रूपकुंड मलवे के ढेर में समाया…! बमुश्किल दिखेंगी 9वींसदी के कंकालों की झील!

(मनोज इष्टवाल)
कहते हैं माँ नंदा ने सर्वप्रथम जिस कुंड में अपनी छवि निहारी थी जिसे देखकर वह अभिभूत हो गयी थी वह रूपकुंड माँ नंदा के कोप से ही 9वीं सदी में राज सैनिकों की हड्डियों से पट गया था. तब इतने ओले पड़े थे कि कई सौ सैनिक वहीँ दफन हो गये! जिनकी लगभग 200 अस्थियाँ यत्र-तत्र रूपकुंड के आस-पास बिखरी पड़ी थी लेकिन आज वही रूपकुंड तबाह हो गया है! जिसे माँ नंदा की प्यास बुझाने के लिए शिब ने अपने त्रिशूल से खोदा था?

विगत 13 अक्टूबर 2017 को सुबह 6:30 बजे रूपकुंड पहुंची टीम जिसमें गणेश खुगशाल “गणी”, श्री प्रकाश सिन्हा, विजय धस्माना, विमल ध्यानी, महेश डोभाल व अजय वर्मा शामिल थे यहाँ आकर ठगे रह गए क्योंकि भौगोलिक आपदाओं से इस बार रूपकुंड इतना प्रभावित था कि उसके अंशमात्र भी दर्शन नहीं हो पाया. जाने हिमालयी भू-भाग में ऐसा क्या घटनाक्रम हुआ जो रूपकुंड जमींदोज हो गया!
अपनी उम्र में 5वीं बार रूपकुंड क्षेत्र की यात्रा से विगत दिन पौड़ी लौटे गणेश खुगशाल “गणी” के चेहरे पर वह बिशाक्त साफ़ झलकता दिखाई दिया जो उन्होंने रूपकुंड में देखा उन्हें यकीन नहीं हो रहा है कि आखिर ऐसा हो कैसे सकता है. बेहद दर्द भरे शब्दों में रूपकुंड को बखान करते हुए उनके मुंह से यही शब्द निकले- “मनोज मुझे नहीं लगता कि अब हम रूपकुंड के दर्शन कर पायेंगे! जो तबाही वहां आई है उसका अनुमान लगाना कदाचित मुश्किल हो! प्रकृति ने बेहद बेहरहम होकर उसे अपने मलवे से पाट दिया है! यह मानव गतिविधियों की अधिकता का नतीजा है या फिर कुछ अनहोनी? कुछ नहीं कहा जा सकता!”

(रूपकुंड फोटो-गणेश खुगशाल “गणी” 13 अक्टूबर 2017)
विगत 11 अक्टूबर को वाण से ज्युंरागली तक यात्रा पर निकले इस पांच सदस्यीय दल ने 12 अक्टूबर को बेदनी बुग्याल, 13 अक्टूबर को भगुवासा व 14 अक्टूबर को ज्युंरागली यात्रा कर उसी दिन वापस भागुवासा कैम्प किया जबकि फिर बेदनी व 16 अक्टूबर को यात्रा समाप्त की!

(फाइल फोटो रूपकुंड)
सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि टिहरी के प्रबीण कलुडा व उनकी टीम इस टीम से मात्र 8 दिन पहले रूपकुंड से लौटी है। उन्होंने जो फोटो भेजी है वह हैरान कर देने वाली है। 3 अक्टूबर को प्रवीण कलुडा ने जो फोटो खींची तब इस कुंड में पानी दिखाई दे रहा है।

(फोटो- प्रवीण कलुडा)
प्रवीण कलुडा का कहना है कि- “जी मैं भी ये सोच कर हैरान हूं इतनी बड़ी झील इतने जल्दी कैसे सुख सकती है। अक्टूबर पहले हफ्ते में वहां पर रोज 100 से ज्यादा लोग जा रहे थे हो सकता है ये भी एक वजह हो।”
विगत नंदा राज जात के समय हमने झील के चारों ओर पाये जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल एवं घोड़ों के अस्थि-पंजर आदि वस्तुएं देखी थी जो आज जमींदोज हो गयी हैं! ज्ञात होकि 5029 मीटर (16499 फीट)  की उंचाई पर स्थित रूपकुंड के आसपास पड़े अस्थियों के ढेर एवं नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1942 – 43 में भारतीय वन निगम नंदा देवी शिकार आरक्षण रेंजर एच. के. माधवल, द्वारा की गई। वन विभाग के अधिकारी माधवल यहां दुर्लभ पुष्पों की खोज करने गए थे। क रेंजर अनजाने में झील के भीतर किसी चीज़ से टकराया। देखा तो कंकाल पाया। खोज की तो झील के आसपास और तलहटी में नरकंकालों का ढेर मिला। अधिकारी के साथियों को ऐसा लगा, जैसे वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हों। उनके साथ चल रहे मज़दूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए।

(रूपकुंड फाइल फोटो)
बताया जाता है कि सर्वप्रथम 1960 के दशक में एकत्र नमूनों से लिए गये कार्बन डेटिंग ने अस्पष्ट रूप से यह संकेत दिया कि वे लोग 12वीं सदी से 15वीं सदी तक के बीच के थे। पुन: 2004 में, भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने उस स्थान का दौरा किया ताकि उन कंकालों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके। उस टीम ने अहम सुराग ढूंढ़ निकाले जिनमें गहने, खोपड़ी, हड्डियां और शरीर के संरक्षित ऊतक शामिल थे। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय रेडियोकार्बन प्रवर्धक यूनिट में हड्डियों की रेडियोकार्बन डेटिंग के अनुसार इनकी अवधि 850 ई. में निर्धारित की गयी है !
यकीनन जिस तरह इस हिमालयी भूभाग की भौगोलिकता में परिवर्तन आया है वह बेहद चिंताजनक है. यह सिर्फ रूपकुंड के तबाह हो जाने या खो जाने का अफ़सोस नहीं है बल्कि यह भौगौलिक परिवर्तन आने वाले समय के लिए एक ऐसी चेतावनी साबित हो सकता है जो भविष्य में तबाही ला सकता है. उत्तराखंड सरकार को इस क्षेत्र के अध्ययन के लिए प्रदेश, देश, दुनिया के चुनिन्दा भूगर्भवेताओं यहाँ भेजना चाहिए ताकि उच्च हिमालयी भूभाग में हो रही गतिविधियों पर प्रकृति अनुकूल अंकुश लगाया जा सके!
एक अवधारणा के तहत यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि हो न ही हर बर्ष इसका ऐसा ही स्वरूप बदलता रहा हो क्योंकि पहले इस क्षेत्र में मानव चहलकदमी कम थी अब संसाधनों की अधिकता से हर महीने यहां सैकड़ों पर्यटक पहुंचने लगे हैं। दिल्ली दूरदर्शन में तैनात एक अधिकारी डॉ. सुभाष थलेड़ी अपनी राय देते हैं कि “हो न हो ऐसा हर बर्ष इन महीनों में होता आया हो और बरसात के बाद पुनः यह झील बन जाती हो।”
काश….यह सब ऐसा ही होता जैसा डॉ. सुभाष थलेड़ी कह रहे हैं लेकिन लगातार इस क्षेत्र में ट्रेक करने वाले ट्रेकर्स का मत उनसे भिन्न है क्योंकि ज्यादात्तर ने अक्टूबर नवम्बर में रूपकुंड को यथावत पाया है।

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