लोकसमाज और लोक संस्कृति की खुशबू है कमला बडोनी।

लोकसमाज और लोक संस्कृति की खुशबू है कमला बडोनी।
(मनोज इष्टवाल)
सुप्रसिद्ध अभिनेत्री हेमामालिनी की वर्ल्ड फेम पत्रिका “मेरी सहेली” का बर्षों से सम्पादन कर रही कमला बडोनी जब कौथिग के स्टूडियो में मुझे लेकर गयी तब तक मैं यही सोचता था कि उनकी पत्रिका के हिसाब से उनके पास पहाड़, गांव, खेत, खलिहान व उसके लोक समाज व लोक संस्कृति से सम्बंधित भला क्या बिषय सामग्री होगी। कौतूहल था कि जाने किस बात पर वह चर्चा करेंगी। खैर यह ध्वन्ध चल ही रहा था कि उन्होंने अपने “रेड कार्पेट टॉक शो” में कैमरा फेस करवाने से पहले मुझसे प्रश्न किया कि आप यूँ तो अपने लोक समाज के लिए बहुत जाना पहचाना चेहरा हैं अब आप तय करें कि किस सब्जेक्ट पर आपसे बात हो जो बिल्कुल अलग हो। हम आजतक समाज के बेहद बुद्धिजीवी या युवाओं के लिए इंटरव्यू करते रहे हैं क्या आपको नहीं लगता कि हम बच्चों के लिए भी कुछ ऐसा करें जिससे वे सिर्फ कार्टून चैनल ही न देखे उत्सुकता से हमारे समाज में ब्याप्त उस लोक को भी समझें जिसमें हम रहे हैं। पर्यटन, पलायन, पत्रकारिता, संस्कृति जैसे कई विषयों को हम दिखा चुके हैं आप हिमालयी भूभाग पर केंद्रित कुछ ऐसे लोक की कहानियां दें जो सबसे अलग हो।

मैंने हंसते हुए जवाब दिया आप अस्कोट (कुमाऊँ) से आराकोट (गढ़वाल) तक किसी भी सब्जेक्ट पर बात करें तो मुझे खुशी होगी। वह अपनी चिरपरिचित मुस्कान से मेरी तरफ देखती हुई बोली- क्यों न हम उन परी, आँछरियों पर बात करें जो आपके लेखों में दिखती हैं व जिन्हें फॉलो करते हुए कई नेशनल चैनल वहां पहुंच जाते हैं।
मैं मुस्कराया मन ही मन कमला बडोनी के क्विक ब्रेन की तारीफ किये बिना नहीं रह सका। स्टूडियो में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी भी वाह किये बिना नहीं रह सके। मैं इसलिए अचंभित था कि कमला बडोनी आखिर पढ़ने का समय कब निकाल पाती हैं। एक नेशनल मैगज़ीन का सम्पादन करना कोई सरल काम नहीं होता।
परी लोक पर चर्चा से पहले जब उन्होंने गढ़ कुमाऊँ सम्बन्धी कई सन्दर्भ रखे तो मुझे खुशी हुई कि कौथिग का आयोजन सिर्फ नाच गाना नहीं है बल्कि पर्वतीय समाज को बांधे रखना और उसे पहाड़ के प्रति सजग रखने की एक बड़ी जिम्मेदारी भी मुम्बई कौथिग ने संभाली है। कमला बडोनी के परीलोक पर चर्चा से पहले एक और चेहरा सामने घूमा वह चेहरा उत्तराखण्ड कांग्रेस के युवा प्रवक्ता व समाजसेवी विजयपाल रावत का है जिन्हें परियों पर केंद्रित मेरे लेखों में चुस्कियां लेने की आदत है।
अब जब परीलोक के माध्यम से स्टूडियो बाल्य काल की अनुभूतियों से जुड़ा हो तो मजा ही अलग था। मेरा रुचिकर बिषय भी …! क्योंकि वह सब जो आंखों ने देखा कानों व हृदय ने महसूस किया वह दृश्यपटल पर उतरने को बेताब था।

मेरी सहेली की सम्पादक कमला बडोनी ने इसे बेहद सरल शब्दों में बच्चों के लिए कहानियों का एक दौर बताया व उनकी उत्सुकता का बिषय बताया लेकिन सच्चाई यह भी है कि इस प्रसंग में जीतू बगडवाल, श्रीकृष्ण, आदिदेव महादेव, ब्रह्मा, बिष्णु ही नहीं बल्कि लोक समाज का हर तबका जुड़ता चला गया और लोक संस्कृति को छूता हुआ यह इस लोक से अन्नतलोक तक जा पहुंचा। सच कहूं तो यह चातुर्य ही आपको पत्रकारिता के मूल्यों की परिभाषा को वर्णित करने का माध्यम समझाता है ताकि लोकतंत्र के मानक पूरे हो सकें। बेहद श्रद्धा से कमला बडोनी को साधुवाद।
फोटो-राजेन्द्र जोशी।

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