लो, इस सरकार से भी मोह भंग।

लो ,इस सरकार से भी ‘मोह’ भंग !
(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
सवा करोड़ की आबादी, 60 लाख मतदाता, जिसमें से तकरीबन 15 लाख भाजपा के प्राथमिक सदस्य, प्रदेश में सरकार भाजपा की, विधानसभा की 70 में से 57 और लोकसभा की पांचों सीटों पर भी भाजपा । भाजपा का ऐसा ‘तिलिस्म’ कि हर ओर भाजपा ही भाजपा, लेकिन आश्चर्य न कोई ‘उत्साह’ न कोई बदलाव के संकेत ।

भाजपा मुख्यालय पर होने वाले सरकार के जनता दरबार में सन्नाटा ही सन्नाटा न फरियादियों की भीड़ और न मंत्रियों से मिलने वालों का तांता । लगभग तीन महीने पहले सरकार ने भाजपा मुख्यालय पर हर रोज ‘सरकार’ का जनता दरबार लगाने को फैसला किया, लेकिन सरकार का यह फैसला जनता को रास नहीं आया। मंत्री लोग आदेश के मुताबिक डयूटी बजा जरूर रहे हैं लेकिन सरकार के इस जनता दरबार से जनता जनार्दन ही गायब होती जा रही है। अब तो शायद सरकार भी धीरे धीरे इसे समेटने लगी है।सवाल यह उठता है कि सरकार के जनता दरबार से अगर ‘जनता’ गायब हो रही है तो इसे क्या माना जाए ? क्या सब दुरुस्त हो गया है, प्रदेश की पूरी व्यवस्था पटरी पर है या फिर यह कि इस सरकार से भी जनता का ‘मोह’ भंग हो चुका है ? सच यह है कि सरकार से ‘मोह’ भंग होता जा रहा है । सरकार को यह ‘फीड बैक’ भले ही ‘हजम’ न हो लेकिन हकीकत यही है कि न आम जनता खुश है न आम कार्यकर्ता । अभी तक जब जब सरकारें जनता दरबार लगाती रहीं समस्याओं का अंबार लगता रहा है, शायद इस उम्मीद में कि समस्याओं को हल मिलेगा। लेकिन अब जनता दरबार की कोई अहमियत ही नहीं रह गयी है। मुख्यमंत्री से लेकर उनके तमाम मंत्री जनता दरबार लगा रहे हैं, इस सरकार में तो आलम यह है कि मुख्यमंत्री के ओएसडी तक जनता दरबार सजाए बैठे हैं। इन जनता दरबारों की वो गत हो चुकी है कि आम जनता तो छोड़ो पार्टी के आम कार्यकर्ताओं को भी इनसे कोई उम्मीद नहीं है। उम्मीद हो भी तो कैसे ? फरियादियों की मानें तो सरकार के इन मंत्रियों और ओएसडी की सुनता ही कौन है ? जनता दरबार तो सिर्फ दिखावा है , जब सुनवाई ही नहीं होनी तो इन दरबारों में अर्जी लगाने का मतलब ही क्या है। इन दरबारों में लगी अर्जी का ना कोई रिकार्ड होता है ना फालोअप । काफी हद तक इसमें सच्चाई भी है कि जनता दरबार में जो फरियादें आती हैं उनमें मुख्यत: फरियादें विवेकाधीन कोष, नौकरी और सड़क से जुडी होती हैं। हालात यह हैं कि सरकार इन तीनों ही मोर्चों पर ‘लाचार’ है। हालात कोई बदले नहीं हैं, न अफसरों और राजनेताओं की सोच बदली है और न कार्यसंस्कृति और न सियासत की शह मात में ही कोई बदलाव आया है। सरकार ‘हकीकत’ में ‘कम’ और ‘हवा’ में ‘ज्यादा’ है। क्या बदला है आज सत्ता की सियासत में न तो खनन की ‘खन- खन’ बंद हुई, न शराब का ‘नशा’ कम हुआ है । अफसरों नेताओं का ‘जमीन प्रेम’ भी बरकरार ही है तो वाकई फिर बदला क्या है ? हाल यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के लिये सरकार गैर सरकारी संस्थाओं के आगे हाथ फैलाये हुए है। आखिर सरकार की जिम्मेदारी क्या है ? शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की व्यवस्था करना, दुर्भाग्यवश सरकार तीनों ही मोर्चों पर नाकाम है। शिक्षा के हाल बदहाल हैं, मंत्री पब्लिसिटी स्टंट में लगे हैं। कहीं कोई बदलाव नजर नहीं आता उल्टा जो शिक्षक मनोभाव से लगे भी हैं उनका भी मनोबल गिर रहा है। शिक्षा मंत्री को यह समझाने वाला कोई नहीं कि एक शिक्षक का मूल्यांकन सरकार नहीं उसके छात्र करते हैं। उसका मूल्यांकन ड्रेस, सेल्फी या बायोमेट्रिक से नहीं छात्रों के परिणाम से होता है। स्वास्थ्य महकमा तो मानो लावारिस पड़ा है, इतने अहम विभाग के लिये सरकार में एक अलग से मंत्री तक नहीं हैं। तमाम महत्वपूर्ण महकमों के साथ ही मुख्यमंत्री इस महकमे की जिम्मेदारी भी खुद ही लिये हुए हैं। आज भी प्रसव के दौरान महिलायें दम तोड़ रही हैं । सरकार डाक्टर तो दूर सुरक्षित प्रसव के लिये जरूरी संसाधन और प्रशिक्षित स्टाफ की व्यवस्था तक नहीं कर पा रही है।यह बहुत मुश्किल तो नहीं पर सरकार के वश में यह भी नहीं । अब बात रोजगार की, माना सरकार हर हाथ को सरकारी रोजगार नहीं दे सकती। लेकिन कम से कम सरकार इतना तो कर सकती है कि हर बेरोजगार को समान अवसर हासिल हो। सरकारी सिस्टम में किसी भी स्तर पर चोर दरवाजे से भर्तियां न हो, एक मात्र योग्यता ही
पैमाना हो जिसमें पूरी पारदर्शिता हो। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार की कोई स्पष्ट रोजगार नीति नहीं है, न ही अभी तक इसके कोई संकते मिल रहे हैँ। सरकार पलायन पर चिंता जताती है, वह भी सिर्फ ‘कोरी ‘। आंकडे गवाह हैं कि राज्य से सर्वाधिक पलायन बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिये हो रहा है। आश्चर्य यह है कि सरकार ने यह हकीकत जानने के लिए एक अलग पलायन आयोग ही गठित कर दिया है । इस पर विस्तृत चर्चा कभी अलग से फिलहाल यहां पर सिर्फ इतना ही कि पलायन पर प्रभावी रोक के लिये राज्य में बेहतर शिक्षा और रोजगार की व्यापक संभावनाओं की आवश्यकता है। सरकार इस दिशा में कोई प्रभावी पहल नहीं कर पायी है, बल्कि उल्टा संदेश यह गया है कि सरकार ने हजारों पद समाप्त कर दिये हैं। सरकार में मंत्रियों की ही कोई पूछ नहीं है, अंदरूनी सियासत इस कदर चरम पर है कि हर कोई ‘शह’ ‘मात’ के खेल में उलझा है। सरकार अपने ही ‘घेरे’ में कैद हो कर रह गयी है। सियासी माहौल में कहीं कोई नयापन नहीं । जब वही पुराना ढर्रा है तो ऐसे में निराशा क्यों न हो ? आम लोगों के बीच घर करती यह निराशा सरकार की नाकामी है, और यह नाकामी निसंदेह 2019 में अपना असर दिखाएगी। यह सच है कि सावन के ‘अंधे’ को ‘हरा’ ही ‘हरा’ नजर आता है, लेकिन यह भी सच है कि दरकती उम्मीदों के साथ भाजपा का ‘तिलिस्म’ भी टूट रहा है। अब देखना यह है कि क्या सरकार इसे समय रहते भांप पाएगी ?

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