लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सच्चे हिमायती थे पर्वत पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा।

(सुनील नेगी, अध्यक्ष उत्तराखण्ड जर्नलिस्ट फोरम)
एक साधारण परिवार से सम्बद्ध , अकूत संघर्षों के मार्फ़त देश ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना विशिष्ठ स्थान बनाने वाली एक अदद सख्शियत जिसने जन्म तो लिया गढ़वाल , उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव में, लेकिन स्वराज आंदोलन में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाकर आजाद भारत में उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री से केंद्र में कई मंत्रालयों के मंत्री रहे।  हिमवती नंदन बहुगुणा उन बिरले राजनेताओं में से एक थे जिन्होंने सदैव सिद्धांतों और आदर्शों के लिए सत्ता सुख को तिलांजलि दी और इंदिरा गांधी जैसी अजीम शख्सियत को भी जनविरोधी इमरजेंसी लगाने पर नहीं बक्शा। हिमवती नन्दन बहुगुणा ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया और देश की सर्वोच्च सत्ता केंद्र इंदिरा गांधी से सीधी टक्कर लेकर जय प्रकाश नारायण के समग्र आंदोलन के सर्वसंचालक बने। अगर उत्तराखंड की कंदराओं से गोविन्द बल्लभ पंत के बाद देश और दुनिया में नाम कमाने वाले किसी राजनैतिक शख्सियत का नाम याद आता है तो वो और कोई नहीं बल्कि हेमवती नंदन बहुगुणा ही थे। यही कारण भी है कि बर्षों से 25 अप्रैल  को देश भर में उनका जन्म दिवस संकल्प दिवस के रूप में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के वास्तविक प्रतीक, देश में राजनैतिक और आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सच्चे हिमायती और घर-घर स्वराज का नारा बुलंद करने वाले हिमवती नंदन बहुगुणा, गांधी, नेहरू और गोविन्द बल्लभ पंत के बाद एक मात्र वह शख्सियत बची थी जिन्होंने अपने प्रखर धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण , राष्ट्रवाद और समाज के दबे कुचले, अत्यंत गरीब, पिछड़ों, अकलियतों और मजदूर वर्ग एवं देश के हिमालयी क्षेत्रों के उत्थान के लिए सतत संघर्षरत रहते हुए अन्तोगत्वा 17 मार्च 1989 को हॉस्टन , क्लीवलैंड न्यूयार्क के एक अस्पताल में अपने जीवन की आखिरी साँसे भरीं।

हिमवती नंदन बहुगुणा भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक, देश के विभिन्न भागों में सक्रिय , उनके सिद्धांतों, आदर्शों, मूल्यों और बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित हजारों-हजार अनुयायी हर वर्ष उनके जन्म दिवस 25 अप्रैल के दिन उन्हें याद करते हुए उनके द्वारा प्रशस्त किये गए मार्गों और सिद्धांतों पर चलने और उनका अनुशरण करने की प्रतिज्ञा करते हैं, जिनमें से से मैं भी एक हूँ। इस 25अप्रैल को भी देश के कोने-कोने में उनके समर्थकों और चाहने वालों ने बड़ी धूमधाम से संकल्प दिवस के रूप में हिमालय पुत्र हिमवती नन्दन बहुगुणा का जन्म दिवा मनाया।
25 अप्रैल 1919 को पौड़ी गढ़वाल के बुघाणी गांव में जन्मे हिमवती नंदन बहुगुणा का जीवन वास्तव में अत्यंत कठिनाइयों, संघर्षों, झंझावातों और राजनैतिक  उठापटक से ओतप्रोत रहा। बचपन से ही उनके भीतर नेतृत्व के गुण कूट कूट कर भरे थे। वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद गए जहाँ उन्होंने बतौर मजदूर नेता गरीबी के आलम में जीवन काटने के साथ साथ बेहद संघर्ष किया.इलाहाबाद में मजदूर संघर्षों के चलते उन्होंने मजदूर नेता के रूप में अपना एक ख़ास मुकाम बनाया और इलाहबाद विश्वविद्यालय में बतौर छात्र संघ अध्यक्ष चुनाव भी जीता।उन्होंने इसी दौरान कमला से ब्याह रचाया।  1942 में महात्मा गांधी के आवाह्न पर बहुगुणा स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े और अंग्रेजी हुकमरानों के लिए एक जबरदस्त मुसीबत बने।  ये बेहद हैरतअंगेज तथ्य है कि उस समय अंग्रेज़ों ने बहुगुणा को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए 10 हजार रुपये इनाम रखा था जो एक खासी बड़ी रकम मानी जाती थी। स्वराज आंदोलन के दौरान वे अनेकों बार इलाहाबाद और सुल्तानपुर जेलों में कैद रहे। इलाहबाद में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान बहुगुणा आनंद भवन में जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के संपर्क में आये। यहीं से उनकी असल राजनैतिक पारी की शुरुआत हुई।  वर्ष 1848 में स्वराज्य प्राप्ति के ठीक एक वर्ष बाद उन्होंने इलाहाबाद में मजदूर यूनियन का अध्यक्ष पद संभाला और उनकी मांगों के लिए सतत संघर्षरत रहे। उनकी राजनैतिक प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें पहली बार वर्ष 1952 में करछना विधानसभा का टिकट मिला जहाँ से वे भारी मतों से विजयी हुए।  वे सच्चे मायनों में मजदूरों के नेता थे, जिन्होंने विधानसभा में हमेशा मजदूरों की आवाज़ बुलंद की। उनकी आउटस्टैंडिंग कार्यशैली और कार्य कुशलता से प्रभावित होकर वर्ष 1958-59 में उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य सरकार में उपमंत्री बनाया गया।  वर्ष 1967-68 में उन्होंने बतौर वित्तमंत्री राज्य का शानदार प्रो-पीपल बजट पेश किया और समाज के सभी वर्गों को न सिर्फ खुश किया बल्कि बेहद प्रभावित भी किया।  उनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक मोड़ वर्ष 1969 में तब आया जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के विभाजन के दौर में तदेन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का साथ दिया और अपार कार्यकुशलता का परिचय देते हुए राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा गांधी के प्रत्याशी वराह वेंकट गिरी को विजयी बनाकर उनका दिल जीता।

इस चुनाव में राष्ट्रपति पद पर हुई इंदिरा गांधी के प्रत्याशी की विजयश्री के बाद वे इंदिरा के ख़ास सिपहसलार बनकर उभरे और वर्ष 1971 के राष्ट्रीय चुनाव में देशभर में प्रचार कर उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अपार बहुमत दिलवाया।  इंदिरा गांधी उनके इस सहयोग, संगठनात्मक शक्ति व कुशाग्र बुद्धि से इतनी अधिक प्रभावित हुई कि उन्होंने बहुगुणा को न सिर्फ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया बल्कि केंद्र में संचार मंत्रालय का कार्यभार भी सौंपा। इस बीच वर्ष 1973 में उत्तर प्रदेश में प्रोविसिअल आर्म्ड कांस्टेबुलरी ( Provincial Armed Constabulary) के विद्रोह के चलते राज्य में कांग्रेस का सुदृढ़ शासन डोलने लगा। इंदिरा गांधी ने बहुगुणा की अपर कार्यक्षमता और उनके धर्मनिरपेक्ष चरित्र के मद्देनजर उन्हें प्रदेश के चुनौतीपूर्ण मुख्यमंत्री पद की बागडौर सौंप दी। अपनी अपार कार्य कुशलता ,सक्षम नेतृत्व और प्रखर बुद्धिमता के चलते हिमवती नंदन बहुगुणा ने न सिर्फ खतरनाक पीएसी विद्रोह को सफलतापूर्वक कुचल दिया बल्कि उनके काबिल मुख्यमंत्रित्व काल में प्रदेश में कहीं शिया सुन्नी संघर्ष भी नहीं हुए और उत्तर प्रदेश का हर वर्ग और सम्प्रदाय उनका मुरीद बन गया।  उनके जादुई नेतृत्व में उत्तर प्रदेश जहाँ उत्तरोत्तर विकास की नयी बुलंदियों को छू रहा था वही दूसरी तरफ बहुगुणा द्वारा राज्य के शिक्षक वर्ग को दिए गए फायदों जैसे लंबित प्रोमोशनो आदि के चलते उनकी चारों और वाहवाही होने लगी।  बहुगुणा ने पी ए सी रिवोल्ट खत्म किया, सिया सुन्नी झगडे, जो उत्तरप्रदेश में अक्सर होते थे, को जड़ से समाप्त किया और कई महीनों से चल रहे शिक्षकों की हड़ताल को बखूबी हल किया। ऊपर से राज्य को विकास की पटरी पर लाये।  फलस्वरूप मीडिया ने बहुगुणा की छवि एक सफलतम राष्ट्रीय नेता की बना दी।  चारों और उनकी वाहवाही के किस्सों के गुणगान होने लगे. प्रदेश का सांप्रदायिक ताना-बाना इस कदर शसक्त बन गया कि मुस्लिम समुदाय और हिन्दू दोनों ही उनके काबिल नेतृत्व तले अत्यंत सुरक्षित महसूस करने लगे।
नौजवान भी उनके व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित थे. बहुत कम लोग जानते हैं कि कांग्रेस के छात्र संगठन का नामकरण बतौर भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (NSUI) हिमवती नन्दन बहुगुणा  ने ही किया था। बहुगुणा की छवि एक विकास पुरुष और विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष नेता की बन गयी जिसका उस वक्त कोई सानी नहीं था।  भले ही बहुगुणा की कर्मस्थली इलाहाबाद रही हो लेकिन वह अपनी जन्म स्थली यानि गढ़वाल और उत्तराखंड के लिए हमेशा चिंतित और प्रयत्नरत रहते थे। उन्होंने बतौर प्रदेश के मुख्यमंत्री सबसे पहले उत्तराखंड के चौतरफा विकास के मद्देनजर पृथक हिल डेवलपमेंट बोर्ड/परिषद की स्थापना की जो एक तरह से पृथक राज्य की नींव डालने के सामान ही था और जिसके चलते गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में विकास का सिलसिला शुरू हो सका।  वर्ष 1978 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में बहुगुणा की कुशल कार्यप्रणाली और संगठनात्मक क्षमता एक बार फिर रंग लायी और कांग्रेस ने प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल किया।  इस चुनाव के सफल परिणामों के बाद हिमवती नंदन बहुगुणा की छवि एक प्रखर राष्ट्रीय नेता की बन गयी और सम्पूर्ण देश में उनकी चर्चा होने लगी। देश के अल्पसंख्यक समाज में तो उनकी ख़ास पहचान बन गयी और उन्हें सेकुलरिज्म का एक जीता जगता उदाहरण भारतीय राजनीति में माना जाने लगा।  प्रदेश में आयोजित उस समय के सुविख्यात हिंदी /अंग्रेजी साप्ताहिक ब्लिट्ज (BLITZ) के संपादक, वयोवृद्ध पत्रकार आर. के. करंजिया ने रुसी नेताओं और अम्बेसडर की मौजूदगी में एक सेमिनार को सम्बोधित करते हुए उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का काबिल मटेरियल घोषित कर पूरे मीडिया जगत में खासा हंगामा खड़ा कर दिया। बस फिर क्या था, इंदिरा गांधी जो उस समय देश की प्रधानमंत्री थीं, बहुगुणा से नाराज रहने लगी क्योंकि उनके ख़ास चाटुकारों ने इंदिरा गांधी के कान भर दिए थे।  बहुगुणा के विरुद्ध अंदरखाने षड़यंत्र रचे जाने लगे। यह दौर दरअसल इंदिरा गांधी और बहुगुणा के बीच दरार की शुरुआत का था। दोनों तरफ से तलवारे खिंच चुकी थीं। दोनों के रिश्तों में बेतहाशा खटाई आना लाजमी था। इंदिरा गांधी ने उनके ख़ास चहेते यशपाल कपूर को बहुगुणा पर नजर रखने की जिम्मेदारी सौंप दी।  इंदिरा  का ये रवैया और दृष्टिकोण बहुगुणा को नागवार लगा और उन्होंने एक रात अत्यंत गुस्से में उन पर खुफिआ नजर रख रहे और इंदिरा के कान भरने वाले यशपाल कपूर का बोरिया बिस्तरा लखनऊ के अपने मुख्यमंत्री आवास से बाहर फिंकवा दिया, इससे इंदिरा गांधी और भड़क गयीं थीं। इसी बीच 1975 में इलाहाबाद हाइकोर्ट से राजनारायण के विरुद्ध मुकदमा हारने के ऐतिहासिक निर्णय के बाद इंदिरा गांधी द्वारा देशभर में लगाई गयी आपातकालीन स्थिति की घोषणा से हेमवती नंदन बेहद रुष्ट हुए जिसकी उन्होंने सार्वजनिक तौर पर भर्त्सना की।
इसी बीच जब जय प्रकाश नारायण ने देश भर में इमरजेंसी के विरुद्ध बिगुल बजाया तो वे उत्तर प्रदेश भी अपना जोरदार विरोध प्रकट करने गए लेकिन बहुगुणा ने अपने चातुर्य और डिप्लोमेटिक अंदाज़ में जय प्रकाश नारायण को गिरफ्तार करने की बजाय उन्हें रेड कारपेट वेलकम दिया, जिससे समग्र क्रांति के प्रणेता जय प्रकाश नारायण इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में एक भी विरोध रैली नहीं की बल्कि वापस हो लिए,  लेकिन बहुगुणा ने उन्हें ये कहकर अपना समर्थन दिया कि वे जनता की आवाज को दबाने और प्रजातंत्र की हत्या की द्योतक इमरजेंसी के विरुद्ध हैं और इस लड़ाई में उनके साथ हैं।  नतीजतन पहले से ही इंदिरा गांधी से रुष्ट बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी गवानी पड़ी। उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री कुर्सी त्याग दी। बहुगुणा और इंदिरा गांधी के राजनैतिक सम्बन्ध विछेद हो गए, देश भर में इंदिरा गांधी का व्यापक पैमाने पर विरोध शुरू हो गया। देश के सभी विपक्षी दल एक हो गए। कांग्रेस से बाहर आकर बहुगुणा और बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस फार डेमोक्रेसी का गठन किया। देश में 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और हिमवती नंदन बहुगुणा को केंद्रीय उर्वरक, रसायन व पेट्रोलियम मंत्री का महत्वपूर्ण कार्यभार सौंपा गया।  मोरारजी देसाई के जाने के बाद जब चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने तो बहुगुणा को पुनः देश का वित मंत्री बनाया गया।बहुगुणा और इंदिरा में राजनैतिक सम्बन्ध विछेद हो गए देशभर में इंदिरा गांधी का विरोध हुआ। सभी विपक्षी दल एक हो गए.
लेकिन व्यवहार  में खुद्दारी से ओतप्रोत बहुगुणा के विचार चौधरी चरण सिंह से भी मेल नहीं खा पाये और उन्होंने चौधरी चरण सिंह की कैबिनेट से बतौर वित्त मंत्री इस्तीफा दे दिया।  इसी बीच स्वयं इंदिरा गांधी और उनके पुत्र
संजय गांधी बहुगुणा से मिलने उनके सरकारी आवास 5 सुनहरी बाग, नयी दिल्ली आये और पुरानी कड़वी बातों को भूलने का आवाहन करते हुए उन्हें पुनः कांग्रेस में आने का न्योता दिया। इंदिरा गांधी हिमवती नंदन बहुगुणा के सांगणात्मक कार्य कौशल से भली भाँती परिचित थी, इसलिए उन्हें पहली बार रिझाने के उद्देश्य से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेंटी का मुख्य महासचिव नियुक्त किया।  हालांकि कांग्रेस के संविधान में इस पद का प्रावधान नहीं था लेकिन उन्होंने संविधान में संशोधन कराकर बहुगुणा को ओब्लाइज यानि कृतार्थ किया। बहुगुणा के कांग्रेस में पुनः लौटने के बाद जब वे अखिल भारतीय कांग्रेस के राष्टीय कार्यालय में बतौर मुख्य महासचिव बैठने लगे तो हजारों की तादाद में उनके पुराने कार्यकर्ता और राजनैतिक शागिर्द उनसे मिलने आने लगे. जबकि बाकी महासचिवों और स्वयं संजय गांधी और इंदिराजी को मिलने वालों की भीड़ कम होने लगी। इससे कई कांग्रेसी वरिष्ठ नेता बौखला गए। इसके अलावा जब उत्तर प्रदेश के सांसदों के टिकट्स फाइनेलाइज़ हो रहे थे तो सबसे पहले चर्चा टेहरी गढ़वाल सीट नंबर एक से शुरू हुई. बहुगुणा ने पार्लियामेंट्री बोर्ड में त्रेपन सिंह नेगी ( पूर्व सांसद ) की जबरदस्त वकालत की जबकि संजय गांधी इस सीट के लिए टेहरी राजशाही के शार्दूल विक्रम शाह के लिए टिकट की वकालत कर रहे थे।  बहुगुणा चाहते तो संजय गांधी के सामने घुटने टेक सकते थे लेकिन उन्होंने त्रेपन  सिंह नेगी, जैसे कर्मठ स्वतंत्रता सेनानी के पक्ष में जोर शोर से बात रखी और अड़ गए. काफी जद्दोजहद के बाद जब बहुगुणा नहीं माने तो अंततोगत्वा त्रेपन सिंह नेगी ही टिकट मिला।  यही किस्सा पुनः संजय और इंदिरा गांधी के बीच दरार का असल कारण बना क्योंकि उस समय कांग्रेस में संजय गांधी की तूती बोल रही थी और वह बहुगुणा के इस हठी रवैय्ये से बेहद काफा थे।  बहरहाल, अपनी अपार कार्य कुशलता, वाक्पटुता और संगठात्मक क्षमता के चलते बहुगुणा ने राष्ट्रीय चुनाव में पूरे देश का दौरा किया और देश भर के पैमाने पर कांग्रेस के पक्ष में हज़ारों सावजनिक सभाओं को सम्बोधित किया।  नतीजतन कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर देश में बहुमत हासिल किया और इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं,  लेकिन कांग्रेस के पुनः सत्ता में आने के पश्चात बहुगुणा का तिरस्कार शुरू हो गया. संजय गांधी के साथ बहुगुणा की पटरी नहीं बैठी. जनरेशन गैप के साथ साथ संजय और बहुगुणा के विचारों और सिद्धांतों में जमीन आसमान का अंतर था. एक डिक्टेटोरिअल और दूसरा पूरी तरह से डेमोक्रैट. इंदिराजी से समय मांगने पर बहुगुणाजी को कभी भी समय नहीं मिलता था।  आर. के. धवन लाबी की पूरी कोशिश रहती थी कि बहुगुणा को बाहर का रास्ता दिखाया जाए।  बहुगुणा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी नहीं लिया गया।  नतीजतन स्वाभिमान के सदैव धनि बहुगुणा ने एक बार फिर हमेशा के लिए कांग्रेस छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी और उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ छोड़कर पौड़ी गढ़वाल से ऐतिहासिक चुनाव लड़कर भारतीय संसद में दस्तक दी।
यह बहुचर्चित चुनाव दो बार टाला गया क्योंकि इसमें बहुत बड़े पैमाने पर रिगिंग हुई थी और बहुगुणा ने उस समय देश के इलेक्शन कमिश्नर एस. एल. शकधर से इस चुनाव में कांग्रेस द्वारा बरती गयी व्यापक पैमाने पर धांधली के विरुद्ध जबरदस्त शिकायत की थी। इस ऐतिहासिक चुनाव को इदिरा वर्सेज बहुगुणा के रूप में देखा गया था जबकि बहुगुणा के खिलाफ कांग्रेस के कैंडिडेट चंद्रमोहन सिंह नेगी थे, लेकिन देश और विदेश के अखबारों और बी बी सी की सुर्खी बने इस चुनाव में अंततः हिमवती नंदन बहुगुणा की ही जीत हुई लेकिन ज़िन्दगी के आखिर पड़ाव का दर्द झेल रहे बहुगुणा ने जीवन में कभी हार नहीं स्वीकार की। उनका सपना था की वे देश की बागडौर संभालें और इसकी तस्वीर और तदबीर बदलकर इतिहास कायम करें।  उन्होंने बाद में राष्ट्रीय स्तर पर डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया, दलित मजदूर किसान पार्टी बनायीं और अकेले दम पर देश भर में संगठन खड़ा किया सिर्फ इसलिए की वे अपने सिद्धांतों, आदर्शों और मूल्यों की मरते दम तक रक्षा कर सकें. वर्ष १९८४ में बहुगुणा इलाहाबाद से मशहूर सिने अभिनेता अमिताभ बचन के खिलाफ लड़े और चुनाव हार गए. ये उनके जीवन का सबसे बड़ा राजनैतिक और व्यक्तिगत सदमा था. इस्के बाद फिर वे राजनैतक तौर पर उभर नहीं पाये.
हालाँकि जीवन के आखिरी संघर्षों के दिनों में भी बहुगुणा ने कभी हार नहीं मानी. एक ह्रदय की बाई पास सर्जरी के बाद यदि वे चाहते तो दूसरी बाई पास सर्जरी , जिसके पश्चात उनकी दुखद मृत्यु हुई थी , को अवॉयड कर सकते थे, क्योंकि ह्रदय चिकित्सकों ने उन्हें कहा था की यदि वे आराम से राजनीती से दूर रहकर जीवन यापन करेंगे तो उनकी जान को कोई खतरा नहीं है. लेकिन बहुगुणाजी को आराम से बैठना कभी गवारा नहीं था।
उन्होंने डाक्टरों से कह दिया की बहुगुणा समोसे खाने और लुत्फ़ वाली जिंदगी जीने के लिए पैदा नहीं हुआ है. उन्हें देश के लिए कुछ ठोस करके ही इस जिंदगी से विदा लेनी है. इसीलिए वे जानबूझ कर अपना ऑपरेशन करने अमरीका गए ताकि चुस्त दुरुस्त होकर वापस लौटेंगे और इस देश की राजनैतिक फ़िज़ा बतौर प्रधान मंत्री बदलेंगे. लेकिन शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। बहुगुणा ने सदैव शानो-शौकत के मुकाबले संघर्षो का रास्ता अख्तियार किया चाहे इसके लिए उन्हें कितनी ही बड़ी चुनौतियों और झंझावातों का सामना क्यों न करना पड़ा। उन्होंने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, उन्होंने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की हमेशा रक्षा की।  वे हमेशा से गरीबों, मजदूरों, अकलियतों और समाज के निम्न स्तरों पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बारे में सोचते थे और उन्हें इन मुसीबतों से ऊपर उठाना चाहते थे. वे पूंजीपति समर्थक कभी नहीं रहे बल्कि अपने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री काल में उन्होंने कांग्रेस हाई सामान यानि इंदिरा गांधी के प्रत्याशी बिड़ला को राज्यसभा से निर्वाचित नहीं होने दिया सिर्फ इसलिए क्योंकि वे बड़े पूंजीपति थे. ये बात इंदिराजी को बेहद नागवारा गुजरी।  यदि बहुगुणा चाहते तो बिड़ला जैसे भरी भरकन प्रत्याशी का विरोध करने की क्या जरुरत थी. देश में सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारा स्थापित करने के दृष्टिकोण के मद्देनजर बहुगुणा ने ही सबसे पहले भारत में रोज़ा के बाद उसे तोड़ने के लिए रोज इफ्तार पार्टियों के सिलसिले को जन्म दिया। आज देश के हर कोने में ईदुल फितूर के दौरान हर राजनैतिक दाल रोज इफ्तार पार्टयिां अकलियतों के भाइयों को देते हैं। वे एक जनेऊ धारी ब्राह्मण थे, लेकिन देश के मुसलमान भाई बहन उनसे एक पिता, भाई और बड़े बुजुर्ग की हैसियत से व्यवहार, प्यार और आदर करते थे। देश का अल्पसंख्यक समुदाय पूरी ईमानदारी से आज भी स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के विचारों का कायल है. गढ़वाल चुनाव में जाती का सहारा लेकर कुछ राजनैतिक दलों और नेताओं ने बहुगुणा को हराने के लिए संकुचित जाती का कुचक्र रचा लेकिन बहुगुणा फिर भी पौड़ी गढ़वाल सीट से 30 हजार से अधिक मतों से विजयी हुए। इतना व्यापक और प्रगाढ़ था उनका राजनैतिक कद.
बहुगुणा जाति, धर्म, सम्प्रदाय से काफी ऊपर थे। वे राष्ट्रीय एकता के जबरदस्त अलम्बरदार थे। वे प्रखर रहस्त्रवादी थे और समाज में गरीबी-अमीरी की खाई को हर हाल में पाटना चाहते थे। वे अत्यंत प्रगतिशील विचारों के थे और देश के वामपंथी दाल उनसे सदैव प्रभावित रहते थे। गढ़वाल में उनकी पार्टी के चार विधायकों में से तीन राजपूत थे और वे सदैव जाती पाती की बात करने वाले लोगों और नेताओं से नफरत करते थे।  बहुगुणा अपने जमीनी कार्यकर्ताओं का बेहद ख्याल रखते थे और उनसे हमेशा प्यार करते थे. वे एक अत्यंत पड़े लिखे और सुलझे हुए नेता थे जो सारे दिन की राजनैतिक सक्रियता के बाद कम से कम तीन चार घंटे समाज और देश की समस्याओं को समझने,उनके हल के रास्ते तलाशने और उनके जीवन स्तर को सुधरने के लिए खूब अध्यन भी करते थे। वे दैनिक अखबारों के अलावा उस वक्त निखिल चक्रवर्ती की मेनस्ट्रीम मेगज़ीन, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली , इकनोमिक टाइम्स और टाइम्स जैसी प्रतिथित मॅगज़ीन्स पड़ते थे. उनके वक्तव्य भाषण और विचार हमेश अत्यंत परिपक्व होते थे. मुझे याद है उनके द्वार लाया गया कांग्रेस के खिलाफ पार्लियामेंट में वह नो कांफिडेंस मोशन जिसमे उन्होंने देश के सभी पहलुओं पर घंटों भाषण देकर सबको आश्चर्य चकित कर दिया था। भले ही ये नो कॉन्फिडेंस मोशन गिर गया था लेकिन उनके भाषण में उठाये गए बिन्दुओं से सभी पार्लिअमेंटरीअन बेहद लाभान्वित हुए थे ज्ञान के दृष्टिकोण से और बहुगुणा की मुद्दों पर पकड़ से।
हिदुस्तान टाइम्स, अंग्रेजी दैनिक ने उस वक़्त बहुगुणा की इस स्पीच को पुरे एक पेज का कवरेज दिया था. उनके भाषण हमेशा तथ्यों, आंकड़ों और हकीकत से लैस होते थे. बहुगुणा अपने पहनावे का विशेष ख्याल रखते थे. वे खालिस सफ़ेद गांधी टोपी, चूड़ीदार पायजामा, स्टार्च लगा कुरता और नेहरू जैकेट पहनते थे और मजाल क्या उनमे कोई दाग लगा हो. वे पक्के खादी धारी थे और गांधी, नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के जबरदस्त अनुयायी थे. पत्रकार बंधू बहुगुणा से बेहद प्रभावित रहते थे क्योंकि बहुगुणा से उन्हें न सिर्फ बढ़िया पोलिटिकल स्टोरी मिलती थी बल्कि वे वेल रेड बहुगुणा से बहुत कुछ सीखते भी थे। देश के नामी गिरामी पत्रकार जैसी खुशवंत सिंह, उद्यान शर्मा, संतोष भारतीय, राजीव शुक्ल आदि आदि पत्रकार उस समय बहुगुणा के निरंतर संपर्क में रहते थे।
ये बहुगुणा की अपने कार्यकर्ताओं के प्रति व्याप्त प्रेम, मोहब्बत और दिलचस्पी का ही नतीजा है की आज देश के कोने कोने में कश्मीर से कन्या कुमारी तक और देश के हर राजनैतिक दल में आपको बहुगुणा समर्थक नेता और कार्यकर्ता आज भी मिल जायेंगे। बहुगुणा की पकड़ देश के हर मुद्दे पर सुदृढ़ और पारदर्शी थी। वे देश की खाद्यान समस्या, तेल समस्या, विदेश नीति,कानून व्यवस्था, माइनॉरिटीज प्रॉब्लम्स , सांप्रदायिक सदभाव ऐतिहासिक तथ्यों और युवाओं के हालातों पर घंटो बोल सकते थे। वे एक प्रभावशाली वक्त थे और उर्दू का ज्ञान उनमे कूट कूट कर भरा था। वे संघटनात्मक क्षमता के धनि थे। बहुगुणा में सबसे बड़ी खासियत यही थे की वे हमेशा ऊर्जावान रहते थे और जल्दी में दिखाई देते थे मानो उन्हें अभी देश के लिए बनहुत कुछ करना है, लेकिन उनकी ये ख्वाइश पूरी नहीं हो सकी।
ये बहुत कम लोग जानते हैं की बहुगुणाजी के जीवित रहते हुए या तो उनके परिवार के सदस्य राजनीती में नहीं आये या बहुगुणा ने उन्हें राजनीती में आने के लिए हतोत्साहित ही किया.बहुगुणा नहीं चाहते थे की उनपर उनके जीवित रहते किसी प्रकार का परिवारवाद का आरोप लगे क्योंकि इन प्रिंसिपल वे स्वयं डाइनस्टिक पॉलिटिक्स के खिलाफ थे। बहुगुणा के जीवित रहते हुए कभी विजय बहुगुणा, रीता बहुगुणा या शेखर बहुगुणा सक्रिय राजनीती में नहीं रहे।  वो भली भाँती जानते थे कि राजनीती में व्यक्ति को मुकाम तक पहुँचने के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते हैं और किस प्रकार पापड बेलने को मजबूर होना पड़ता है। उन्हें पता था कि ऐशोआराम में पले, बड़े हुए उनके पुत्र पटरी वो संघर्ष नहीं कर पाएंगे जो उन्होंने राजनीति में इस मुकाम तक पहुँचने के लिए किये, इसलिए दिवंगत होने से पहले बहुगुणाजी ने अपने बच्चों से स्पष्ट तौर पर कांग्रेस में शामिल होने के निर्देश दे दिए थे ऐसे सूत्र बताते हैं।
यदि एस नहीं था तो क्या वजह थी की बहुगुणाजी की मृत्यु के पश्चात जिस कांग्रेस पार्टी में उनकी छीछालेदर हुई और उन्हें बेहद बुरे दिन देखने को मजबूर होना पढ़ा, उनका पुरे के पूरा कुनबा कांग्रेस की शरण में चला गया. लेकिन बहुगुणाजी की उन्हें कांग्रेस ज्वाइन करने की नसीहत में वाकई दम था . आखिकार राजनीती में लम्बे समय तक गैर सक्रिय रहे उनके पुत्र विजय बहुगुणा न सिर्फ टेहरी गढ़वाल से संसद बने बल्कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जैसे महत्वपूर्ण ओहदे पर भी विराजमान हुए और उनकी पुत्री व पुत्र ज़ो कल तक कांग्रेस की राजनीती में खासे महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे अपने दिवंगत पिता के सभी सिधांतों को ताक में रखकर सत्ता की खातिर भाजपा में शामिल हो गये। उस दल में बहुगुना ज़िसके विरूध हमेशा रहे एक धार्मनिर्पिक्षता के पैरोकार होने के नाते।

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