“रुपयों कु ब्यो” (टक्कों की शादी) ने सदियों तक बदहाल की महिलाओं की जिन्दगी!

 “रुपयों कु ब्यो” (टक्कों की शादी) ने सदियों तक बदहाल की महिलाओं की जिन्दगी!

(मनोज इष्टवाल)
“बाबा जी भी मेरा ब्वेs निर्दयी रैनी, जौंन पाथा भोरि ब्वेs मेरा रूप्या खैनी!”  काश….बात इन्हीं शब्दों तक खत्म होकर रह जाती! काश….महिला की पीड़ा उसके जज्बात व उसकी तरुणाई के अंश इन्हीं शब्दों में में सिमटकर रह जाती! लेकिन उस अथाह पीड़ा का क्या, जिसने इस ममता की मूरत का सदियों तक बचपन छीना, तरुणाई छीनी और बुढापा अकेलेपन के लिए जीवित रखा! काश…इंसान ने इस स्वरूप की कद्र की होती! सिर्फ देवी बनाकर इसे पूजनीय तो बनाया लेकिन इसके जीवन भर के कष्टों की उस पेबिस्त पर कभी टांका नहीं लगाया जिसने समय काल परिस्थितियों की कठोर यातनाएं सही! चाहे वह माँ नंदा के रूप में हिमवंत देश के राजा की पुत्री रही हो या फिर किसी एक गाँव के गमालू दास की बेटी! नारी ने हर काल में यातनाएं ही झेली और उन यातनाओं के फूटते सब्र के बाँध को उन्होंने अपने अंतर्मन के खुमार के साथ शब्दों की माला में पिरोकर कर्णप्रिय गीतों में गुंजायमान कर प्रकृति द्वारा रचित इस श्रृष्टि के वजूद पर अपनी आह थाह और चाह की ऐसी मोहर लगाईं कि बन, पंछी, पेड़ पौधे, जानवर यहाँ तक कि मनुष्य भी उसकी थाह नहीं पा पाए!

(फाइल फोटो)
रुपयों की शादी कहें या टक्को की शादी बात एक ही है! पुरातन समय ही क्या वर्तमान में भी अभी यह परम्परा कई गरीब घरों में छुपे-छुपाये बदस्तूर जारी हैं ! जिसे कहते तो रुपयों कु ब्यो हैं लेकिन सीधे सीधे कहा जाय तो यह लड़की बेचना जैसी परम्परा है! आपको सहारनपुर, मेरठ, मुज्जफरनगर क्षेत्र में कई ऐसी पहाड़ की बेटियाँ मिल जायेंगी जिन्हें यह पता नहीं कि आखिर उसका पता है कौन? माँ-बाप ने चंद रुपयों के खातिर बेटी की शादी इसलिए कर दी कि खेती बाड़ी वाले किसान हैं लेकिन शादी किस से कर रहे हैं यह उन्हें तब पता चलता है जब मायके आकर बेटी अपना दुखड़ा रोती है और लोकलाज के डर से माँ बाप बेटी को कलेजे में पत्थर रखने को कहते हैं! आखिर बेटी ही क्यों…! कब मिटेगी अपने दूषित समाज से ऐसी परम्पराएं!

अपनी उम्र में मैंने सिर्फ अपने गाँव की एक ऐसी शादी देखि है जिसमें दुल्हा दिल्ली नौकरी पर है और बरात दुल्हन को बिना दुल्हे के ही ले आई! तब मैं छोटा था माँ से पूछा भी कि ऐसा कैसे हो सकता है! माँ ने ही नहीं गाँव के कई लोगों ने यही कहा था कि “यु रुप्यों कु ब्यो च, यनि होंद” (ये रुपयों की शादी है ऐसी ही होती है!) ! शुक्र यह था कि तब वह दुल्हन भी ठीक ठाक उम्र की थी व दुल्हा भी ठीक-ठाक पैंसे कमाने वाला! लेकिन आज भी आश्चर्य इस बात का होता है कि वह शादी इस तरह क्यों हुई जबकि दुल्हा बांका छबीला था फिर ऐसी क्या नौबत आ गयी थी कि उन्हें ऐसी शादी करनी पड़ी! शुक्र है कि यह जोड़ा खूब आनन्द की जिन्दगी जी रहा है और उम्र में भी कोई अंतर नहीं!
लेकिन…! ऐसी बहुत सी शादियाँ भी हुई हैं जिन्हें दुल्हा अपने कन्धों पर उठाकर ले गया! यानी 8 साल से 12 साल तक की कई युवतियां ऐसे ही रुपयों के लोभ में ब्याह दी जाती थी व उनके पति की उम्र उस लड़की के पिता की उम्र से भी अधिक हुआ करती थी! जब तक वह नादाँ नासमझ रहती थी तब तक पति सास इत्यादि की मार खाया करती थी! जब तरुणाई में प्रवेश करती थी तब पति की उम्र इस लायक होती ही नहीं थी कि वह उसकी भावनाओं की कद्र कर सके! यह सब राजा-रजवाड़ों से लेकर गरीब को घरों तक का सिलसिला था! उत्तरकाशी की राजगढ़ी से जुड़े ऐसे कई किस्से हैं जहाँ सिर्फ राजघराने के लोग राजगढ़ी को ऐशगाह के रूप में इस्तेमाल करते थे और उसके सेवक यह जानकारी जुटाकर लाते थे किस क्षेत्र में कौन बांकी खूबसूरत है! वह एक दिन की रानी बनती थी और फिर जिन्दगी भर यूँहीं रह जाती थी! ऐसे कई गीत आज भी गाँव गाँव गाये जाते हैं! लेकिन नारी की पीड़ा के ये सुर क्या आपके दिल को नहीं चीरते जब वह खेत की मुंडेर पर, जंगल में घास काटते हुए कुछ ऐसा प्रलाप अपने गीतों के माध्यम से करती सुनाई दे-
हात को लोट्या हाथन छूटे, बुढया माचद मैं मारण उठे!
पाणीं की गागर हाथन छूटे, मौरू की सुटकी मी पर टूटे!
जेठ का मैना फटाली फूटे, तब करि ब्योऊ जब दांत टूटे,
बाबान देखि नि बुढया जवाई, बिन बात मैंन जवानी गवाई!
बुढया का बाना मैं धर्युं खाड़, कै दिन मिन पड़ी जाण गाड़!
साल द्वी मा बुढयान डवांग होण, तब मैंन बोला कैकु रोण!
काश…यहीं पर ये शब्द भी समाप्त हो जाते लेकिन यहाँ तो नारी वेदना के इतने सुर इतने गीत सम्मिलित हैं कि हर गीत के बोल में नारी ने अपना बालपन खोया, जवानी खोई और जवानी में ही बेबा हो गयी! बिना आसरे के जिन्दगी काटी! लोक लाज मानसम्मान देखते हुए अपनी पारिवारिक परम्पराओं का निर्वहन किया और बदले में हम उसे देवी बनाते रहे! क्या यही देवी का स्वरूप देखना होता है कि उसका बचपन बेचो, तरुणाई बेचो और जवानी की हौंस को अँधेरे की कोठरी में धकेल दो!
ये देखिये कितनी पीड़ा है इस गीत में-
“हे बोई तू भाग्वान रैsन, जैन मेरा टक्को की नथुली पैsन!”
सुण ले माँ तू मेरी बाणी, बुढया को टूटी गये अन्न-पाणी!
पकी जालो भात, पसायो मांड, कन कैकी रोलु बालातन रांड!
उची डांडयूँ म काटी च घास, ज्वानी कटन मिन कैका सास!
साग सगोड़ी काटी त कंडाली, खाणुक आंद याखुली डन्डयाळी!
अशिक्षा के ऐसे दौर ने जाने कितनी मांगे भरी उम्र में सूनी की! भूख ने जाने कितने परिवारों को ऐसी हैवानियत का शिकार बनाया कि बेटी चंद पैंसों के लोभ में बूढ़े खसम को बेच दी और नाम दिया गया रुप्यों कु ब्यो! बाप प्रलोभन क्या देता रहा होगा ऐसी शादी के लिए वो भी जानना जरुरी है:-
ज्वा बेटी छामिया कु जाली, वींबेटी दूंण द्युलो दैय्जा! और बेटी जवाब में कहती है – मी बाबा छामिया कु नी देणु, छामिया खांकरा कु भोगी!” फिर बाप कहता है –ज्वा बेटी छामिया कु जाली, वीं बेटी  लेंदी गौडी द्युलो दैजा!  लेकिन बेटी बाप को उसी के अंदाज में जवाब देकर कहती है कि- जना कना बैख छुली बाबा, तैल्या तापो घाम डांडयूँ मा! दूंण दैज काम नि आन्दु बाबा, मन को त मनिख चैंदा!”
शायद यह वह संक्रमण काल रहा जब बेटियाँ शिक्षित होने लगी और उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता आने लगी क्योंकि ये गीत अक्सर स्कूलों में बार्षिक उत्सवों पर गाया सुनाया जाने वाला गीत बन गया जो समाज को अपने स्तर पर सन्देश देने में कामयाब हुआ! जिसमें एक गीत- केकु बाबन मीन्डल पढ़ायो…वाला भी काफी चर्चित रहा!
रुपयों की शादी पर यह लेख उन बेटियों को समर्पित जो आज भी अभावों में जीवन यापन कर रहे हैं व माँ बाप के पास सिर्फ उन्हें इस तरह की शादी के अलावा कोई और आप्शन नहीं दिखाई देता! मेरा सामाजिक स्तर पर हर माँ- बहन बेटी, बेटे व धनवान वर्ग के हर पुरुष से अनुरोध है कि ऐसे प्रकरणों में आगे आयें व ऐसी बेटियों की शादी में उन घरों की मदद करें जो दहेज रुपी दानव को घर की चौखटों पर खड़ा देख मजबूरी में बेटियों को ऐसे समाज में भेज रहे हैं जहाँ उनका अस्तित्व नौकरानी से भी बदत्तर है! अगर किसी बेटी को कोई ऐसी ही मानसिक व शारीरिक वेदनाओं से गुजरना पड़ रहा हो कृपया उसकी मदद के लिए आगे आयें!
                                                                                           

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