लोकसमाज की महिलाओं की प्रेम पीड़ा का अद्भुत बखान है यह छोड़ा! शान्ति वर्मा “तन्हा” ने किया लिया खूबसूरती से पुरातन प्रयोग!

लोकसमाज की महिलाओं की प्रेम पीड़ा का अद्भुत बखान है यह छोड़ा! शान्ति वर्मातन्हा ने किया लिया खूबसूरती से पुरातन प्रयोग!

(मनोज इष्टवाल)
बस सुनने भर की देर है और जब आप के अंतस से अहा…निकलती हुई हृदय पटक से होकर  यह आवाज मस्तक तक पहुंचकर हाहाकार मचाती है तो आँखें खुद ब खुद मुंदने लगती हैं! आप कल्पनाओं के ऐसे सागर में गोते खाने लगते हैं कि उससे निकलने वाली हूक अन्तस् में मीठी पीड़ा जगा देती है!
यह छोड़ा पर्वत की नारी का वह उत्कंठ बर्णन सुनाता है जो सामाजिक मान मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने हृदय में पनपे प्यार के सुर जब उद्गारित करती है तब तक वह वक्त कब का फिसलकर उसकी मुट्ठी से निकल जाता है. यह छोड़ा जिसके बोल हैं – काडे त बोलू माता कोआ. ..तू चुणों मुल्क रो की गारो..!” यह गीत उस हृदय की प्रेम वेदना को हृदय के उन मनोभावों तक ले जाकर आपको कल्पनाओं के ऐसे सागर में ले जाने में सक्षम है जहाँ आप अपने अतीत के पन्ने पलटने शुरू कर देते हैं!

यहाँ नायिका अपनी ससुराल में रहकर भी अपने मायके के उस अबोध बचपन के प्यार को नहीं भुला पा रही है जो उसने किया तो था लेकिन सामाजिक लोक लाज व पारिवारिक परम्पराओं के मध्य नजर कभी उजागर नहीं कर पाई! वह ऐसे में किस से अपने दिल की हुक सुनाये किस से बतियाये यह असमंजस उसकी वेदना का सबसे बड़ा शुरुर है! वह कौवे के अपनी ब्यथा सुनाने का माध्यम बनाती है ताकि बर्षों से उसके ह्रदय में जमा वह प्यार कहीं तो उसकी आँखों से हृदय से निकलकर उसे शांत करे!
कौवा..यानि कांव-कांव करने वाला भले ही वर्तमान मोबाइल के जमाने में डाकिया का काम नहीं करता लेकिन जब सिर्फ पोस्ट ऑफिस की डाक का इन्तजार रहता था और कौवा आपके आँगन में आकर सुबह सुबह कांव-कांव कर दे तो समझिये जरुर कोई चिट्ठी रास्ते लगी है या फिर कोई मेहमान आने लगता है! यह तो वर्तमान में भी है कि अगर कौवा सुबह सुबह आकर कांव-कांव कर जाए तो शाम तक मेहमान जरुर आपके घर होता है!
कौवा, कागा पर जाने कितने गीत पहाड़ के लोक समाज में नायिकाओं के साथ जुड़े हैं जिनमें- तेरी ठन्करियुं म राधा बसी जालो काणु…” रिंगीरिंगी,रिन्गिकी कागा, मेरी राजी ख़ुशी…”, उठुकी लागी हिचिकी मूखै आग लागी भरभरोंदी, जयादी कागा मेरे मुलके याद कसिके औंदी!” या फिर काला बासा कौवा तेरे आंगने, तेरे आंगने तेरे आंगने..!” सहित तमाम गीत हैं! लेकिन यह छोडा अपनी विधा का अलग और अनूठा इसलिए है कि आज तक एकल में किसी जौनसारी गायिका ने ऐसा साहस नहीं जुटा पाया था कि वे इस विधा पर ऑडियो मार्केट में उतार सके! यह लोकगायिका शान्ति वर्मा “तन्हा” की मर्कसी आवाज ही कर सकती थी और सच कहूँ तो इस गीत को सुनकर ऐसा लगता है मानों यह इसी आवाज के लिए बना हो! शांति वर्मा तन्हा की मैं खुले मन से तारीफ़ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इनके हाल ही में गाये गीत मैंने बड़ी शिद्दत के साथ सुने! आज यह गीत जब यूट्यूब पर देखा तो अपने को रोक नहीं सका! शान्ति अपने समाज की ऐसी पहली गायिका दिखी जिसकी उम्र के साथ रियाज बढ़ा और आवाज का सुरीलापन मिठास घोलता नजर आया!
यह छोड़ा जौनसारी समाज का हर व्यक्ति भले से समझ सकता है लेकिन इसके मधुर कंठ से क्या सुर बहे, क्या पीड़ा उद्गारित हुई वह हर कोई नहीं समझ सकता है इसलिए मैं कोशिश कर रहा हूँ कि इसे अपने शब्दों में बयान कर आप तक पहुँचाऊ! मुझे लगता है कि छोड़े में नायिका के आँगन में जब कौवा दाखिल हुआ तब वह अपनी प्रेम अगन में तपकर उन्हीं ख़्वाबों-ख्यालों में थी कि कौवे की कांव के साथ वह अपनी विरह पीड़ा छुपा नहीं सकी और कौवे से बात करके अपने प्रेयसी को सन्देश देती है! यहाँ संदेश में ऐसा प्रतीत होता है मानों कौवा प्रेयसी से कह रहा है कि तेरा प्रेमी तेरी यादों में बीमार है! तब प्रेयसी अपनी शब्दों में कौवे से कह रही है कि आखिर मैं कर ही क्या सकती हूँ! ससुराल में रो ही तो नहीं सकती! कोई रोता देखेगा तो लोग क्या कहेंगे! ऐसे में कौवा उसे युक्ति सुझाता है कि तुम इस शरद ऋतू में पनघट पर कपडे धोने जाओ,और वहाँ अपने प्रियतम के लिए जी भरकर रोना! कोई अगर तुम्हारे रोने का कारण पूछे तो कहना कि हिमालय की बर्फीली हवाओं से मी आंसू निकल रहे हैं! नायिका असहाय सी निढाल होकर कौवे से कहती है कि दूर मेरे मायके के पर्वतों की ओर से चारागाहों में बजती बांसुरी के सुर रह रह कर मुझे मेरे मायके और मेरे प्रेमी की याद दिलाती रहती हैं, किन्तु मैं बेबस और लाचार हूँ! वहां जा भी नहीं सकती क्योंकि मायके में भाभी के दिए ताने जब याद आते हैं तो मन करता है जहर खाकर अपनी जान दे दूँ!
आहा…सच में कितना निश्छल निष्कपट है यह प्रेम! देव आत्माओं के लोक के रूप में यह पर्वत इसीलिए पुकारे भी जाते हैं! जहाँ मन में ध्वंध तो है लेकिन विद्रोह नहीं भरा है! एक नारी अपने कुल की आन-बान शान के कारण हमेशा ही अपने सर्वस्व का त्याग करती रही है! ऐसी नारी धन्य है!
संगीत पक्ष की बानगी में मेरे हिसाब से छोड़े की भाषा में ही संगीत को रखा जाना उचित है! रही गायन की व गीत की बात तो मुझे लगता है शान्ति वर्मा एक ऐसा गीत छोड़े को परिभाषित करती हुई गा गई जो लोक समाज की मिटती धरोहर को संजीवनी देना का माध्यम बनेगी! क्योंकि जौनसार बावर के जंगू, भावी, भारत,छोड़े मिटने की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं!लोक समाज की अगुवाई करे वाले सभी लोक कलाकारों से अनुरोध की ऐसी विधाओं को आगे लायें और संरक्षित करें ताकि आने वाले कल को आपके ये लोक विधा के गीत ज़िंदा रख सकें. शान्ति वर्मा तन्हा के इस प्रयास के लिए उनका तहेदिल शुक्रिया! एक बार जरुर सुनिए:-

 

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