रिवर्स माइग्रेशन के लिए चाहिए दिनेश कंडवाल जैसा जज्बा और हौसला। 62 बर्ष की उम्र में गांव लौट पेश की मिशाल।
रिवर्स माइग्रेसन के लिए चाहिये दिनेश कंडवाल जैसा जज्बा और होंसला, ६२ बरस की उम्र में गांव लौट पेश की मिशाल!
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान!
उत्तराखंड बनने के बाद सबसे ज्यादा अगर पलायन हुआ है तो वो है पौड़ी और अल्मोड़ा जनपद। इन दोनों जनपदों में सैकड़ों गाँव आज पलायन का दंश झेल रहें हैं। इन दोनों जनपदों में पलायन के बाद जिन लोगों ने अपने गाँवों को छोड़ा वे दुबारा लौट कर नहीं आये।
लेकिन इन सबके बीच पौड़ी जनपद के यमकेश्वर ब्लाक के साकिलबाड़ी गांव(किमसार) में इन दिनों बरसों बाद गांव का युवा जो अब बुजुर्ग हो चूका है वापस अपने गाँव लौट आया है। अब उसने फैसला कर दिया है की वो अब यहीं रहेगा। जिस कारण पूरे यमकेश्वर ब्लाक से लेकर ऋषिकेश, देहरादून सहित पूरे प्रदेश में उनके इस फैसले की सराहना हो रही है।
जी हाँ आज ग्राउंड जीरो से हम आपको ऐसे ही शख्सियत से रूबरू करवातें हैं, जो भले आज ६२ बरस के हो चुकें हैं लेकिन आज भी नौजवानों से भी ज्यादा दमखम, होंसला और जज्बा उनके पास है। अपनी माटी के प्रति प्यार और लगाव उन्हें वापस अपने गाँव खींच लाया है। हम बात कर रहें हैं पेशे से जियोलोजिस्ट, लेखक, पत्रकार, फोटोग्राफर, ट्रेकर, बर्ड वाचिंग, वाइल्ड लाइफ के शौक़ीन दिनेश कंडवाल के बारे में।
सितम्बर १९५५ को जन्मे दिनेश कंडवाल मूल रूप से पौड़ी जनपद के यमकेश्वर ब्लाक के साकिलबाड़ी गांव/किमसार निवासी है। ये गांव में कुछ ही समय रहे क्योंकि एमएससी जियोलोजी से करने के पश्चात वर्ष १९८३ में ओएनजीसी में बतौर जियोलोजिस्ट पद पर इनका चयन हो गया था। जिसके बाद उन्होंने बंगाल, आसाम, नागालैण्ड, मिजोरम में अपनी सेवाएँ दी। जबकि त्रिपुरा में सबसे ज्य् समय तक रहे। बचपन से ही सृजनात्मक पहल और बहुमुखी प्रतिभा के धनी दिनेश कंडवाल की सृजनात्मक कार्य नौकरी के दौरान भी बदस्तूर जारी रहे। इन्होने त्रिपुरा में त्रिपुरा की जनजाति लोक कथाएं नामक किताब प्रकाशित की। वहीं इस दौरान कादम्बनी, धर्मयुग, संडे मेल, नंदन, स्वागत सहित दर्जनों पत्र पत्रिकाओं में इनके सैकड़ों लेख, फीचर, और फोटोग्राफ प्रकाशित हुए। ट्रेकिंग के बहुत शौक़ीन दिनेश कंडवाल ने सैकड़ों ट्रैक खंगाले जिसमे बीस हजार फिट तक नेपाल के अन्नापूर्णा ट्रैक सर्किट में ‘थोरांग ला’ पास सम्मलित है। जबकि दूसरी और ये फोटोग्राफी, वर्ड वाचिंग और वाइल्ड लाइफ के बहुत बड़े शौक़ीन हैं। जहाँ भी इन्हें कोई पक्षी और जानवर दिखाई दे तो उसे जी भर के निहारने से लेकर उसकी बेहतरीन फोटो अपने कैमरे में कैद करने को घंटो एक ही जगह में बिना हरकत किये रहते हैं। जिसकी बानगी इनके खींचे गये तस्वीरों में साफ़ झलकती है की फोटो के लिए कितनी मेहनत की गई होगी।
देश के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण करने के पश्चात इनका मन ज्यादा नौकरी में नहीं लगा और समय से पहले ही (४ साल पहले ही) इन्होने स्वैछिक सेवानिवृति ले ली। और अपने देहरादून स्थित घर में रहने लगे। बचपन से ही सृजनात्मक पहल सेवानिवृति के बाद भी कुछ अलग करने को लेकर प्रोत्साहित करती रही और इन्होने देहरादून डिस्कबर नाम की खुद की मासिक पत्रिका निकाली। जिसके वे सम्पादक हैं। बेहद कम समय में इस पत्रिका ने प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी अलग पहचान बनाई। सेवानिवृति के बाद तो मानों इन पर पंख लग गएँ हों उम्र के इस पडाव पर जहाँ अधिकाँश लोग अपने घर की चाहरदीवारी में ही कैद होकर रह जातें हैं और अस्पताल व दवाई ही दोस्त बन जाते हैं वहीँ ६० साल की उम्र पार करने और हार्ट में दो- दो स्टैंड लगने के बाद भी दिनेश कंडवाल आसाम से लेकर जौनसार, रवाई से लेकर बद्रीनाथ, सलुड डूंगरा की खाक छानी। ये तो महज कुछ एक उदाहरण है। द्वितीय केदार मद्द्महेश्वर की दुरूह और हांफने वाली चढ़ाई में भी ये इस उम्र में चढ़ गये। ये वो चढ़ाई है जिसको पार करने में आज का युवा भी हांफ जाये जिससे आप सहसा ही अंदाजा लगा सकते हैं की इस नौजवान बुजुर्ग का होंसला और जज्बा आज भी कितना बुलंद है।
ओएनजीसी में नौकरी लगने और देश के कौने कौने में अपनी सेवाएँ देने की इस वजह से वे अपने गाँव से दूर होते चले गये। फिर बच्चों की पढाई की जिम्मेदारी और नौकरी की मज़बूरी ने उन्हें गांव आने नहीं दिया। जिस कारण गांव का उनका पैतृक मकान उनके आने की राह बरसों से देख रहा था—!! सेवानिवृति के बाद से उनके मन में था की एक दिन वे अपने गाँव जरुर लौटेंगे! इसी उधेड़बुन में देखते ही देखते ५ साल निकल गये। इसी सितम्बर में उन्होंने फैसला लिया की अब तो हर हाल में वापस अपने गांव जाना है। कुछ दिन अपनी धर्मपत्नी से इस बारे में इनकी गुफ्तगू हुई जहाँ से हरी झंडी मिलने पर आखिरकार बरसों बाद रिवर्स माइग्रेसन की उम्मीदों को पंख लगे–! जिसके लिए पहले चरण में बरसों बाद ये इस साल दीपावली में अपने घर आये और इन्होने अपने घर की साफ़ सफाई करके बरसों से अँधेरे पड़े घर को दीयों की रौशनी से हर कोना जगमग किया। इस दौरान उन्होंने जल्द ही वापस लौट आने का वायदा बरसों से राह देख रहे घर, खेत खलियान, जंगलों से की।
दीपावली बीत जाने के १ हफ्ते बाद वो अपनी धर्मपत्नी संग गांव वापस लौट आये! आने के बाद सबसे पहले उन्होंने अपने घर के आगे खाली पड़े खेत में आलू की बुवाई की। इन दिनों वे गाँव में सर्जनात्मक पहल की कोशिशों को साकर करने में लगे हुयें हैं। वे अपने गाँव को होमस्टे, इकोटूरिज्म, बर्ड वाचिंग, वाइल्ड लाइफ के क्षेत्र में विकसित करने की कायावाद में लगे हुयें हैं। जिसमे उनकी धर्मपत्नी का भी उन्हें अपेक्षित सहयोग मिल रहा है।
अपनी माटी में बरसों बात वापस लौटने पर दिनेश कंडवाल कहते हैं की ये उत्तराखंड का दुर्भाग्य है की यहाँ के लोगों ने रोजगार और मुलभुत सुविधाओं के अभाव में अपने अपने गाँवों से पलायन किया और फिर कभी भी लौटकर अपनी थाती और माटी में वापस नहीं आये। ऐसे में कैसे गांवो का विकास होगा –?? जब गाँव में लोग ही नहीं रहेंगे तो गांवो के खंडर भला किससे गांवो में विकास की उम्मीद कर सकते हैं–?? ये जरुर है की लोगों की अपनी अपनी मज़बूरी होगी–! जैसे मेरी थी–! लेकिन जब गाँव से बाहर जाने वाला परिवार हर तरह से सुविधा संपन्न हो गया हो तो फिर वो गाँव क्यों नहीं लौट सकता और कुछ समय क्यों नहीं अपनी माटी को दे सकता है -?? आखिर यही माटी उसकी असली पहचान है। आज देश ही नहीं विदेशों से भी लोग उत्तराखंड के गांवो में बसना चाहते हैं। क्योंकि जो शांति, सुकून और असली जिन्दगी है वो इन्ही पहाड़ो के गांवो में है। मै चाहता तो बाकी अपने जीवन का शेष समय भी ऐशोआराम के साथ देहरादून में रहकर गुजारता लेकिन अब मैंने निर्णय ले लिया है की अपने गाँव की आबोहवा में ही शेष समय गुजारूँगा। मैं अपने गाँव में नई संभावनाओं को भी तलाश रहा हूँ। अभी सब कुछ शुरूआती दौर में है और आने वाले ६ महीने बाद आप आकर देखिएगा की तस्वीर कितनी बदली है–! मैं चाहता हूँ की पहाड़ का हर वो व्यक्ति जो आज सुविधा संपन्न हो चूका है जरुर अपने गांवो का रुख करें और अपने जीवन का शेष समय अपनी माटी में गुजारें और गाँव के विकास के लिए कुछ कार्य करें! मुझे ख़ुशी है की आज कई युवा अपने गांवो में लौट कर रिवर्स माइग्रेसन के जरिये रोजगार सृजन कर पलायन रोकने की दिशा में बहुत ही उम्दा कार्य कर रहें हैं। ऐसे छोटे छोटे प्रयासों से ही अन्य लोग भी अनुसरण करेंगे और पहाड़ के वीरान गांवो की खुशियाँ वापस लौट सकेंगी।
वास्तव में देखा जाय तो ६२ बरस की आयु में वापस गांव लौटना हर किसी के बस की बात नहीं है। उसके लिए बुलंद होंसला और जज्बा होना चाहिये। ऐसे में दिनेश कंडवाल जी का बरसों बाद अपनी थाती-माटी में वापस लौट के आना भविष्य में लोगों के लिए वापस गांव लौटने का सन्देश देगा–! आज ही उन्होंने अवगत कराया कि गाँव में अपने कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे अपनी मासिक पत्रिका देहरादून डिस्कबर को ज्यादा समय नहीं दे पायेंगे इसलिए उन्होंने पत्रिका का संपूर्ण दायित्व युवा व अनुभवी विजयपाल रावत जी को दे दिया है। जो ये बतलानें के लिए काफी है कि वे अपने कार्यों के प्रति कितने संजीदा हैं।
दिल में दो दो स्टैंड लगे होने के बाद भी दिनेश कंडवाल जी आपका वापस गांव लौटने का फैसला बरसों तक लोगों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करेगा साथ ही एक नई राह भी दिखलायेगा। आशा करते है की आने वाले दिनों में आपका हर सपना सच हो। हमारी ओर से आपको ढेरों बधाईया।
सैल्यूट दिनेश कंडवाल जी।