रामा बकरोड़ी, धरणी डोबरियाल व भुप्पू असवाल की भैरों गढ़ी! जहाँ के ऐतिहासिक रणबांकुरों के किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 20 मार्च 2020)
हिमालय दिग्दर्शन ढाकर शोध यात्रा 2020!
विरमोली (कांडाखाल) के जिस होम स्टे में हमने रात गुजारी थी उसके संचालक दो वृद्ध व्यक्ति हुए! यात्रा के संयोजक रतन सिंह असवाल जी ने टीम मेम्बर्स को आदेश जारी किया कि वे किचन में इनका हाथ बंटाएं ! श्रीमती कुसुम बहुगुणा की तारीफ करनी होगी उन्होंने फौरन किचन व्यवस्थित की और किचन कार्यों पर लग गयी। फिर क्या था युवा टीम के नितिन काला, सौरव असवाल, कृष्णा काला, हिमांशु बिष्ट व प्रणेश असवाल ने मिलकर किचन की बागडोर सम्भाली!
सुबह सबेरे प्रभात की किरण अभी निकली ही थी कि होम स्टे के बरामदे में चाय की चुस्कियों के साथ सभी फोटो सेशन में व्यस्त नजर आये! मैं देरी से उठने का आदी हूँ लेकिन चटपट उठकर ब्रश करके नहा धोकर तैयार हो गया! आज मैं किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देना चाहता था कि मैं लेट-लतीफ़ हूँ! बाहर सबके रुक्सेक, बैग पैक होकर पहुंचे नाश्ता हुआ और हम अपनी अगली मंजिल बुरांसी के लिए निकल पड़े! यहाँ से सड़क मार्ग के लगभग आधा पौन किमी. दूरी पर ही भारत की आर्मी के चीफ़ जनरल विपिन रावत का आवास था जिसकी छत्त का छेद आज भी इन्तजार कर रहा है कि कोई उसकी मरोम्मत करवाए!
इस क्षेत्र ने तीन बड़े नाम तो दिए हैं जो वर्तमान में खूब पप्रसिद्धी पाए हैं! पहले जनरल विपिन रावत, दूसरे नवीन बलूणी जो पूर्व में मुख्यमंत्री के सलाहकार रहे व बलूनी स्कूल का इम्पायर इन्होने ही खड़ा किया! तीसरे जयगाँव भट्टगाँव के टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक ओपी भट्ट हुए! यह कहना सही रहेगा कि पौखाल-कांडाखाल की उपजाऊ धरती ने ऐसे सपूत देश को दिए हैं जिन्होंने अपने अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है!

हमारा मकसद ढाकर रूट को प्रमोट करना मुख्य बिंदु था जिसमें हिमालय दिग्दर्शन टीम विरमोली-डाडामंडी-द्युसा-तोली-राजबाट-डाबर-लंगूरी-कलोडी-ग्वीन-बकरोडी होकर द्वारीखाल से बड़ा ग्वीन-छोटा ग्वीन-बाजागाँव-सौंटीयालगाँव-कीमखान्द-डल्ली होकर बुरांसी तक लगभग 30 से 35 किमी. ढाकर यात्रा तय करती लेकिन देशकाल परिस्थिति (कोरोना संक्रमण) की खबर को देखते हुए तय हुआ कि हम आधी यात्रा पैदल व आधी गाडी से करेंगे ताकि हम समय से पूर्व ही बुरांसी गाँव पहुंचे व दिन का खाना गुमखाल या आस-पास खाने की जगह बुरांसी ही खाएं!

यह सचमुच हम सबके लिए अच्छा निर्णय था वरना इतना लम्बा सफर तय करते-करते हमें आज रात के 6 से 7 बज जाते! हमने अब रूट प्लान में द्वारीखाल से ढाकरी रूट ठानखाल-गिन्ठीपाखा-सजीणा-ढौंडधार-कठुडलगा कंदरौटा उर्फ़ गढ़गाँव-सीला-बांघाट छोड़ द्वारीखाल-केतुखाल-भैरोंगढ़ी-रछकिल होकर बुरांसी पैदल मार्ग पकड़ना उचित समझा जो लगभग 10-12किमी. पैदल पड़ता है!
केतुखाल से नारियल व भेली के साथ हमारी टीम भैरोंगढ़ी पहुंची तो पाया शासन के आदेश के कारण मन्दिर बंद करा दिए गए हैं! निराशा तो हुई लेकिन देवधाम में आये हुए थे तो स्वाभाविक सी बात है अपने धर्म-कर्म निभाने ही थे! सबने बंद मंदिर के कपाटों को नमन किया! मैंने नारियाल फोड़ा तो ठाकुर रतन असवाल ने भेली फोड़कर अपने वंशजों की गढ़ी व भैरों बाबा को नमन किया!

बाबा के नाम की भेंट मैंने मंदिर प्रागंण में टहल रहे एक व्यक्ति को दी व मंदिर के एक कौने पर कांच के शो केश में सजी बाबा गुणानन्द को घुटने टेककर नमन किया व उनकी हमारे गाँव धारकोट की मढ़ी में बिताये उस हर काल को याद किया जो मैंने अपने होश सम्भालने से लेकर उनके मढ़ी से भैरों गढ़ी आने तक देखा था! गुणा बाबा मूलतः जाति के डोबरियाल ही थे व रछखिलगाँव के एक तोक चिपलढुंगी के वासी रहे! उनका जोगी बनने के पीछे क्या कारण रहा होगा यह तो नहीं जानता लेकिन इतना सच है कि भैरोंगढ़ी के विकास में उनका अमूल्य योगदान रहा है!

भैरोंगढ़ी से जिधर नजर दौड़ाओ उधर ही पर्वत शिखर बौनी नजर आती हैं! यहाँ से दूर पश्चिम में महाबगढ़, नीचे डाडामंडी तक चमकती लंगूरी गाड़ (नदी) व दूर मैदानी भू-भाग! इस नदी का उदगम स्थान भैरोंगढ़ी की सहायक गढ़ी लंगूरगढ़ी से ही है इसलिए इसे लंगूरीगाड़ कहते हैं जो दुगड्डा में सिलगाड़ नदी से मिलकर खोह नदी बन जाती है! भैंरों गढ़ी की दक्षिणी दिशा में शिखरें लंगूरीगढ़ के पैरलल धीरे-धीरे घटती हुई चैलुसैण-सिलोगी-गैंडखाल-बिजनी-मोहनचट्टी-घटुगाड-फूलचट्टी-गरुड़चट्टी-ऋषिकेश जा पहुँचती हैं! जबकि उत्तरी छोर पर जहरिखाल-कालौंडांडा (लैंसडाउन)-ताडकेश्वर होती हुई शिखरें सुदूर नैनिडांडा से लेकर कुमाऊं होती हुई हिमालय को छूती नजर आती हैं! भैरों गढ़ी के पूर्वी भाग में पूर्वी व पश्चिमी नयार नदियों की उतुंग शिखरों पर बसे चौन्दकोट, तलाई व बारहस्यूं का विराट क्षेत्र नजर आता है! इनमें चौंदकोट गढ़ी, लुकुंदरगढ़, रानीगढ़ इत्यादि लगभग दर्जन भर छोटे बड़े गढ़ शिखरें दिखाई देती हैं!

भैरों गढ़ी की संरचना जिस किलेबंदी की तरह हो रखी है वह यकीनन बेहद अजेय लगता है! इसके पश्चिमी हिस्से में ग्वीन,बकरोटी, पश्चिमोत्तर में केतु खाल, उत्तर में चिपलढुंगी-गहड़-बैरगाँव, पूर्व में रछकिल-कुल्हाड़-बुरांसी व दक्षिणी हिस्से में द्वारीखाल-बाजागाँव-सौंटीयालगाँव-कीमखान्द-डल्ली इत्यादि गाँवों की घेराबंदी है! गढ़ी के चारों ओर तीखा ढाल है इसलिए कोई भी यहाँ आसानी से नहीं चढ़ सकता!
यह वह अजय गढ़ी रही है जिसे गोरखा भी प्रथम बार आक्रमण के बावजूद फतह नहीं कर पाए! आइये संक्षेप में इस गढ़ी का इतिहास बता दें! राजा अजयपाल ने जब 52 गढ़ों के गढ़पतियों को जीतकर एकछत्र राज कायम किया तब तक एक कहावत प्रसिद्ध थी “अधौ गढवाल-अधौ असवाल”! लेकिन 15वीं सदी में इन असवाल थोकदारों के पास सिर्फ 84 गाँव असवालयूँ, 6गाँव उदयपुर अजमीर, तीन गाँव चौन्दकोट व 5 गाँव सीला-बरस्वार,पीड़ा-कन्दोली इत्यादि ही इस क्षेत्र में सीमित गए थे! 15वीं सदी में असवाल थोकदार रणपाल असवाल ने नगर गाँव बसाया तो इसी दौरान राजा अजयपाल ने श्रीनगर की स्थापना की! अत: श्री का मतलब लक्ष्मी/स्त्री या मुकुट से लगाया गया व नगर का मतलब बिना मुकुट के राजा से! नगर गाँव की बसासत सचमुच किसी शहर जैसी ही हुआ करती थी!

खैर इतिहास के पन्ने पलटते-पलटते कहानी लम्बी होती चली जायेगी फिलहाल यहाँ सीधे मुद्दे पर लौटते हैं! इस किले की 1797 ईस्वी में गोरखा सेना के सेनापति अमरसिंह थापा ने तीन महीने तक घेराबंदी की लेकिन वे इस गढ़ी पर विजय हासिल न कर सके! नेपाल पर चीन के आक्रमण की खबर सुनकर उन्हें वापस लौटना पड़ा! 1802 में गढ़वाल में भयंकर भूकम्प आया व इसमें एक तिहाई जनता मर गयी! फिर अकाल वप्लेग नामक महामारी ने कहर मचाया व लगभग दो तिहाई लोग मारे गए! तत्पश्चात 1803 में फिर गोरखा सेना कमांडर अमरसिंह थापा, हस्तीदल चौतरिया ने इस किले को घेरा व इसे फतह कर रौंदते हुए श्रीनगर निकल गए!
बहरहाल यहाँ से हम मंदिर के द्वार की तरफ से बांयी ओर पैदल मार्ग पर निकल पड़े जो तीखे ढाल से गुजरता हुआ रछखिल कुल्हाड़ के लिए निकलता है! इसी के नीचे से निकलती सुरंगे नारदगंगा (जो दनगल में पूर्वी नयार से मिलती हैं) में निकलती थी! यहीं से सैनिकों की आवाजाही का माध्यम व पेयजल आपूर्ति हुआ करती थी! वैसे इस गढ़ी के चारों सिरों से सुरंगे निकलती थी ऐसा लोगों का मानना है! यहाँ से हमें लगातार नीचे उतरना था! लगातार तीखी ढाल जरुर थी लेकिन रास्ता चौड़ा था इसलिए उतरने में ज्यादा तकलीफों का सामना नहीं करना पड़ा!
लगभग 3 घंटे लगातार चलने के बाद हम आखिर बुरांसी गाँव आ पहुंचे! यहाँ गाँव के सबसे बड़े घर में हमारे भोजन की व्यवस्था थी!
क्रमशः…..!