खेत में जमी दूब, बिच्छू घास, मकान की जर्जर हालत देख वे न सिर्फ ब्यथित हुए बल्कि उन्होंने एक बार मन बना लिया कि आज रात कट जाय तो कल की कल देखी जाएगी। जैसे तैसे मकान खोला बर्षों पुरानी सिलक्यांण (अजीब सी स्मेल) और धूल मिट्टी से सने अपने आवास को साफ करना शुरू किया। सीढ़ियों पर उगी घास को हाथ से उखाड़ा। शायद अडोस पड़ोस यह सोच भी नहीं सकता था कि यह व्यक्ति सचमुच यहाँ आ बसेगा। फिर माँ का वह बक्सा खोला जिस से माँ बचपन में उन्हें कभी कभार निकालकर जेब खर्च दिया करती थी। उसे खोलते ही उनकी आंखें नम हो गयी। बक्से में माँ का एक कोरा ब्लाउज व अपने पिताजी की टोपली मिली। टोपली (कैप) एक तरफ से खराब हो गयी थी क्योंकि उसकी निचली साइड ने जंक जकड़ लिया था। वे भावुक हो गए और फिर पक्के मन से ठान लिया कि अब चाहे जो हो अपना गांव अपना घर बसाकर रहूंगा। आज दिनेश कंडवाल के नए मकान का कंस्ट्रक्शन चल रहा है और वे बेहद खुश हैं कि वे गांव बसने जा रहे हैं।
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वहीं दूसरी ओर उत्तराखण्ड के संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पन्त के निजी सचिव भूपेंद्र बसेड़ा ने आज मुलाकात के दौरान बताया कि उन्होंने भी तय कर लिया कि वे महानगरों के आवास की जगह पिथौरागढ़ जिले के अपने गांव जाकर शुकुन की जिंदगी जीना पसन्द कर रहे हैं।
हुआ यों कि वे फोन पर तुन के पेड़ काटकर उसके दरवाजे फट्टे खिड़कियां बनाने की बात कर रहे थे। उनके हाथ में एक कागज था जिसमें हैंड मेड नक्शा था। बात जैसे ही समाप्त हुई मैं पूछ बैठा- बसेड़ा जी, देहरादून में और तुन की लकड़ी? यहां तो आपको हर इमारती लकड़ी मिल जाएगी। भूपेंद्र मुस्कराए और बोले- मैंने मन बना लिया है कि रिवर्स माइग्रेशन करूँ अपने गांव की थाती माटी की खुशबू में अपनी जिंदगी यापन करूँ। यह सब हम नहीं करेंगे तो कौन रहेगा हमारे गांवों में।
मैं आश्चर्य से बोला- बसेड़ा जी, आप सब साधन संपन्न हैं। वेतन भी भरपूर है फिर भी यह फैसला? वे बोले- भाई साहब, साधन सम्पन्न हूँ तभी मन भी बनाया है वरना बहुत मुश्किल होता यह निर्णय लेने में। अभी कई साल सेवानिवृत्ति के हैं । बच्चे अभी पढ़ रहे हैं अभी से उनका गांव के प्रति मोह पालना होगा वरना वे बड़े होने पर गांव आएंगे भी यह कहना सम्भव नहीं होगा।
उन्होंने चिंतित होते हुए कहा कि आखिर हम संसाधन जुटाकर फिर क्यों पहाड़ की ओर रुख नहीं करते! क्यों नहीं अपने बच्चों में बचपन से ही अपनी कार्य संस्कृति, लोक संस्कृति, लोकसमाज की बातें नहीं डालते। अगर ये सब चीजें उनकी रगों में समावित हो जाएं तो कोई भी कितना भी साधन संपन्न क्यों न हो जाय गांव नहीं छोड़ना चाहेगा।
मैंने प्रश्न किया- फिर बुढापा कैसे गुजरेगा गांव में! वे बोले हमारे पूर्वजों ने तो तब जिंदगी गुजारी जब मीलों तक न सड़क थी, न बाजार और न स्वास्थ्य सेवाएं ही! पैसा तो अब आया है।
अब ये सब गांव गांव घर घर पहुंच गए हैं। संसाधन सारे हैं और संसाधन जुटाने के लिए पर्याप्त धन भी है, तो क्यों हम प्रदूषणमुक्त अपने गांव छोड़ रहे हैं। मैंने तो निश्चय कर लिया है और कार्य योजना पर अभी से काम करना भी शुरू कर लिया है।
मैं निरुत्तर था लेकिन हृदय से उन्हें सलूट किये बिना न रह सका। काश…हम सभी साधन संपन्न होने के बाद फिर रिवर्स पलायन कर अपने बंजर गांव फिर से आबाद कर पाते।